अहमदनगर किला में जवाहर लाल नेहरू की जेल यात्रा
पंडित जवाहर लाल नेहरू1922 में पहली बार जेल जाने और 1945 में आखिरी बार रिहा होने के बीच कुल नौ बार जेल गए। सबसे कम 12 दिनों के लिए, सबसे ज्यादा 1,041 दिनों तक। ऐसा नहीं कि राजनीतिक बंदी होने के नाते जेल में बड़ी अच्छी सुविधाएं मिलती हों। वो अंग्रेजों की जेल थी और उनकी सजा में सश्रम कारावास भी था।
‘भारत छोड़ो आंदोलन’ का दौर था. शायद भारत के स्वतंत्रता संग्राम का सबसे ऐतिहासिक दौर था यह, क्योंकि यहां से शुरू हुआ रास्ता आगे चलकर आजादी तक पहुंचा। कांग्रेस ने ‘अंग्रेजों भारत छोड़ो’ का प्रस्ताव पारित किया.पंडित नेहरू समेत कांग्रेस के कई बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। पंडित नेहरू को सबसे पहले अहमदनगर किला जेल भेजा गया, जहां उन्होंने सबसे लंबा समय काटा। इन 9 कारावासों में से अंतिम, अगस्त 1942 से मार्च 1945 तक रहा। यह लगभग 963 दिन का रहा।
अहमदनगर किले के जेल में चाँद, पंडित नेहरू के बंदी जीवन का स्थायी सहचर बना
भारत की खोज में पंडित नेहरू ने अहमदनगर किले में अपनी यात्रा के बारे में लिखा है…. जब अहमदनगर किले के जेल में चाँद, मेरे बंदी जीवन का स्थायी सहचर बना…
हमें यहाँ आए हुए बीस महीने से अधिक समय बीत गया मेरी नौंवी जेलयात्रा का बीस महीने से भी अधिक समय। अंधियारे आकाश में झिलमिलातें दूज के चाँद ने यहाँ पहुँचने पर हमारा स्वागत किया। बढ़ते चाँद का उजला शुक्ल पक्ष शुरू हो चुका था। तब से हर बार जब नया चाँद उगता है तो जैसे मुझे याद दिला जाता है कि मेरे कारावास का एक महीना और बीत गया। ऐसा ही मेरे पिछले कारावास की अवधि में हुआ था जी आलोक-पर्व दीपावली के तत्काल बाद नए चाँद के साथ शुरू हुई थी।
चाँद, मेरे बंदी जीवन का स्थायी सहचर रहा है। पहचान गहराने से मित्रता और बढ़ गई है। वही मुझे दुनिया के सौंदर्य की, जीवन के ज्वार-भाटे की याद दिलाता है। साथ ही इस बात की भी कि अंधेरे के बाद उजाला होता है और मृत्यु और पुनर्जीवन एक दूसरे के पीछे अनंत क्रम में घूमते रहते हैं। निरंतर बदलते रहने के बावजूद हमेशा वैसा ही होता है ये चाँद । मैंने उसे उसकी विभिन्न कलाओं, में, और तरह-तरह के मनोभावों में देखा है। शाम को लंबी होती परछाइयों में, रात के मौन प्रहरों में, और तब जब भोर के झोंके और मरमराहट, आने वाले दिन की आस बँधाते हैं।
अहमदनगर के किले में पंडित नेहरू ने बागवानी करना शुरू किया
दूसरे जेलों की तरह, यहाँ अहमदनगर के किले में भी मैंने बागवानी करना शुरू कर दिया। मैं रोज़ कई घंटे तपती धूप में भी फूलों के लिए क्यारियाँ. खोदकर तैयार करने में बिताने लगा। मिट्टी बहुत खराब थी- पथरीली और पहले बनाए गए मकानों के मलबे और अवशेषों से भरी हुई। उसमें प्राचीन स्मारकों के खण्डहर भी मौजूद थे इसलिए चूँकि यह इतिहास – स्थल है। अतीत में इसने कई युद्ध और राजमहलों की दुरभिसंधियाँ देखी हैं।
भारत के पूरे इतिहास की दृष्टि से यहाँ का इतिहास बहुत पुराना नहीं है, घटनाओं के बृहत्तर संदर्भ में इसकी कोई विशेष अहमियत भी नहीं है। पर इनमें एक घटना औरों से विशिष्ट है, और आज भी याद की जाती है। यह है चाँद बीबी नामक एक सुन्दर महिला के साहस की कहानी, जिसने इस किले की रक्षा के लिए तलवार हाथ में उठाकर, अकबर की शाही सेना के विरुद्ध अपनी सेना का नेतृत्व किया। उसकी हत्या उसके अपने ही एक आदमी के हाथों हुई।
