हार कर भी कभी नहीं हारे वाले कुवर सिंह के भाई अमर सिंह
1857 के विद्रोह में वीर कुंवर सिंह ने बिहार का नेतृत्व किया, इस इतिहास से अधिकांश लोग परचित है। उनके बाद उनके भाई वीर अमर सिंह ने विद्रोह का नेतृत्व किया और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिये, 1859 तक उन्होंने अंग्रेजों के साथ लंबा संघर्ष भी किया… वीर अमर सिंह दृढ इच्छा शक्ति और वीरता से अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे और वह हार कर भी कभी नहीं हारे।
वीर अमर सिंह, जिन्होने वीर शिरोमणि कुंवर सिंह के संघर्ष को जारी रखा
अमर सिंह, वीर शिरोमणि कुंवर सिंह के छोटे भाई थे। कुंवर सिंह और अमर सिंह साहिबजादा सिंह के पुत्र थे, जगदीशपुर में विहिया के रहने वाले थे। अमर सिंह देखने में अपने भाई के समान ही लगते थे। क्रांति के समय उनकी आयु 45 वर्ष थी। साहस और शौर्य में, अमर सिंह का साहस और शौर्य भी अपने भाई कुंवर सिंह के समान अद्वितीय थे।
बिहार के शाहाबाद जिले में जगदीशपुर एक छोटी सी राजपूत रियासत थी। सम्राट शाहजहां ने जगदीशपुर रियासत के मालिक को राजा की उपाधि प्रदान की थी। यह रियासत डलहौजी की अपरहण नीति का शिकार हो चुकी थी।
1857 के क्रांति के विस्फोट के समय कुंवर सिंह जगदीशपुर के राजा थे। वह आसपास के इलाके में काफी लोकप्रिय और वीरता का अपूर्व उदाहरण थे। उन्होंने मिलमैन, लार्ड मार्क और डगलस जैसे विख्यात अग्रेज सेनापतियों को पराजित किया था।
जिस समय दानापुर की क्रांतिकारी सेना जगदीशपुर पहुंची, 80 वर्षीय कुवर सिंह ने महल से निकलकर शस्त्र उठा इस सेना का नेतृत्व संभाल लिया। उन्हें जगदीशपुर छोड़ देना पड़ा लेकिन वह स्थान-स्थान पर अंग्रेजों के विरुद्ध मोर्चा लेते रहे।
आठ महीने के उपरात उन्होंने फिर से जगदीशपुर में प्रवेश किया। इन आठ महीनों तक जगदीशपुर अंग्रेजों के आधिपत्य में रहा। इस बीच क्रांति का संचालन उनके भाई अमर सिंह ने किया। अब जगदीशपुर पर फिर से कुंवर सिंह का आधिपत्य हो गया।
युद्ध भूमि में उनके एक हाथ पर घाव लग गया था,कहते है इसी हाथ को उन्होंने काट कर गंगा में बहा दिया था। परंतु, हाथ का घाव ठीक नहीं हो सका और 26 अप्रैल 1858 को वीर कुंवर सिंह की मृत्यु हो गई।
कुंवर सिंह के बाद उनके छोटे भाई अमर सिंह जगदीशपुर के गद्दी पर बैठे। अंग्रेज अधिकारी समय-समय पर कुंवर सिंह और अमर सिंह से प्रतिशोध लेते रहते थे।
अमर सिंह को वीरता का गुण पैतृक विरासत में मिली थी तथा उनकी इच्छा-शक्ति अभूतपूर्व थी। उनकी प्रजा को उनमें अगाध विश्वास था। बड़े-बड़े पुरस्कारों के लालच ने भी उन्हें कभी विश्वासघात की ओर प्रेरित नहीं किया। कुवर सिंह की मृत्यु के उपरांत बिहार में क्रांति को उन्होंने बुझने नहीं दिया और उसको निरंतर जलाए रखा।
वीर शिरोमणि कुंवर सिंह के दाहिना हाथ थे वीर अमर सिंह
