टंट्या भील, जिनको पकड़ने के लिए आये थे इंग्लैंड से विशेष दस्ते
भारतीय इतिहास में प्रथम स्वाधीनता संग्राम के नायक टंट्या भील की जांबाजी का अमिट अध्याय है। उन्होंने भारत की माटी को अंग्रेजों से मुक्त कराने में अपना सर्वश्रेष्ठ बलिदान दिया। अंग्रेजी सत्ता को ध्वस्त करने वाली जिद का नाम था टंट्या भील। टंट्या भील ने अंग्रेजी सत्ता को कभी स्वीकार नहीं किया। उनकी क्रूरता भरी हुकूमत ने ही टंट्या के मन में संग्राम के बीज बोये।
कौन थे टंट्या भील, जिनको भारत का रॉबिनहुड भी कहते है ?
भारतीय स्वाधीनता संग्राम में टंट्या भील का योगदान आम जनमानस व इतिहास के पन्नों में अमर है। अंग्रेजों ने उनपर राजद्रोह का मुकदमा चलाकर 4दिसंबर 1889 को फांसी पर लटका दिया था। जब अंग्रेज उनको बंदी बनाकर जबलपुर अदालत में पेश करने ले जा रहे थे, उस समय उनकी एक झलक पाने को कायल लोगों का जनसमूह सड़कों पर उमड़ गया था।
टंट्या भील की लोकप्रियता का अंदाजा इस दृश्य से लगाया जा सकता है। अंग्रेजों की आंखों में वह कांटों की तरह चुभते थे। टंट्या की वीरता व साहस से तात्या टोपे बहुत प्रभावित थे।
मध्य प्रदेश में निमाड़ के जंगलों में जन्में टंट्या को गुरिल्ला युद्ध में महारत हासिल था। गरिल्ला युद्ध उन्हें क्रांतिकारी तात्या टोपे से सिखाया था। वहीं, उन्होंने इसके अलावा अपने पिता से लाठी, तीर-कमान चलाने का प्रशिक्षण ले रखा था।
उनके पिता का नाम भाडु सिंह था। पिता ने युवावस्था में ही उनका विवाह कागज बाई से कर दिया। पिता की मृत्यु के बाद टंट्या पर पूरी जिम्मेदारी आ गई थी। मां की मृत्यु उनके बचपन में ही हो गई थी।
अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था से निराशा थे टंट्या भील
टंट्या चार सालों से अपनी जमीन का लगान जमा नहीं कर पाये थे, जिसके कारण मालगुजार ने उन्हें बेदखल कर दिया था। इस मामले को लेकर वह अपने पिता के मित्र शिवा पाटिल के पास गये। जमीन को शिवा व भाऊ सिंह दोनों मिलकर खरीदा था लेकिन शिवा ने जमीन पर अधिकार देने से साफ इंकार कर दिया।
चारों तरफ से निराशाओं से घिरे टंट्या को अंग्रेजी न्यायालय से आस जगी। उन्होंने अपनी बैलगाड़ी व घर बेचकर नकदी जुटाया और शिवा के विरुद्ध मुकदमा लिखवाई, लेकिन अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था से भी उन्हें निराशा-हताशा हाथ लगी। झूठे साक्ष्यों के आधार पर शिवा विजयी हुआ।
न्याय पाने के लिए परेशान टंट्या के पास संग्राम के अलावा कोई अन्य मार्ग नहीं बचा था। एक दिन वह खेत पर गए और शिवा के सभी आदमियों पर हमला बोल दिया और अपनी भूमि को उनके कब्जे से मुक्त कराया। उनके जीवन में न्याय के लिए हथियार उठाने की यह पहली घटना थी।
घटना के बाद टंट्या को अंग्रेज पुलिस पकड़ कर ले गई और एक साल की कठोर कारावास की सजा मिली। जेल में कैदियों पर उन्होंने अंग्रेजों का अत्याचार देखा तो उनके भीतर जल रही आग और धधकी। सजा काटने के बाद कारावास से निकलकर मजदूरी कर जीवन यापन करने लगे।
