नौशेरा का शेर ब्रिगेडियर मोहम्मद उस्मान
भारत के बहादुर नौजवानों में ब्रिगेडियर उस्मान का स्थान बहुत ऊँचा है। नौशहरा के इस बहादुर विजयी का नाम आज़ाद हिन्दुस्तान की तारीख के आकाश में हमेशा चन्द्रमा की तरह चमकता रहेगा। कबायली और पाक फौज, श्रीनगर से होते हुए जम्मू तक पहुंचना चाहती थी और ‘हरि निवास पैलेस’ से लेकर माता वैष्णो देवी की गुफा तक कब्जाने की मंशा थी। लेकिन एक शख़्स उनके रास्ते में चट्टान की तरह खड़ा रहा- ब्रिगेडियर मुहम्मद उस्मान।
कौन थे मुहम्मद उस्मान
मुहम्मद उस्मान का जन्म उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले में बीबीपुर गाँव में हुआ था। उस्मान बचपन में हकलाते थे। एक बार उनके पिता उन्हें पुलिस के बड़े अधिकारी से मिलवाने ले गए। उस अंग्रेज अफसर ने उस्मान से कुछ पूछा तो उस्मान ने हकलाते हुए जवाब दिया। इसे संयोग ही कहा जाएगा कि वो अंग्रेज अफसर भी हकलाता थ। उसे लगा कि उस्मान उसकी नकल कर रहे हैं. वो अफसर काफी भड़क गया।
बनारस में हरिश्चन्द्र हाई स्कूल से उन्होंने इंटर पास किया और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से बी० ए० का इम्तहान दिया। अपनी पढ़ाई के ज़माने में ही उस्मान साहब को खेल कूद में भारी दिलचस्पी थी और वह यूनिवर्सिटी के स्पोर्ट चैंपियन थे। उसी ज़माने से वह राजनीति में भी दिलचस्पी रखते थे। वह इलाहाबाद यूनिवर्सिटी यूनियन के बहुत दिनों तक सेक्रेटरी भी रहे थे।
उस्मान ने जब तक भारतीय सेना में जाने का मन बनाया, तब तक ब्रिटिश आर्मी में भारतीयों की अफसर के तौर पर भर्ती शुरू हो गई थी। 1920 से ब्रिटिश सरकार ने रॉयल मिलिट्री एकेडमी, सैंडहर्स्ट में भारतीय नौजवानों के लिए रास्ते खोल दिए थे। 1932 में उस्मान ने सेना भर्ती में आवेदन किया और सैंडहर्स्ट के लिए चुन लिए गए। उस साल बैच कुल 45 कैटेड्स का था। भारत के 10 लड़कों को ब्रिटिश आर्मी में अफसर के तौर पर चुना गया था।
जिस साल उस्मान सैंडहर्स्ट गए, उसी साल ब्रिटिश आर्मी ने भारत में इंडियन मिलिट्री एकेडमी (IMA) का गठन किया था। इसी साल IMA के लिए सैम मानेकशॉ, स्मिथ दून और मोहम्मद मूसा को चुना गया था। आगे चलकर मानेकशॉ भारत, दून बर्मा और मूसा पाकिस्तान की सेना के सर्वोच्च पद पर तैनात हुए। कहते हैं अगर 1948 में उस्मान शहीद नहीं हुए होते तो वो भारत के सेनाध्यक्ष जरूर बनते।
मोहम्मद उस्मान सेना में मानेकशॉ से पूरे 4 दिन सीनियर थे। वीके सिंह ने अपनी किताब में बताई हैं-
सैंडहर्स्ट से पास हुए कैडेट्स को KAIOs यानी किंग्स कमीशंड ऑफिसर कहा जाता था और IMA से पास हुए कैटेड्स को ICOs यानी इंडियन कमीशन ऑफिसर कहा जाता था। उस्मान सेना में 1 फरवरी, 1934 को कमीशन्ड हुए। जबकि IMA में ट्रेनिंग के बाद IOCs का बैच एक फरवरी 1935 को। लेकिन सेना ने IOCs के बैच की सीनियरिटी एक साल पहले यानी 1934 से दिखाया। हुकूमत चाहती थी कि ICOs, KCIOs से जूनियर रहें। इसलिए IOCs के बैच को 4 फरवरी 1934 से कमीशन माना गया और इस तरह उस्मान मानेकशॉ से पूरे 4 दिन सीनियर हो गए।
