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जब गांधीजी से पहली बार मिले राजेन्द्र बाबू

1918 में लखनऊ  कांग्रेस अधिवेशन बड़े समारोह के साथ हुई थी। 1907 में जब कांग्रेस में दो दल हो गए और गरम पार्टी कांग्रेस से अलग हो गई, तब से कांग्रेस की लोकप्रियता कम हो गई थी। उसके सालाना जलसों में भी कम लोग आया करते थे, यहाँ तक कि  1912 में जब पटना में कांग्रेस हुई, प्रतिनिधियों की संख्या बहुत कम थी।

देश हितैषियों की कोशिश थी कि दोनों दल मिला दिए जाएँ, जिससे कांग्रेस में फिर से जान आ जाए । यह प्रयत्न चलता रहा, पर यह सफल हुआ 1918 की कांग्रेस में ही। इसमें सभी विचारों के लोग उपस्थित थे। एक तरफ लोकमान्य तिलक दल-बल के साथ आए थे, दूसरी ओर नरम दल के प्रायः सभी नेता उपस्थित थे। मिसेज बेसेंट भी आई थीं।

महात्मा गांधी भी इस कांग्रेस अधिवेशन में आए थे। वह 1915 में ही दक्षिण अफ्रीका से लौटकर सारे देश में भ्रमण करते रहे, पर  कांग्रेस में वह किसी प्रस्ताव पर नहीं बोले ।

 

गांधीजी के आदर्शों ने राजेंद्र बाबू को देश की आजादी का सिपाही बना दिया

 

गांधीजी का इरादा था कि वह चंपारण में जाकर वहाँ के रैयतों से मिलें और उनका दुःख उन्हीं के मुँह से सुनें, पर वहाँ की ग्रामीण बोली वह समझ नहीं सकते थे। इसलिए वह चाहते थे कि कोई दुभाषिया का काम करने के लिए उनके साथ जाए। उनका विचार था कि दो-चार दिनों में सब बातें मालूम हो जाएँगी। राजकुमार शुक्ल ने भी ऐसा ही कहा था। इसलिए वह दो-चार दिनों के लिए ही तैयार होकर आए थे। बाबू ब्रजकिशोर को ठीक उसी वक्त कलकत्ता में कुछ काम था। वह खुद गांधीजी के साथ न जा सके, पर उन्होंने दो मित्रों को गांधीजी के साथ कर दिया, जो वकील थे। उन्होंने यह भी सोच लिया कि कलकत्ता से लौटने पर वह खुद चंपारण जाएँगे और जरूरत होगी तो मुझे भी साथ ले जाएँगे।

 

चंपारण जिले का सदर शहर मोतिहारी है। गांधीजी वहाँ पहुँचे। पहुँचने के बाद उन्होंने देहात में जाने का इरादा कर लिया। एक गाँव से एक प्रतिष्ठित रैयत आए, जिनका घर दो-चार ही दिन पहले नीलवर की ओर से लूट लिया गया था। उस लूट- खसोट के निशान अभी तक मौजूद थे। उन्होंने आकर सारा किस्सा कहा गांधीजी वहीं जाना चाहते थे।

 

रास्ते में ही कलक्टर का हुक्म पहुँचा कि आप जिला छोड़कर चले जाइए। गांधीजी ने जिला छोड़ने से इनकार कर दिया और हुक्म उदूली के मुकदमे का इंतजार करने लगे। उसी दिन यह भी मालूम हो गया कि मुकदमा चलेगा। मैं उसी दिन पुरी से पटना लौटा था। कचहरी में मेरे पास  सारी बातें उन्होंने तार द्वारा लिख भेजीं । यह पहला ही अवसर था, जब गांधीजी से मेरा किसी प्रकार का संपर्क हुआ।

मैंने कलकत्ता तार देकर बाबू ब्रजकिशोर को बुला लिया। दूसरे दिन सवेरे की गाड़ी से मिस्टर मजहरुल हक और मिस्टर पोलक -जो उस समय हिंदुस्तान में ही थे।   गांधीजी का तार पाकर पटना पहुँच गए थे। बाबू ब्रजकिशोर, अनुग्रह नारायण और शंभू शरण के साथ में मोतिहारी के लिए रवाना हो गया। हम लोग दिन में तीन बजे के करीब, वहाँ पहुँचे। उस समय तक मामला अदालत में पेश हो चुका था, बल्कि सुनवाई के बाद हुक्म के लिए तीन-चार दिनों के लिए मुल्तवी कर दिया गया था।

 

बाबू गोरख प्रसाद के मकान पर गांधीजी ठहरे थे। हम लोग जब वहाँ पहुँचे तो गांधीजी एक कुर्ता पहने हुए बैठे थे। हम लोगों से उनका परिचय पहले से नहीं था। जब परिचय कराया गया, तो मुझे हँसते हुए उन्होंने कहा, “आप आ गए? आपके घर पर तो मैं गया था।”

