डलहौजी के ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’ का विरोध करने वाले, शेख भिखारी साहब
शेख भिखारी साहब, वह व्यक्ति जिन्होंने जनरल डलहौजी के डाक्ट्रिन ऑफ़ लैप्स का विरोध किया, जिसका एकमात्र उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार करना था। वह स्वतंत्रता-प्रेमी देशी शासकों के समर्थन में खड़ा हुआ और विदेशी शासकों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
8 जनवरी 1858 को आलमें बदर को चुट्टूपहाड़ी के बरगद के पेड़ से लटका कर फांसी दी गई। वह पेड़ आज भी सलामत है। यह पेड़ आज भी हमें उनकी याद दिलाती है और हर साल कुछ सामाजिक-राजनीतिक संगठनों के लोग यहां पहुंच कर उनको याद करते है, श्रद्धांजली देते है और उनकी शहादत से प्रेरणा लेते है।
क्या था, जनरल डलहौजी का ‘डॉक्ट्रिन ऑफ लैप्स’
लॉर्ड डलहौजी का कार्यकाल 1848 से 1856 था और इसी दौरान उन्होंने कई ऐसे कार्य किए जिसने उन्हें भारत के इतिहास में अमर कर दिया। लेकिन डलहौजी ने कई ऐसे भी कार्य ने किए जिनकी वजह से उनकी नकारात्मक छवि जनता के बीच बनी।
डलहौजी भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को बढाना चाहते थे। उन्होंने प्रशासनिक सुधार से लेकर, सेना सुधार आदि कार्य किए। डलहौजी को भारत में रेलवे का जनक भी कहा जाता है। इसके साथ ही देश में पोस्टल डिपार्टमेंट को स्थापित करने का क्रेडिट भी लॉर्ड डलहौजी को ही जाता है।
लॉर्ड डलहौजी ने भ्रूण हत्या रोकने के लिए कई कानून बनाएं और मिट्टी की उर्वरता को बढ़ाने के लिए दिए जाने वाले इंसानों के बलिदान को भी रोकने का कार्य किया। उन्होंने देखा कि भारत में शिक्षा में भी बदलाव करने की आवश्यकता है इसी कारण अंग्रेजी सरकार ने प्राइवेट संस्थानों को आर्थिक सहायता देकर प्रोत्साहित किया। इसके साथ ही कलकत्ता,मद्रास और बॉम्बे में यूनिवर्सिटी की स्थापना की गयी और साथ ही निम्न वर्ग के लिए क्षेत्रीय भाषा में स्कूल खोली गयी। डलहौजी को भारत में फादर ऑफ प्रोफेशनल और टेक्निकल एजुकेशन भी कहा जाता है क्योंकि उन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज बनाने में विशेष योगदान दिया था।
1857 की क्रांति के पीछे हड़प नीति यानी डॉक्ट्रिन ऑफ़ लेप्स की नीति भी शामिल थी। इस नीति के अनुसार यदि किसी राज्य में जेनेटिक पुरुष उतराधिकारी नहीं है और उस राज्य के राजा की मृत्यु हो जाती है तो इस स्थिति में राज्य में अंग्रेजों का शासन शुरू हो जाएगा। डलहौजी ने इस नीति से अवध,कानपुर, नागपुर, झांसी जैसे कई राज्यों पर अपना कब्जा कर लिया। डलहौजी की नीति के कारण देश भर में विरोध हुआ और उत्तर भारत के विभिन्न प्रान्तों में अलग-अलग समय पर 1857 की क्रांति ने जन्म लिया था।
कौन थे शेख भिखारी साहब
शेख भिखारी का जन्म 2 अक्टूबर 1819 को तखनकर ओरमांझी प्रकंड के कुछे पंचायत के खुदिया लोटवा गांव में एक बुनकर परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बुंलद था जो बहुत बहादुर इंसान थे। बचपन में शेख भिखारी मोटे कपड़े तैयार कर बाजार में बेचते थे। पिता-पुत्र में दोस्ती जैसा रिश्ता था। शेख बिहारी ने अपने पिता से खेती-गृहस्थी से लेकर जमींदारी संभालने तक की कला सीखी। यहां तक कि पिता ने उनको सैन्य संचालन में भी पारंगत बनाया।
उस समय मांझी खटंगा में राजा टिकैत सिंह का राजपाट था। उन तक शेख भिखारी के बहादुरी के किस्से पहुंचे, उन्होंने शेख भिखारी को बुलावा भेजा।
राजा ने कहा- शेख, हम तुम्हारी बुद्धिमानी और वीरता की बहुत कहानी चुके हैं। हम बहुत खुश हैं। हम चाहते है कि तुम मेरे दीवान बन जाओ। क्या हम तुमको अभी नियुक्त कर सकते हैं?
