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आजादी के दीवाने बटुकेश्वर दत्त

 

भारतीय क्रांतिकारी आंदोलन में जो देशभक्त शहीद हुए उन्हें तो इतिहास ने धरोहर की तरह संभाल लिया लेकिन जो जीवित रहे और अपने आदर्शों के लिए लड़ते रहे। उन्हें कुछ हद तक उपेक्षा का सामना करना पड़ा। ऐसे कई क्रांतिकारी हैं, जिन्होंने आजन्म कालापानी या आजीवन कारावास भुगता मगर कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने साबित किया कि क्रांतिकारी अपने महान आदर्शों के लिए न सिर्फ़ अपनी जान कुर्बान कर सकते हैं बल्कि आजीवन उन आदर्शों के लिए लड़ते रह सकते हैं।

 

 ऐसे ही क्रांतिकारी हैं बटुकेश्वर दत्त, जिन्हें आज़ाद भारत में वह सम्मान नहीं मिला, जिसके वह हकदार थे। इतिहास उन्हें 1929 के असेंबली बम कांड में भगत सिंह के सहयोगी के रूप में याद रखता है। असेंबली ने ट्रेड डिस्प्यूट बिल को पास कर दिया था, जिसके ज़रिये मज़दूरों से हड़ताल करने का मूलभूत अधिकार छीना जा रहा था, हालांकि पब्लिक सेफ्टी बिल पर सदन बंटा हुआ था।

 

अंग्रेज़ सरकार अपनी दमनकारी नीतियों के तहत ही इन बिलों को वायसराय के विशेषाधिकार के बल पर पास करा लेना चाहती थी। ऐसे मौके पर एचएसआरए ने अपना उत्तरदायित्व समझते हुए कानून और राष्ट्र के खिलवाड़ के विरोध में आम जनता के बीच अंग्रेज़ी सरकार के दमनकारी चेहरे को बेनकाब करने के लिए असेंबली में धमाका किया।

 

भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त
भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त

 

आजीवन कारावास की सज़ा

 

अंग्रेज़ सरकार के लिए बटुकेश्वर दत्त एक ख़तरनाक क्रांतिकारी थे, जो षड्यंत्र रचने में माहिर थे। उनकी मौजूदगी पंजाब की जेल में पंजाब सरकार के लिए चिंता का विषय थी लिहाजा उन्हें मद्रास भेज दिया गया, जिससे वह किसी से संपर्क न साध सकें। उन्हें लाहौर षड्यंत्र में मुक्त कर असेंबली बम कांड की सज़ा काटने का आदेश हुआ। मद्रास में दो वर्ष रहने के बाद उन्हें अंडमान भेज दिया गया। उनके कुछ अन्य पुराने साथी भी उनके साथ ही वहां भेजे गये, जिससे उन्हें थोड़ा सुकून मिला।

 

 अंडमान की जेल का प्रयोग अंग्रेज सरकार क्रांतिकारियों को उनकी कर्मभूमि से दूर कर, उन्हें भयंकर यातनाएं देकर उनका मनोबल तोड़ने के लिए करती थी। पर क्रांतिकारी कहां इतनी आसानी से डिगने वाले थे, उन्होंने वहां बेहतर भोजन, बेहतर व्यवहार और अन्य सुविधाओं के लिए भूख हड़ताल आरंभ कर दी। सरकार भले ही उन्हें देश से दूर कर चुकी थी, पर उनकी अंडमान में की गयी हड़ताल भी राष्ट्रवादी आंदोलन का हिस्सा ही थी।

 

उनकी भूख हड़ताल तोड़ने के लिए जेल अधिकारियों ने तमाम हथकंडे अपनाये। उनकी अमानवीय यातनाओं के चलते महावीर सिंह और कुछ अन्य क्रांतिकारी शहीद हो गये पर फिर भी हड़ताल चलती रही। आखिरकार जेल अधिकारियों को उनके मज़बूत इरादों के सामने झुकना ही पड़ा। बेहतर भोजन के साथ-साथ अखबार और पत्रिकाओं इत्यादि की व्यवस्था की गयी।

 

जेल में एक पुस्तकालय भी खोला गया और अध्ययन बढ़ाने के प्रयास किये गये। दत्त ने वहां काफ़ी समय अध्ययन में गुजारा। इस पर उनके वरिष्ठ साथी मन्मथनाथ गुप्त का कहना है

 

अंडमान के अध्ययनशील माहौल में दत्त ने काफ़ी समय पुस्तकों के बीच व्यतीत किया और समाजवादी साहित्य का गहराई से अध्ययन किया… वह तत्पश्चात एक पक्के समाजवादी बन गये।

 