अमर सिंह अपने बड़े भाई कुंवर सिंह का दाहिना हाथ थे। उनके जीवनकाल में वह सदा उनके समकक्ष खड़े रहे और उनकी मृत्यु के उपरांत भी क्रांति की ज्वाला को प्रज्वलित रखा। जिस समय कुंवर सिंह अवध के उत्तर-पश्चिम क्षेत्रों में लड़ाई में व्यस्त थे उन दिनों अमर सिंह बिहार की क्रांति का संचालन कर रहे थे। उन्होंने शाहाबाद की क्रांति की बागडोर अपने हाथ में ले ली।
वह छापामार युद्ध में विश्वास रखते थे और निरंतर रोहतास की पहाड़ियों में छुपे रहते थे तथा उन्होंने सासाराम और गया के बीच अंग्रेजों के सम्पर्क के सब साधन काट दिये थे। सासाराम और गया के बीच आवागमन कठिन हो गया। पटना के कमिश्नर बक्सर की स्थिति से निराश हो उठे थे।
अमर सिंह सासाराम से बारह मील दूर कछावर की पर चले गये तथा उनके सासाराम लौटने की आशंका से अंग्रेज कमिश्नर घबरा उठे।उन्होंने कलकत्ता तार देकर देहरी के पास ग्रांड ट्रक रोड से जाती हुई अंग्रेज सेना को रोकने की अनुमति मांगी। स्थिति की गम्भीरता को देखते हुए अंग्रेज अधिकारियों ने अपने परिवारों को कलकत्ता भेज दिया जिससे वह उनकी सुरक्षा के भार से मुक्त हो जाए।
अमर सिंह को पकड़ने के लिए 2000 रु. का इनाम घोषित किया गया। बाद में इनाम की राशी को बढ़ाकर 50,001 रु. कर दि गई। अमर सिंह के सहयोगी निशान सिंह एवं हरकृष्ण सिंह को पकड़वाने वाले का इनाम भी रखा गया था। अंग्रेजों द्वारा अमर सिंह को पकड़ने के सारे प्रयास असफल सिद्ध हो रहे थे।
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छापामार युद्ध में माहिर यौद्धा थे अमर सिंह
वह 6 सिंतबर 1858 को ग्रांड ट्रक रोड पर कुरेडिया के पास दिखाई दिये और उसके बाद फिर पहाड़ियों में छुप गये। उन्होंने इस क्षेत्र के भी संचार के सारे साधने को काट दिया और डाक के घोड़े भी अपने साथ ले गये। कैमूर की पहाड़ियों के निकटवर्ति ग्रामों के निवासी अमर सिंह के रहने के गुप्त स्थानों से परिचित थे। परंतु, उन्होंने अमर सिंह के साथ कभी विश्वासघात नहीं किया।
अंग्रेज अधिकारियों अमर सिंह की गतिविधियों से निरतर चिंतित रहे। अमर सिंह ने कुछ अवधि के लिए सासाराम तथा रोहतास पर भी अपना अधिकार कर लिया था। उन्होंने गया और आरा पर भी आक्रमण किया। एक वर्ष तक समस्त क्षेत्र में अशांति बनी रही।
28 सितंबर 1958 को लैफ्टिनेट बेकर ने अमर सिंह के गांव सिरोही पर आक्रमण किया।अंग्रेजों ने अमर सिंह के एक जमादार, एक हवलदार और दो सिपोहियों को पकड़ लिया और फांसी पर लटका दिया।
अप्रैल 1858 में कुंवर फिर शाहाबाद आ गये और इससे स्थिति और भी विकट हो गयी। अमर सिंह की गतिविधियों तथा इस क्षेत्र में लगातार युद्धरत रहने के कारण अंग्रेजों को बहुत अधिक आर्थिक क्षति उठानी पड़ी।
बिहार के इन क्षेत्रों में अफीम बहुतायत से होती थी। चारों ओर फैली हुई अराजकता के कारण अफीम की खेती नहीं हो सकी। अंग्रेजों को कर के रूप में मिलने वाली राशि में बेहद हानि हुई।