इस अभागी धरती की खुदाई के दौरान हमें ज़मीन की सतह के बहुत नीचे दबे हुए प्राचीन दीवारों के हिस्से और गुंबदों और इमारतों के ऊपरी हिस्से मिले। हम बहुत दूर नहीं जा सके, क्योंकि अधिकारियों ने गहरी खुदाई करने और पुरातात्विक खोजबीन करने की अनुमति नहीं दी थी और न ही हमारे पास इस काम को जारी रखने के साधन थे । एक बार हमें एक तरफ दीवार पर पत्थर पर खुदे हुए सुंदर सफेद कमल की आकृति मिली। शायद यह पत्थर दरवाज़े के ऊपर रहा होगा ।
अब मैंने अपनी कुदाल छोड़कर उसके बदले कलम उठा ली है। मैं वर्तमान के बारे में तब तक नहीं लिख सकता जब तक उसे कर्म के माध्यम से अनुभव करने के लिए मैं आज़ाद नहीं हो जाता ना ही मैं पैगंबर की भूमिका अपनाकर भविष्य के बारे में लिख सकता हूँ। अतीत पर में बीती हुई घटनाओं के बारे में किसी इतिहासकार या विद्वान की विद्वत्तापूर्ण शैली में भी नहीं लिख सकता। मैं उसके बारे में उसी ढंग से लिख सकता हूँ जिस तरह मैं पहले भी लिख चुका हूँ- अपने आज के विचारों और क्रियाकलापों के साथ उसका कोई संबंध स्थापित करके। गेटे ने एक बार कहा था कि इस प्रकार का इतिहास-लेखन अतीत के भारी बोझ से एक सीमा तक राहत दिलाता है।
अतीत का दबाव भला-बुरा दोनों अभिभूत करता है
भला-बुरा, दोनों तरह का दवाव, अभिभूत करता है। कभी-कभी यह दवाब दम घोटू होता है – खास तौर पर उन लोगों के लिए जिनकी जड़ें बहुत पुरानी सभ्यताओं में होती हैं- मसलन भारत और चीन की सभ्यताएँ । नीत्शे ने कहा था – “बीती हुई सदियों का विवेक ही नहीं उनकी दीवानगी भी हमारे भीतर से फूट पड़ती है। उनका वारिस होना आवश्यक है।”
आखिर मेरी विरासत क्या है? मैं किन बातों का उत्तराधिकारी हूँ? क्या उस सबका जिसे मानवता ने दसियों हज़ारों साल के दौरान हासिल किया, उस सबका जिसके बारे में उसने विचार किया, महसूस किया, भोगा और जिन बातों से उसने खुशियाँ हासिल कीं, उसकी विजयों के उल्लास का, उसकी पराजयों की दुखद यंत्रणा का, मानव के उन हैरतंगेज़ मिरानों (साहसिक कार्यो) का जिनकी शुरुआत युगों पहले हुई और जो अब भी जारी है और हमें आकर्षित करती है।
मैं इस सबका वारिस हूँ और उस सबका भी जिसमें पूरी मानव जाति की साझेदारी है। पर हम भारतवासियों की विरासत में एक खास बात है, लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है, क्योंकि कोई व्यक्ति औरों से एकदम अलग नहीं होता। मानव जाति के लिए सभी बातें समान हैं। अलबत्ता एक बात हम लोगों पर विशेष रूप से लागू होती है, जो हमारे रक्त, मांस और अस्थियों में समायी है। इसी विशेषता से हमारा वर्तमान रूप बना है, और हमारा भावी रूप बनेगा ।
इसी विशिष्ट विरासत का विचार और वर्तमान पर इसे लागू करने की बात एक लंबे अरसे से मेरे मन में जगह बनाए है, और मैं इसी के बारे में लिखना चाहता हूँ। विषय की कठिनाई और जटिलता मुझे भयभीत करती है। मुझे लगता है कि मैं सतही तौर पर इसका स्पर्श ही कर सकता हूँ।
संदर्भ
जवाहर लाल नेहरू, संपादन और अनुवाद निर्मल जैन, भारत की खोज(संक्षिप्त संस्करण), राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में