 


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जब राजेन्द्र बाबू के नौकर ने नहीं करने दिया था गांधीजी को घर में प्रवेश

गांधीजी ने राजेन्द्र बाबू को बताया कि  हावड़ा-दिल्ली ट्रेन से उतरे तो वह इस बात को लेकर परेशान थे कि वह कहां जाएंगे क्योंकि उनकी पटना की यह पहली यात्रा थी और यहाँ  किसी को जानते भी नहीं थे। कोई रास्ता न दिखाई दिया तो शुक्ला ने उनको एक प्रसिद्ध ‘वकील साहब (एडवोकेट) राजेन्द्र बाबू के पास ले जाने की पेशकश की। उन्होंने एक तांगा किराए पर लिया जिसने एक बड़े मकान के प्रवेश द्वार पर उनको उतार दिया। राजेन्द्र बाबू घर पर नहीं थे। उनके नौकर ने बताया कि साहब बाहर गए हुए हैं। राजेन्द्र प्रसाद के मुंशी ने  बताया कि वकील साहब ‘पुरी गए हुए हैं।

 

गांधीजी ने बताया, ‘‘मैं वहाँ बाहर बरामदे में बैठ गया। मगर नौकर ने मुझे कुएं से पानी लाने के लिए अनुमति नहीं दी। न ही घर में जाने दिया। शुक्ला ने जोर दिया कि उन्हें टॉयलेट जाने की अनुमति दी जाए मगर उनको कहा गया कि वह बाहर के टॉयलेट का इस्तेमाल करें। इससे मुझे गुस्सा नहीं आया क्योंकि नौकर अपना धर्म निभा रहा था। वह अपने मास्टर के प्रति अपनी ड्यूटी दे रहा था। शुक्ला इस बात को लेकर काफी परेशान हुए कि गांधी के साथ कैसा व्यवहार किया जा रहा है। मगर उसके पास और कोई विकल्प नहीं था।

 

गांधीजी को अचानक लंदन में मिले एक क्लासमेट की याद आई जिसने बताया था कि वह पटना में रहता है। उसका नाम  मजहरुल हक   था जो मुंबई में 1915 में उनसे मिला था, तब वह मुस्लिम लीग का प्रधान था। हक ने उनको निमंत्रण दिया था कि जब भी वह पटना आएं तो उसके घर जरूर आएं।

 

मजहरुल हक को याद करते हुए गांधीजी ने एक कागज पर कुछ पंक्तियां लिखीं और शुक्ला से कहा कि इसे हक को दे देना। जैसे ही हक को  कागज मिला तो उन्होंने अपने ड्राइवर को कार चलाने को कहा और वह राजेन्द्र प्रसाद के घर पहुंच गए और अपने मित्र को अपने घर ले आए।

 

मैने कुछ किस्सा तो सुन लिया था, इसलिए कुछ शर्मिंदा भी हुआ। उन्होंने जो कुछ कचहरी में हुआ था, सब कह सुनाया।

 


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जब गांधीजी ने पूछा  मेरे कैद हो जाने के बाद आप लोग क्या करेंगे

 

गांधीजी ने सब बातें कहकर हमसे कहा कि अपने साथी बाबू धरनीधर और बाबू रामनवमी से और सब बातें सुन लीजिए। इतना कह, वह मि. पोलक से बातें करने लगे।  मालूम हुआ कि गांधीजी प्रायः रात भर जागकर वायसराय तथा नेताओं के पास भेजने के लिए पत्र लिखते रहे हैं और कचहरी के लिए अपना बयान भी उन्होंने रात में ही तैयार कर लिया था। उन दोनों से, जो दुभाषिए का काम करने के लिए ही आए थे,

जब गांधीजी ने पूछा था कि मेरे कैद हो जाने के बाद आप लोग क्या करेंगे। वे लोग प्रश्न की गूढ़ता को शायद पूरा समझ न सके थे। बाबू धरनीधर ने मजाक में कह दिया था कि आपके (गांधीजी के) कैद हो जाने के बाद दुभाषिए का काम नहीं रह जाएगा- हम लोग अपने-अपने घर चले जाएँगे।

यह सुनकर गांधीजी ने प्रश्न किया और इस काम को ऐसे ही छोड़ देंगे ?