जब अमर सिंह से पकड़ने में कामयाब नही सके जनरल लगर्ड
कुंवर सिंह की मृत्यु के उपरांत अमर सिंह को बहुत सी कठिनाइयों से जूझना पड़ा था। वह चार दिन के लिए आराम से नहीं बैठे। अमर सिंह केवल जगदीशपुर की रियासत पर अधिकार जमाये रखने से सतुष्ट नहीं थे, उनकी महत्वकाक्षां और भी थी।
अमर सिंह को दबाने के लिए अंग्रेजों की तीन पलटन सैनिकों की आरा पहुंची। अंग्रेजों की सेना के साथ उस क्षेत्र में अमर सिंह के कई युद्ध हुए। 3 मई 1858 को राजा अमर सिंह की सेना के साथ जनरल डगलस और लगर्ड की सेनाओं का पहला युद्ध हुआ।
इसके बाद विहिया, हातमपुर, दलीलपुर जैसे कई स्थानों पर दोनों सेनाओं में अनेक युद्ध हुए। अमर सिंह को मालूम था कि युद्ध में अंग्रेजों पर विजय प्राप्त करना कठिन है। उन्होंने छापामार युद्ध द्वारा अंग्रेजों को चने चबवा दिये।
अमर सिंह की सेना कहीं भी किसी भी समय प्रकट हो जाती थी और शत्रु के संचार और रसद के सब साधनों को काट देती थी। जनरल लगर्ड ने जंगल में से सड़क निकालकर क्रांतिकारियों को पकड़ने का प्रयास किया। अमर सिंह की सेना और भी छोटी-छोटी टुकड़ियों में विभक्त हो गयी और छापामार युद्ध से अंग्रेज सेनापति को परेशान कर दिया। जनरल लगर्ड ने निराश होकर त्यागपत्र दे दिया। लगर्ड का भार अब जनरल डगलस पर पड़ा।
जनरल डगलस ने ली अमर सिंह को पकड़ने का जिम्मा
जनरल डगलस ने अमर सिंह को परास्त करने की प्रतिज्ञा की थी। जून, जुलाई, अगस्त, सितम्बर के महीने बीत गये परंतु अमर सिंह पराजित नहीं हो सके। अमर सिंह ने आरा पर आक्रमण किया और जगदीशपुर पर अपना अधिपत्य बनाये रखा।
अमर सिंह ने आरा पर जुलाई में प्रथम वार आक्रमण किया और रेलवे के एक अंग्रेज अधिकारी के बंगले को जला दिया। कर्नल वाल्टर ने उनका पीछा किया परंतु अमर सिंह रात्रि के अंधकार में गायब हो गये।
अंग्रेज आरा की रक्षा करने में सफल रहे। अगले दिन क्रांतिकारी फिर से आरा में प्रकट हुए। लौटते समय अमर सिंह गया पहुंचे और रास्ते में जमेरा के जमींदार चौधरी प्रताप सिंह का घर जला दिया क्योंकि वह अंग्रेजों का साथ दे रहे थे।
अमर सिंह ने जगदीशपुर गंवाने के बाद लटावरपुर को गढ़ बनाया
अब अंग्रेजों की विशाल सेना ने कई तरफ से जगदीशपुर पर आक्रमण कर दिया। 17 अक्टूबर को अंग्रेजी सेना ने जगदीशपुर को चारों ओर से घेर लिया। अमर सिंह ने जब देख लिया अब अंग्रेजों के विशाल सैन्य दल पर विजय प्राप्त करना असंभव है, वह अपने घोड़े पर बैठकर सिपाहिंयों के साथ अंग्रेजी सेना को चीरते हुए वहां से निकल गये। जगदीशपुर अंग्रेजों के हाथ में आ गया, अब अमर सिंह ने लटावरपुर को अपना गढ़ बना लिया।