शेख ने कहा- जी हजूर, आपकी मेहरबानी।
उस समय राजा टिकैत सिंह् के छोटे भाई घासी सिंह भी वहां मौजूद थे, जो साये के तरह अपने बड़े भाई का साथ निभाते थे। टिकैत सिंह अंग्रेजों के अत्याचार के खिलाफ थे। उन्होंने अघोषित तौर पर जंग छेड़ रखी थी। घासी सिंह, शेख भिखारी के दीवान बनाने के फैसले से बहुत खुश थे। वह अपने साथ एक बहादुर युवा का साथ पाकर अपने आप को काफी बुलंद महसूस कर रहे थे।
एक दिन अंग्रेज शासकों के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद करनेवाले बड़कागढ़ के राजा ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव टिकैत उमरांव सिंह के घर पहुंचे। वहीं शेख भिखारी की ठाकुर साहब से पहली बार मुलाकात हुई। ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव से शुरु हो चुके स्वाधीनता संग्राम के संबंध में गंभीर मंत्रणा हुई।
टिकैत ने कहा- ठाकुर साहब, अब संग्राम के सिवा कोई रास्ता नहीं है। हम अंग्रेजों को सबक सिखाएंगे।
शेख भिखारी ने कहा- माफ कीजिएगा, मुझे लगता है कि अंग्रेज बहुत ताकतवर हैं। क्या हम उनसे लड़ पाएंगे?
टिकैट ने कहा- लड़ाई बुद्धि से होती है, ताकत से नहीं। जो बुद्धि का प्रयोग करते हुए लड़ता है जीत उसकी होती है, जो देह से लड़ता है, वह मारा जाता है।
ठाकुर साहब ने कहा- शेख भिखारी, क्या तुम्हें पता है कि अंग्रेज शासक हम लोगों को कितना अत्याचार कर रहे हैं।
शेख भिखारी ने कहा- पता तो सब है ठाकुर साहब, मगर दिक्कत यह है कि हम अकेले क्या कर सकते हैं?
ठाकुर साहब ने कहा- हम अकेले नहीं है शेख, हमारे साथ पूरी जनता है, जिसे अंग्रेजों ने तबाह कर रखा है। तुम अगर सबकुछ समझते हो शामिल हो जाओं हमारी मुक्तिवाहिनी में। इसमें पांडेय गणपत राय, जयमंगल पांडेय, नादिर अली खान, बृजभूषण सिंह, श्यामा सिंह, शिव सिंह, रामलाल सिंह, बिरजू राम जैसे बड़े-बड़े लोग शामिल हैं। यहां तक कि तुम्हारे राजा टिकैत उमरांव सिंह भी।
शेख भिखारी उत्साहित हो गए। उन्होंने पूरी गर्मजोशी के साथ कहा- हम तैयार हैं ठाकुर साहब।
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शेख भिखारी ने रण-कौशल से विद्रोही सेना को मजबूत किया
38 साल के शेख भिखारी स्वाधीनता संग्राम में कूद पड़े और उसने रण-कौशल से विद्रोही सेना को मजबूत कर दिया। तोप, गोले और हथियारों का इंतजाम किया गया। 1 अगस्त 1857 को रांची जिले के डोरंडा की सेना ने ही अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह कर दिया, जिसका नेतृत्व जमादार माधो सिंह और सूबेदार नादिर अली खान कर रहे थे। इसका केंद्र चुटूपालू घाटी और ओरमांझी बन गया। शेख भिखारी इस संग्राम में शामिल थे। रणकुशल एवं दूरदर्शी शेख भिखारी ने सूबेदार नादिर अली, जमादार माधो सिंह को हर संभव सहायता उपलब्ध कराई।
2 अगस्त 1857 को चुटूपालू की सेना ने रांची नगर पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज अधिकारियों में अफरा-तफरी मच गई। उस समय रांची में छोटानागपुर का आयुक्त इटी डाल्टनम जिला अधिकारी डेविस, न्यायाधीश ओकस और पलामू अनुमंडल के अधिकारी बच मौजूद थे। उन्हें अपनी जान पर खतरा महसूस किया और वह सभी पिठौरिया के रास्ते से बगोदरा भा गए। तब तक चाईबासा और पुरुलिया में क्रांति की आग धधकने की खबर उन्हें मिल गई।