1935 में बने कम्युनिस्ट कंसोलिडेशन में भी दत्त का अहम योगदान रहा। एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक थ्योरी एंड प्रैक्टिस ऑफ़ सोशलिज्म, जो मार्क्सवाद के अध्ययन के लिए अत्यंत आवश्यक थी, की एक अतिरिक्त प्रति दत्त ने अपने हाथों से लिखकर तैयार की।

 

 कुछ समय बाद क्रांतिकारियों ने सभी राजनीतिक बंदियों को अंडमान से वापस देश की मुख्य भूमि में भेजने की मांग उठायी, जिसकी अनदेखी किये जाने पर सन 1937 में एक बार फिर भूख हड़ताल शुरू कर दी गयी। अंडमान से उठी इस मांग का असर इस कदर हुआ कि देश के कई हिस्सों में राजनैतिक क़ैदियों की देश वापसी को लेकर आंदोलन हुए। राष्ट्रीय स्तर के कई नेताओं ने भूख हड़ताल ख़त्म करने के लिए कई पत्र लिख कर अनुरोध किया। अपने सारे कुचक्र कर लेने के बाद अंततः सरकार राजनीतिक क़ैदियों को भारत भेजने के लिए राज़ी हो गयी।

 

दत्त को पहले दिल्ली जेल और फिर पटना स्थानांतरित किया गया। वह इतने दिन जेल में यातनाप्रद जीवन बिताने के चलते कमजोर हो गये थे और उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे ख़राब होता जा रहा था। डॉ. राजेंद्र प्रसाद, महात्मा गांधी और अन्य कुछ नेताओं ने पत्र के ज़रिये सरकार के सामने यह मांग रखी कि चिकित्सकीय आधार पर बटुकेश्वर दत्त को रिहा कर दिया जाए। परिणामस्वरूप दत्त को सितंबर 1938 को जेल से रिहा कर दिया गया।


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रिहाई के बाद दत्त का कांग्रेस के तरफ रुझान 

रिहाई के बाद दत्त का रुझान कांग्रेस की तरफ़ बढ़ा पर वह क्रांतिकारी गतिविधियों के संपर्क में भी बने हुए थे। 1939 के कानपुर किसान और जिला राजनीतिक अधिवेशन की संयुक्त बैठक में उन्होंने शिरकत की।

 

पुराने साथी भी मौजूद थे। इस वर्ष उन्होंने उन्नाव के मकूर में प्रांतीय जवान सम्मेलन की अध्यक्षता की जिसमें एचएसआरए के बचे-खुचे क्रांतिकारियों हे कम्युनिस्ट पार्टी के साथ एक संयुक्त मोर्चा बनाया।

 

जब 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन की लहर पूरे देश में फैल चुकी थी, तब दत्त ने भी उसमें सक्रिय रूप से हिस्सा लिया। उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और फिर वही यातनाओं और भूख हड़ताल वाला सिलसिला चल पड़ा। उनकी आत्मा भले ही पहले की तरह मज़बूत थी लेकिन शरीर अब इस नारकीय स्थिति को और झेल नहीं सका और वह गंभीर रूप से बीमार पड़ गये।

 

सिगरेट बनाने की कंपनी में करनी पड़ी मजदूरी

देश की आज़ादी के बाद बटुकेश्वर दत्त को रिहाई मिल गयी।  1947 में दत्त का विवाह अंजलि देवी से हुआ। फिर बेटी भारती का जन्म हुआ। वह विवाह के बाद पटना में ही बस गये। दत्त ने क्रांतिपथ पर अपनी शिक्षा तक को ताक पर रख दिया था और ज़ाहिर है कि लंबे कारावास के जीवन के चलते उनके पास जीविकोपार्जन के भी खास स्रोत नहीं थे।

 

उन्हें एक सिगरेट कम्पनी में एजेंट का काम मिला जिससे जैसे-तैसे ही गुज़ारा हो पा रहा था। फिर उन्होंने एक कारख़ाना खोला जिसमें बिस्कुट इत्यादि बनते थे पर घाटे के चलते वह भी बंद हो गया। फिर उन्होंने टूरिस्ट एजेंट और बस परिवहन के ज़रिये घर चलाने का प्रयास किया। जब बस परिवहन के लिए उन्होंने परमिट का आवेदन पत्र जमा किया, तो तत्कालीन कमिश्नर ने लगभग फटकारते हुए उनसे राजनीतिक पीड़ित होने का प्रमाण मांगा।

 

दत्त जैसे स्वाभिमानी व्यक्ति ने वह पत्र वहीं फाड़ दिया। जब उन्होंने देखा कि आजाद भारत में बेईमानी और घूस के ज़रिये ही जीविका पायी जा सकती है, तब उन्होंने अंजलि देवी को विद्यालय में अध्यापिका की नौकरी करने को कहा।

 

डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने राष्ट्रपति होने पर बिहार सरकार से पत्र के ज़रिये दत्त जीविका का साधन उपलब्ध करने की बात उठाया मगर बिहार सरकार ने इस तरह कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया।  1963 में बिहार के राज्यपाल अनंत अयंगर के प्रयास से दत्त को बिहार विधान परिषद का सदस्य बनने का अवसर प्राप्त हुआ के कुछ समय बाद ही उनको इस पद से हटा दिया गया जिससे उनके आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची। उन्होंने पहले भी पद अथवा पैसे की कोई कामना नहीं की थी लेकिन इस घटना से तो उनके अंदर की रही-सही उम्मीद भी खत्म हो गयी।


जब नागपुर झंडा सत्याग्रह का नेतृत्व किया था सरदार पटेल ने


 

इलाज कराने के तक के नहीं थे पैसे

1964 की बात है, बटुकेश्वर दत्त की तबीयत बेहद खराब हो गयी, उन्हें उपचार के लिए  पटना के ही सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया। जब उनके मित्र चमनलाल आजाद को पता चला तो उन्होंने देश को दत्त की चिंताजनक स्थिति से अवगत करने के लिए वीर अर्जुन नामक अखबार में एक लेख लिखा।

 

 उन्होंने सवाल किया कि जिस व्यक्ति ने देश की ख़ातिर अपनी जान दांव पर लगा दी वह अस्पताल में दयनीय हालत में पड़ा है, क्या उसे भारत में जन्म लेना चाहिए था? उन्होंने यह कहते हुए खेद प्रकट किया कि ईश्वर ने उन्हें भारत देश में जन्म देकर भरी भूल कर दी है। इस मार्मिक और चुभने वाले लेख से हंगामा मच गया।

 

पंजाब के मुख्यमंत्री ने पेशकश की कि यदि बिहार में किन्हीं कारणवश दत्त का इलाज संभव नहीं तो पंजाब सरकार दिल्ली या चंडीगढ़ में अपने खर्चे पर उनका इलाज कराएगी। तब बिहार सरकार ने ध्यान देकर मेडिकल कॉलेज में उनका इलाज करवाना शुरू किया।

 

पर कुछ समय बाद पता चला कि इलाज ठीक ढंग से नहीं हुआ, तब उन्हें दिल्ली ले जाया गया। वहां पहुंचकर उन्होंने पत्रकारों से कहा, ‘मुझे स्वप्न में भी ख्याल नहीं था कि मैं यहां उस दिल्ली में जहां मैंने बम चलाये, एक अपाहिज की तरह स्ट्रेचर पर लाया जाऊंगा।’

 

दत्त का इलाज ऑल इंडिया मेडिकल इंस्टीट्यूट में शुरू हुआ और तब पता चला की उनको कैंसर है। इस ख़बर ने दत्त को जानने वाले हर व्यक्ति को स्तब्ध कर दिया। उनके पुराने साथी अपने प्यारे दत्त से मिलने आने लगे।

 

भगत सिंह की मां से जाहिर की अंतिम इच्छा

भगत सिंहकि मां विद्यावती और बटुकेश्वर दत्त
भगत सिंहकि मां विद्यावती कौर जी और बटुकेश्वर दत्त

भगत सिंह की माताजी विद्यावती कौर को दत्त से बेहद लगाव था, वह उन्हें खो देने के ख़्याल से ही विचलित हो उठीं। वह थोड़े-थोड़े दिनों में दत्त से मिलने दिल्ली आ जाती। अंतिम समय में वह उनके साथ ही थीं, उन्हें संभवतः दत्त में अपने पुत्र की इलक दिखती थी।

 

बटुकेश्वर दत्त ने 20 जुलाई 1965 को आखिरी सांस ली। दत्त की आखिरी इच्छा कि उनका अंतिम संस्कार पंजाब के हुसैनीवाला वाला में, उसी स्थल पर हो जहां उनके साथी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु का क्रियाकर्म किया गया था। पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने उनकी यह इच्छा पूरी करने में पूर्ण सहयोग दिया। जब उनका पार्थिव शरीर दिल्ली से पंजाब ले जाया जा रहा था, तब एक भारी जनसैलाब उमड़ पड़ा था।

 

देश आजाद होने पर भी जो व्यक्ति गुमनामी और उपेक्षा का जीवन जीता रहा, उसके पार्थिव शरीर को देश ने जाते-जाते थोड़ा सम्मान दे दिया। उनका आखिरी संस्कार उनकी इच्छा के अनुरूप वहीं किया गया, जहां उनके साथी भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की अंत्येष्टि हुई। देर से ही सही पर उनकी फिर से अपनी पुरानी टोली से मुलाक़ात हो ही गयी।

 


 

संदर्भ

प्रबल शरण अग्रवाल. हर्षवर्धन त्रिपाठी, अंकुर गोस्वामी, भगत सिंह के साथी.वाम प्रकाशन, दिल्ली

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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