अंग्रेज सेनापति अमर सिंह से सदैव भयभीत रहते थे। कुछ अंग्रेज अधिकारियों का विचार था कि अमर सिंह अवध की ओर जाना चाहते थे। गाजीपुर के मजिस्ट्रेट के अनुसार अमर सिंह गाजीपुर पर आक्रमण करना चाहते थे तथा एक अन्य अंग्रेज अधिकारी का अनुमान था कि अमर सिंह बनारस पर आक्रमण करेंगे। डगलस ने उन जंगलों को जिनमें अमर सिंह छिपे हुए थे, चारों ओर से घेर लिया।
सेना की कई टुकड़िया जंगल में घुसी। क्रांतिकारियों की सेना जंगल के चप्पे-पच्चे से परिचित थी। वे आसानी से निकलकर भाग गये। अंग्रेज सेनापति को फिर निराश होना पड़ा। अंग्रेज सेना अमर सिंह का पीछा करती रही।
19 अक्टूबर को नौमदी नामक गांव के निकट अमर सिंह को घेर लिया गया। अमर सिंह के साथ केवल चार सौ सिपाही थे। उन सिपाहियों ने अंग्रेज सेना को पीछे खदेड़ दिया। इतने ही में अंग्रेज सेना को मदद पहुंच गई। अमर सिंह अपने कुछ साथियों के साथ रण-क्षेत्र से निकल गये।
बाकी सैनिकों ने लड़ते-लड़ते अपने प्राण मातृभूमि के चरणों में अर्पित कर दिये। कंपनी की सेना अमर सिंह का पीछा करती रही। कहा जाता है कि एक बार अंग्रेज सेना अमर सिंह के हाथी तक पहुंच गयी। अमर सिंह कूदकर निकल भागे और अंग्रेजों के हाथ केवल हाथी ही लगा।
वहां से अमर सिंह ने कैमूर की पहाड़ियों मे शरण ली। जनरल डगलस ने अमर सिंह पर वहां भी आक्रमण किया। अमर सिंह की समस्त सेना अस्त-व्यस्त हो गई थी। उनके दो प्रमुख सहयोगियों निशान सिंह और हरकृष्ण सिंह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया ।परंतु वे अमर सिंह को पकड़ने में अब भी असमर्थ रहे। क्रांतिकारी बार-बार पराजित हुए परंतु उन्होंने फिर भी पराजय स्वीकार नहीं की। लड़ाई निरतर चलती रही।
हार कर भी कभी नहीं हारे वीर अमर सिंह
अमर सिंह क्रांति को जीवित रखने के लिए इधर से उधर भटकते रहे। 1859 में कर्नल रैमजे को सूचना मिली कि अमर सिंह नेपाल की तराई में पहुंच गये है और उन्होंने नाना साहब की क्रांतिकारी सेनाओं के सेनापतित्व का भार संभाल लिया है।
अंत में दिसम्बर 1859 में नेपाल के राणा जंगबहादुर की सेना अमर सिंह को पकड़ने में सफल रही। अमर सिंह को गोरखपुर जेल में रखा गया।
उत्तर पश्चिम प्रांत की सरकार ने बंगाल सरकार से पूछा कि अमर सिंह पर मुकदमा गोरखपुर में चलाना उपयुक्त रहेगा अथवा शाहबाद में ।बंगाल सरकार ने उत्तर दिया- अमर सिंह पर शाहबाद में मुकदमा चलाना ठीक आदर्श उपस्थिति करेगा। यह सब विवाद चल ही रहा था कि अमर सिंह को पेचिश हो गई।
मुकदमे से पहले ही काल का बुलावा आ गया उर उन्होंने 5 फरवरी 1860 को गोरखपुर जेल में प्राण त्यग दिये। अमर सिंह दृढ इच्छा शक्ति और वीरता से अंग्रेजों के विरुद्ध अविराम लड़ते रहे और वह हार कर भी कभी नहीं हारे।
संदर्भ
उषा चंद्रा, सन सनतावन के भूले-बिसरे शहीद, प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार
नोट: अमर सिंह की कोई तस्वीर उपलब्ध नहीं है, लेख में सांकेतिक तस्वीर का इस्तेमाल किया गया है
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