हजारीबाग छावनी के सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ भीषण विद्रोह छेड़ दिया। चाईबाआ और पुरूलिया में क्रांति को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने सिख सैनिकों से सहायता ली। हजारीबाद में 2 सितंबर से 4 सितंबर 1857 तक सिख सैनिकं ने पड़ाव डाला। इस बीच शेख भिखारी हजारीबाग पहुंच गए। उन्होंने ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव को पत्र लिखकर सिख सेना के मेजर विष्णु सिंह को अपनी राजनीतिक सूझबूझ के साथ रखा।
तब विद्रोहियों को हथियार डालने पर महबूर करने के लिए रांची से दो कंपनी सेना, तीस घुड़सवार और दो तोपों के साथ लेफ्टिनेंट ग्राहम निकल पड़े। ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना तेजी से चुटुपालू घाटी पार कर हजारीबाग की ओर बढ़ रही थी, लेकिन रास्ते में ही ग्राहम की सेना ने भी विद्रोह कर दिया।
विद्रोही सैनिकों का दल जमादार माधोंसिंह और तोपची नादिर अली के नेतृत्व में वापस रांची छावनी की ओर मुड़ गई। अंग्रेजों को टक्कर देने लिए डोरेंडा छावनी(रांची) में गोली, बारूद, बंदूकें, तोप और अन्य युद्धक हथियार लूटना जरूरी था। विद्रोही जल्द से जल्द बीच में पड़ने वाली घाटी पार कर रांची पहुंचना चाहते थे। टिकैट उमरांव सिंह रामगढ़ और रांची के बीच पड़नेवाली घाटी के घटवाल थे।
टिकैत जानते थे कि रांची पहुंचने का सबसे सरल और सीधा रास्ता उनके ही क्षेत्र से होकर गुजरता है। दूसरा रास्ता खतरनाक घाटिओं और दुर्गम पहाड़ियों से होकर जाता था। खूंखार जंगली जानवरों का खतरा भी था। उमरांव सिंह और विद्रोहियों ने योजना बनाई कि कंपनी सेना को घाटी से भटका दिया जाए। सीधे रास्ते को अवरुद्ध कर दिया जाए।
उमरांव सिंह अपने भाई घासी सिंह और दीवान शेख भिखारी के साथ चुटुपालू घाटी मार्ग में जगह-जगह गुड्डे खुदवाने लगे और सड़क को बड़े-बड़े पत्थर रखकर अवरुद्ध करने लगे। इससे न तो दुश्मन सेना रांची पहुंच पा रही थी और न ही आला अंग्रेज अधिकारियों का कोई आदेश आयुक्त डाल्टन को मिल पा रहा था।
इस बीच हजारीबाग का राजा शंभुनाथ सिंह कंपनी सरकार से जा मिला। उसकी मदद से घाटी का अवरुद्ध मार्ग जल्द ही बहाल कर दिया गया, लेकिन तब तक क्रांतिकारियों के दल ने रांची के डोरंडा छावनी पर कब्जा जमा लिया था। युद्धक हथियार लूट लिये और कंपनी सरकार को पंगु बना दिया। शेख भिखारी का महत्वपूर्ण कदम चुटूपालू घाटी की नाकेबंदी था, जिसने टिकैत उमरांव सिंह और शेख भिखारी की ओर अंग्रेजों का ध्यान खींच लिया।
बाबू कुंवर सिंह के साथ लड़े थे, शेख भिखारी
10 अगस्त 1857 को जगदीशपुर के बाबू कुंवर सिंह का पत्र डोरंडा पहुंचा, जिसमें विद्रोहियों से मुक्ति संग्राम में भाग लेने की अपील की गई थी। 11 सितंबर को क्रांतिकारियों ने निर्णय किया गया कि बाबू कुंवर सिंह की मित्र वाहिनी की सहायता जाए।
मुक्ति वाहिनी का क्रांतिकारी दस्ता डोरंडा से चल पड़ा और कुडू, चंदवा, बालूमाथ होता हुआ चतरा पहुंच गया। पहले डाल्टनगंज के मार्ग से रोहतास जाने की योजना थी, किंतु दुर्गम मार्ग होने के कारण मार्ग बदल दिया गया। चुटिया के जमीदार भोला सिंह, सलंगी बालूमाथ निवासी एवं बाबू कुंवर सिंह के भाई दयाल सिंह के दामाद जगन्नाथ शाही रास्ते में मुक्ति वाहिनी के साथ हो गए।