इस पर उन लोगों को कुछ सोचना पड़ा। बाबू धरनीधर ने, जो बड़े थे, उत्तर दिया कि वह जाँच का काम जारी रखेंगे और जब उन पर भी सरकार की ओर से नोटिस हो जाएगा, तो वह चूँकि जेल जाने के लिए तैयार नहीं हैं, खुद तो चले जाएँगे और दूसरे वकील को भेजेंगे, जो जाँच का काम करेंगे और अगर उन पर भी नोटिस हुआ, तो वह भी चले जाएँगे और उनके पीछे तीसरी टोली आएगी – इस प्रकार काम जारी रखा जाएगा।

यह सुनकर गांधीजी को कुछ संतोष हुआ, पर पूरा नहीं उन लोगों को भी संतोष न हुआ। वे लोग रात को सोचते रहे कि यह आदमी न मालूम कहाँ से आकर यहाँ के रैयतों के कष्ट दूर करने के लिए जेल जा रहा है और हम लोग जो यहाँ के रहनेवाले होकर रैयतों की मदद का दम भरा करते हैं, इस तरह घर चले जाएँ, यह अच्छा नहीं मालूम होता ।

 

जब अपनी इच्छा से गांधीजी के फाँस में फँस गए, राजेन्द्र बाबू

 

गांधीजी, जो दक्षिण अफ्रीका में इतना काम कर आया है, इन अनजान किसानों की खातिर सब कष्ट सहने के लिए तैयार है। ऐसी दशा में भी हम घर चले जाएँ, यह कैसे हो सकता है ? इधर बाल-बच्चों की भी फिक्र थी। रात भर सोच-विचार करने के बाद, दूसरे दिन सवेरे जब गांधीजी के साथ ये लोग कचहरी जा रहे थे, इनकी भावनाएँ उमड़ पड़ीं। इन्होंने साफ-साफ कह दिया, आपके जेल जाने के बाद अगर जरूरत पड़ी तो हम लोग भी जेल जाएँगे ।

यह सुनते ही गांधीजी का चेहरा खिल उठा। वह बहुत ही खुश होकर बोल उठे – अब मामला फतह हो जाएगा।

 

 अब तो हमारे सामने भी जेल जाने का प्रश्न आ गया। हम लोगों ने तय कर लिया कि जरूरत पड़ने पर हम भी जेल जाएँगे। यह निश्चय गांधीजी को हमने सुना दिया। उन्होंने कागज-कलम लेकर सबके नाम लिख लिए। हम लोगों को कई टोलियों में उन्होंने बाँट दिया। यह भी तय कर दिया कि ये टोलियाँ किस क्रम से जेल जाएँगी। पहली टोली के सरदार मजहरूल हक साहब थे, दूसरी के बाबू ब्रजकिशोर एक टोली का सरदार मैं भी बनाया गया। ये सारी बातें वहाँ पहुँचने के तीन-चार घंटों के अंदर ही तय हो गईं।

 

मुकदमे में तीन या चार दिनों के बाद हुक्म सुनाया जाने को था। उस दिन गांधीजी जेल जाने वाले थे। मजहरूल हक साहब के हाथ में कोई मुकदमा गोरखपुर में था। वह चले गए वहाँ, ताकि मामला खत्म करके उस दिन के पहले ही वापस आकर नेतृत्व करेंगे। बाबू ब्रजकिशोर भी अपने घर का प्रबंध करने के लिए दरभंगा चले गए। हम लोग मोतिहारी में ही ठहरकर किसानों के बयान सुनने और लिखने लगे। विचार था कि जब ये दोनों सज्जन वापस आ जाएँगे, तब हम लोग भी एक-एक करके घर जाएँगे और घर के लोगों से मिलजुल कर जेल यात्रा की तैयारी करके लौट आएँगे ।

चंपारण की जाँच शुरू हो गई हजारों की तादाद में किसानों ने बयान लिखवाए। शायद 20-25 हजार बयान हम लोगों ने लिखे होंगे। तारीख के पहले ही मजिस्ट्रेट ने लिख भेजा कि सरकार के हुक्म से गांधीजी पर से मुकदमा उठा लिया गया और उनको जिले में जाँच करने की इजाजत दे दी गई।

जाँच से पता चला कि जो कुछ जुल्म हमने सुना था, वहाँ की परिस्थिति उससे कहीं अधिक बुरी थी पहली मुलाकात में ही हम लोग अपनी इच्छा से गांधीजी के फाँस में फँस गए। ज्यों-ज्यों दिन बीतते गए, गांधीजी के साथ केवल प्रेम ही नहीं बढ़ा, उनकी कार्यपद्धति पर विश्वास भी बढ़ता गया। चंपारण का कांड समाप्त होते-होते हम सबके सब उनके अनन्य भक्त और उनकी कार्यप्रणाली के पक्के हामी बन चुके थे।

 


संदर्भ

डॉ. राजेन्द्र प्रसाद,  ‘आत्मकथा’, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली, 2017

Editor, The Credible History

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