मुहम्मद उस्मान में इंसानियत का जज़्बा
उस्मान साहब उस्मान बिलकुल मुख़्तलिफ़ माहौल में भी अपने उसूलों और आदर्शों से पीछे नहीं हटते थे। यही वजह थी कि फ़ौजी ज़िन्दगी अपनाने के बाद भी उनका दिल एक शायर के दिल की तरह चमकीला और दया, ममता से हमेशा भरा पूरा रहा । उसका मिजाज के इस पहलू पर रोशनी डालने के लिये सिर्फ़ दो मिसालें काफ़ी होंगी।
बात मद्रास सूबे के एक गाँव की है।
एक दिन अपनी फ़ौजी टुकड़ी के साथ उस्मान साहब एक गाँव से होकर गुज़रे । यकायक उन्होंने देखा कि एक औरत एक कुएँ की मेढ़ पर बैठी बिलख रही है। थोड़े से लोगों की एक भीड़ भी वहीं जमा थी, जिनमें से सभी चेहरों पर बेबसी और दुख की झलक थी। जीप रोककर उस्मान साहब ने वजह पूछी तो मालूम हुआ कि इस औरत का बच्चा कुएँ में गिर गया है। सुनते ही उस्मान साहब बिजली जैसी तेज़ी से एक रस्सी के सहारे कुएँ में उतर गए और उस औरत के बच्चे को निकालकर उसकी माँ के हवाले कर दिया। अपने बच्चे को फिर अपनी गोदी में पाकर माँ के चेहरे पर जो खुशी थी, उस्मान साहब के लिये उनकी मेहनत का वही सबसे बड़ा एवज़ था।
इसी तरह बात रानीखेत छावनी की है।
एक दिन शाम को उस्मान साहब खाने पर बैठे ही थे कि एक देहाती ने उनको रोते हुए बताया कि पास के गाँव में एक चीता कई आदमियों की जान ले चुका है। उस्मान साहब सब कुछ बर्दाश्त कर सकते थे पर इन्सान की आँखों में आँसू वह बर्दाश्त नहीं कर सकते थे। उन्होंने ख़ाना वैसे ही छोड़ दिया और जब तक चीते को न मार लाये दुबारा खाने पर न बैठे। रानीखेत का वह गाँव आज भी उनको बड़ी इजत के साथ याद करता है।
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फिरकापरस्ती के दुश्मन
जब देश के विभाजन के समय फौजी बंटवारे का समय आया तब उस्मान साहब ने अपने मुसलमान साथियों में इस बात का प्रचार किया कि वह हिंदुस्तानी फौज में ही रहने का फैसला करें। उस्मान साहब ने खुद जिन्ना का ऑफर ठुकरा कर हिंदुस्तान को चुना।
अपने साथियों में उस्मान साहब का कितना असर था, वह इससे साबित होता है कि करीब दाई सौ मुसलमान अफ़सरों ने, उस जमाने में, जब कि हर एक खाता-पीता मुसलमान, सिवा कुछ नेशनलिस्टों के, पहली गाड़ी से पाकिस्तान भाग जाने के फ़िराक में था, हिंदुस्तान की फौज में रहने के फार्म भर दिए।
हिंदुस्तानी सरकार ने भी उस्मान साहब के पहचाना और 1947 में पश्चिमी पंजाब में घिरे हुए हिंदू और सिखों को निकालने का काम ब्रिगेडियर उस्मान साहब को दिया। अपने इस काम को उस्मान साहब ने बखूबी अंजाम दिया। जिन इलाकों में उस्मान साहब रहे। खासतौर से मुल्तान, मुजफ्फरगढ़, डेरागाजी खां और भंग में, तब तक वहां एक हिंन्दू या सिक्ख का बाल भी बांका नहीं होने दिया। मुल्तान के पचास हजार हिंदु-सिक्खों को उन्होंने हिफाजत के साथ निकाला।