30 सितंबर 1857 को यात्रा फांसी हरी तालाब पहुंची। मंगल तालाब के पास पड़ाव डाला गया। दस्ते में उस समय तीन हजार क्रांतिकारी थे। दूसरी ओर ब्रिटिश सेना का 53 वां पैदल दस्ता 150 सैनिकों के साथ, 70वीं बंगाल का पैदल दस्ता 20 सैनिकों के साथ और रैटरी सिख के दस्ता 150 सैनिक उनपर हमले के लिए चतरा पहुंच गए। 2 अक्टूबर को विद्रोहियों और ब्रिटिश सेना के बीच भीषण युद्ध हुआ, जिसमें विद्रोहियों के दल में शेख भिखारी सहित नायक सूबेदार जयमंगल पांडेय और सूबेदार नादिर अली खान ने भी अपने शौर्य का परिचय दिया।
एक घंटे चले संघर्ष में अंग्रेजों ने विद्रोहियों पर काबू पा लिया। 150 देशी सैनिकों को 3 अक्टूबर को फांसी दे दी गई। 77 स्वतंत्रता सेनानियों को फांसी देने के बाद गड्ढे में दफन कर दिया गया। जय मंगल पांडे एवं नादिर अली खान, दोनों सूबेदारों को 4अक्टूबर 1857 को फांसी दी गई।
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शेख भिखारी ने चुटूपालू घाटी में अपना अभियान जारी रखा
ठाकुर विश्वनाथ शाहदेव, पांडेय गणपत राय एंव जमीदार माधव सिंह सहित शेख भिखारी वहां से बच निकलते में सफल हो गए। शेख भिखारी चुटूपालू घाटी पहुंच गए और अपना अभियान जारी रखा। संथाल विद्रोह को कुचलने के बाद मद्रास फौज के कप्तान मेजर मैकडोनाल्ड को बंगाल के गवर्नर ने चुटूपालू घाटी की तरफ बढ़ने और शेख भिखारी की फौज का मुकाबला करने का आदेश दिया।
अंग्रेज़ों की फ़ौज जनरल मैकडोना के नेतृत्व में रामगढ़ पहुंच गई और चुटूपालू के पहाड़ के रास्ते से रांची के पलटवार चढ़ने की कोशिश करने लगी। उनको रोकने के लिए शेख भिखारी, टिकैत उमराव सिंह अपनी फौज लेकर चुटूपालू पहाड़ी पहुंच गये और अंग्रेज़ों का रास्ता रोक दिया. शेख भिखारी ने चुटूपालू की घाटी पार करने वाला पुल तोड़वा दिया और सड़क के पेड़ों को काटकर रास्ता जाम करवा दिया।
शेख़ भिखारी की फ़ौज ने अंग्रेज़ों पर गोलियों की बौछार कर अंग्रेज़ों के छक्के छुड़ा दिये। यह लड़ाई कई दिनों तक चली। शेख़ भिखारी की फ़ौज के पास गोलियां खत्म होने लगी तो शेख़ भिखारी ने अपनी फ़ौज को पत्थर लुढ़काने का हुक्म दिया। इससे अंग्रेज़ फ़ौजी कुचलकर मरने लगे। य़ह देखकर जनरल मैकडोनाल्ड ने मुकदमा लोगों को मिलाकर चुहिया घाटी पहाड़ पर चढ़ने के लिए दूसरे रास्ते की जानकारी ली। फिर उसे खुफिया रास्ते से छुट्टी घाटी पहाड़ पर चढ़ गये।
इसकी खबर शेख़ भिखारी और उनकी फ़ौज को नहीं हो सकी। अंग्रेज़ों ने शेख भिखारी एवं टिकैत उमराव सिंह को 6 जनवरी 1858 को घेर कर गिरफ्तार कर लिया और 7 जनवरी 1858 को उसी जगह छुट्टी घाटी पर फौजी अदालत लगाकर मैकडोनाल्ड ने शेख़ भिखारी और उनके साथी टिकैत उमरांव को फांसी का फैसला सुनाया।
शेख भिखारी की मौत की खबर जनरल मैकडोनाल्ड ने अपने आला अफसरों को इस तरह दी कि क्रांतिकारियों के सबसे खतरनाक कमांडर दीवान शेख भिखारी को फांसी देने में हम कामयाब हो गये हैं। अब संथाल के इलाके में हमारी फौज को डरने की ज़रूरत नहीं है। इससे पता चलता है कि अंग्रेज शेख भिखारी से किस कदर डरे हुए थे।
संदर्भ
डॉ विनय कुमार पांडेय, झारखंड के वीर शहीद,Prabhat Prakashan
सैय्यद शाहनवाज़ अहमद क़ादरी, एवं कृष्ण कल्कि, लहू बोलता भी है, लोकबंधु राजनारायण के लोग, लखनऊ
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में