परंतु, अपने समुदाय के खिलाफ कई अमानवीय घटनाओं ने उन्हें हथियार उठाने पर विवश कर दिया। अंग्रेजों के विरुद्ध उन्होंने आदिवासियों, पीड़ितों को एकजुट किया और बिगुल फूंक दिया। टंट्या आदिवासियों व पीड़ितों का मसीहा बनकर उभरे। मालगुजारी, साहूकारों के विरुद्ध छिड़ चुके टंट्या के आंदोलन की लपटें अंग्रेजी सत्ता को भी झूलसाने को आतुर होने लगी थी, लेकिन उन्हें षड्यंत्रपूर्वक गिरफ्तार कर 20 नवबंर 1878 को खंडवा जेल में डाल दिया। 24 नवम्बर 1878 की रात में दीवार लांघकर फरार हो गये।
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पीड़तों की सहायता करने वाले टंट्या मामा
टंट्या भील गांव-गांव घूमते थे। पीड़तों को खोजते थे और उनकी सहायता करने की कोशिश करते थे। ऐसा करते-करते वह टंट्या मामा के रूप में लोकप्रिय हुए।
टंट्या की बहादुरी का अंदाज इस बात से भी लगाई जा सकती है कि उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेज सरकार ने विशेष दस्ता टंट्या पुलिस गठित की गई थी। इंग्लैंड से विशेष अवसर बुलाया गया था। 1880 में टंट्या ने अंग्रेजों के 24 ठिकानों पर हमला बोला। ठिकानों से प्राप्त धनों को गरीबों में बांट दिया।
उसी समय अंग्रेज सरकार की रेलगाड़ी से ले जाया जा रहा अनाज लूटकर अकाल पीड़ितों में बंटवाया। उन्हें गिरफ्तार करने के लिए अंग्रेजों ने पोस्टर चिपकवाए। अंग्रेजी पुलिस ने चारों तरफ से घेराबंदी की। पुलिस ने आंदोलन को खत्म करने के लिए उनके सहयोगी बिजानिया को पकड़कर फांसी दे दी, जिससे उनकी ताकट घट गयी।
मुसीबत की घड़ी में टंट्या ने बनैर के गणपत सिंह से संपर्क किया। गणपत उनकी मुंहबोली बहन का पति था। 11 अगस्त 1889 को रक्षाबंधन के दिन गणपत ने अपनी पत्नी से राखी बंधवाने के लिए उनको बुलाया। गणपत अंग्रेजों के षड्यंत्र का हिस्सा था। उनके घर में अंग्रेज पुलिस पहले से ही छिपी हुई थी। निहत्थे टंट्या के आते ही पुलिस ने दबोच लिया।
उन्हें ब्रिटिश रेसीडेन्सी क्षेत्र में स्थित सेन्ट्रल इंडिया एजेन्सी जेल में रखा गया। इसके बाद उन्हें खंडवा से जबलपुर भेजा गया। यही उनको फांसी की सजा हुई। उनके फांसी के सजा का कोई प्रमाण नहीं मिलता।
जनश्रुति के अनुसार, खंडवा रेलमार्ग पर काला पानी रेलवे स्टेशन के पास उनका गोली लगा शव पड़ा मिला था। यही वीरपुरुष की समाधि बनी हुई है। अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 की प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में विभिन्न क्षेत्रों में जनजाति वीरों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
अंग्रेजों के आगमन से आदिवासियों को अपनी संस्कृति पर खतरा महसूस हो गया था। पेट भरने के साथ ही अपने जंगल को बचाए रखने के लिए तो उन्होंने संघर्ष किया। पूर्वाग्रह से ग्रसित इतिहासकारों ने टंट्या को डाकू लिखा व पढ़ा है लेकिन वह भारतीय अस्मिता को अंग्रेजों से बचाने में रत प्रखर स्वतंत्रता सेनानी थे। उनका एक मात्र संकल्प था- भारत से विदेशी सत्ता का पांव उखाड़ना।
संदर्भ
Subhash Chandra Kushwaha, Tantya Bheel / टंट्या भील : The Great Indian Moonlighter, Hind Yugm
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में