उनके इस काम को देख कर ही उनको गुरुदासपुर के के शरणार्थियों को निकालने का काम सौंपा गया था और वहां भी अमन कायम करने में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। इस वज़ह से उनका नाम हिंदुस्तान की फौजी दुनिया में रोशन हो गया।
इसके बाद उनको जम्मू मोर्चे का कमान्डर बनाकर कश्मीर भेजा गया। उस वक्त कश्मीर की हालत बेहद डंवा डोल थी। एक तरफ़ तो आज़द काश्मीर सरकार और पाकिस्तान सरकार इस बात का प्रचार कर रही थी कि हिंदुस्तानी फौज कश्मीर में घुस आई तो कश्मीर के एक मुसलमान को भी जिन्दा नहीं छोड़ेगी और दूसरी तरफ कश्मीर के कुछ सरफिरे हिन्दू जिनमें से कुछ तो पाकिस्तानी के साथ मिले हुए थे, जम्मू और उसके आसपास वहां की मुसलमान जनता के खिलाफ करवाई करके पाकिस्तान ने इस प्रचार को सच साबित कर रहे थे।
इसके अलावा हिंदुस्तान के हिंदू फिरकापरस्त संगठन भी कश्मीर के हमले को एक हिंदू रियासत पर एक मुस्लिम देश का हमला की शक्ल देना चाहते थे, जिसका नतीजा यह था कि कश्मीर की अस्सी फीसदी से ज्यादा जनता, जो मुसलमान है, पाकिस्तान और हमलावरों के साथ हमदर्दी रखने लगती। लेकिन ब्रिगेडियर उस्मान उस मोर्चे पर पहुंचते ही न तो पाकिस्तानी प्रचार चला और हिन्दू फिरकापरस्तों का मतलब पूरा हो सका।
अब यह लड़ाई कश्मीरी जनता की पाकिस्तान फासिस्ट शाही के खिलाऒ अपनी आजादी की लड़ाई बन गई जिसकी कमान एक नेकनाम बहादुर मुसलमान के हाथों में थी। ब्रिगेडियर उस्मान के पहुंचते पहुंचते जिस तरह नैशहरा पर कब्जा कर लिया, उसकी कहानी हिंदुस्तानी फौज के शानदार कारनामों के इतिहास् में हमेशा अमर रहेगी।
हमलावर कबाइली और पाकिस्तानी फौजों के दिल में तो उस्मान के नाम् की इस तरह की दहशत बैठ गई थी कि हर तीसरे दिन उस्मान साहब के मारे जाने का एलान आजाद कश्मीर रडियों से दिया जाता था, जिससे कि हमलावरों में हिम्मत बनी रहे।ब्रिगेडियर उस्मान को जिन्दा या मरा हुआ पकड़ लाने के लिए 50 हजार रुपये के इनाम का एलान भी हमलावरों की तरफ से किया गया था।
5 जुलाई 1948 को हिंदुस्तानी फौज की कमान करते हुए कश्मीर के मोर्चे पर ब्रिगेडियर उस्मान ने अपनी आखिरी सांस ली। उनकी मौत एक ऐसी मौत थी जिसके लिए किसी भी बहादुर देशभक्त के दिलों में डाह पैदा हो सकती है। भारत के सैनिक इतिहास में अब तक ब्रिगेडियर उस्मान वीर गति को प्राप्त होने वाले सबसे वरिष्ठ सैन्य अधिकारी हैं। झंगड़ में उसी चट्टान पर उनका स्मारक बना हुआ है जहाँ गिरे तोप के एक गोले ने उनकी जान ले ली थी।
संदर्भ
Major General Ian Cardozo, Param Vir Chakra, Prabhat Publications,
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में