पंडित नेहरू ने मेरी कविता पर वाहवाही सिर्फ एक बार दी थी- दिनकर
लाल किले पर कवि सम्मेलन हो रहा था, तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू मुख्य अतिथि के तौर पर पहुंचे थे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर भी कविता पाठ के लिए आए हुए थे। मंच पूरी तरह तैयार था, पंडित नेहरू और दिनकर मंच की सीढ़ीयों पर चढ़ रहे थे। इतने में एकाएक पीएम नेहरू का पांव डगमगा गया और दिनकर ने उनका हांथ पकड़कर उन्हें संभाल लिया। इसके बाद उन्होंने दिनकर से कहा – धन्यवाद दिनकर जी आपने मुझे संभाल लिया…इसके जवाब में दिनकर ने जो कहा, वो एक इतिहास बन गया। रामधारी सिंह दिनकर ने कहा कि इसमें धन्यवाद की कोई बात नहीं है नेहरू जी…राजनीति जब-जब लड़खड़ाती है, साहित्य उसे ताकत देता है।
जब पहली बार पंडित नेहरू से मिले दिनकर
पंडित जवाहरलाल नेहरू को दूर से देखने के अवसर तो मुझे भी कई बार मिले थे, किन्तु नजदीक से पहले-पहल उन्हें मैंने 1948 में देखा। जब वह किसी राजनीतिक सम्मेलन का उद्घाटन करने को मुजफ्फरपुर आए थे। उस दिन सभा में मुझे एक कविता पढ़नी थी, अतएव लोगों ने मुझे भी मंच पर ही बिठा दिया था। जिस मसनद के सहारे पंडित जी बैठे थे, मैं उसके पीछे था और मेरे ही करीब बिहार के मुख्यमंत्री डॉक्टर श्रीकृष्ण सिंह तथा एक अन्य कांग्रेस नेता श्री नन्दकुमार सिंह भी बैठे थे।
उससे थोड़े ही दिन पूर्व मुंगेर श्रीबाबू को राजर्षि टंडन जी ने एक अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया था। इस अभिनन्दन-ग्रन्थ के आयोजक श्री नन्दकुमार सिंह थे तथा उसके सम्पादकों में मुख्य नाम मेरा ही था। सुयोग देखकर नन्दकुमार बाबू ने ग्रन्थ की एक प्रति जवाहरलाल जी के सामने बढ़ा दी। पंडित जी ने उसे कुछ उलटा-पलटा और देखते-देखते उनके चेहरे पर क्रोध की लाली फैल गई। फिर वह हाथ हिलाकर बुदबुदाने लगे, ‘ये गलत बातें हैं। लोग ऐसे काम को बढ़ावा क्यों देते हैं? मैं कानून बनाकर ऐसी बातों को रोक दूँगा।’
आवाज श्रीबाबू के कान में पड़ी, तो उनका चेहरा फक हो गया । नन्दकुमार बाबू की ओर घूमकर वे सिर्फ इतना बोले, ‘आपने मुझे कहीं का नहीं रखा।’
अब संयोग कि उन्हीं दिनों अज्ञेय जी और श्री लंका सुन्दरम् नेहरू- अभिनन्दन ग्रन्थ का सम्पादन कर रहे थे। यह ग्रन्थ 1950 में तैयार हुआ और उसी वर्ष 26 जनवरी के दिन पंडित जी को अर्पित भी किया गया। उस समय तमाशा देखने को मैं भी दिल्ली गया हुआ था। जब राजेन्द्र बाबू राष्ट्रपति भवन में प्रवेश किया, उसके एक दिन पूर्व मैं उनसे मिलने गया था।
बातों के सिलसिले में मैंने राजेन्द्र बाबू से जानना चाहा कि पंडित जी को अभिनन्दन ग्रन्थ कौन भेंट करेगा। राजेन्द्र बाबू ने कहा, ‘लोगों की इच्छा है कि ग्रन्थ मेरे ही हाथों दिया जाना चाहिए, मगर पंडित जी इस विचार को पसन्द नहीं करते। वह मेरे पास आए थे और कह रहे थे कि कल से आप राष्ट्रपति हो जाएँगे। मैं नहीं चाहता कि अभिनन्दन ग्रन्थ जैसे फालतू काम के लिए राष्ट्रपति इम्पीरियल होटल में कदम रखें, न मैं यही चाहता हूँ कि यह समारोह राष्ट्रपति भवन में मनाया जाए।
जिन लोगों ने यह तमाशा खड़ा किया है, उन्हें भुगतने दीजिए।’ जरा चुप रहकर राजेन्द्र बाबू बोले, ‘समारोह, शायद, इम्पीरियल होटल में ही होगा और ग्रन्थ भेंट करने को टंडन जी जाएँगे और तो कोई रास्ता दिखाई नहीं देता है।’
और, सचमुच, समारोह का आयोजन होटल में ही हुआ तथा ग्रन्थ टंडन पंडित जी की मुद्रा समारोह में आकर कड़ी नहीं रही। उस दिन वे काफी खुश नजर आए और जब बोलने लगे, तब उन्होंने कहीं से भी कंजूसी नहीं दिखाई।
दक्षिणी अमरीका की किसी कवयित्री ने उन्हीं दिनों उन्हें एक कविता भेजी थी, जिसके एक भाव का जिक्र पंडित जी ने अपने भाषण में किया था : ‘ओ जेल के पंछी, जब तुम जेल में थे, तब चहारदीवारी के बाहर तुम्हें केवल तारे दिखाई देते थे। उन सितारों की याद अब तुम्हें आती है या नहीं?”
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पंडित जी कविताओं से वह बहुत उद्वेलित कभी भी नहीं होते थे
लालकिले का कवि-सम्मेलन उस वर्ष 26 जनवरी को हुआ था या 25 जनवरी को, यह बात मुझे ठीक-ठीक याद नहीं है। किन्तु उस सम्मेलन में और, शायद, उन्हीं को मौजूद देखकर मैंने ‘जनता और जवाहर’ कविता उस दिन पढ़ी थी । श्रोताओं ने तो तालियाँ खूब बजाईं, मगर पंडित जी को कविता पसन्द आई या नहीं, उनके चेहरे से इसका कोई सबूत नहीं मिला। पंडित जी कवियों का आदर करते थे, किन्तु कविताओं से वह बहुत उद्वेलित कभी भी नहीं होते थे ।
संसद सदस्य होने के बाद मैं बहुत शीघ्र पंडित जी के करीब हो गया था। उनकी आँखों से मुझे बराबर प्रेम और प्रोत्साहन प्राप्त होता था और मेरा खयाल है, वे मुझे कुछ थोड़ा चाहने भी लगे थे। मित्रवर फीरोज गांधी मुझे मजाक में ‘महाकवि’ कहकर पुकारा करते थे। सम्भव है, पंडित जी ने कभी यह बात सुन ली हो, क्योंकि दो-एक बार उन्होंने भी मुझे इसी नाम से पुकारा था। किन्तु ‘आओ महाकवि, कोई कविता सुनाओ’, ऐसा उनके मुख से सुनने का सौभाग्य कभी नहीं मिला।
कविताएँ सुनकर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है, यह जानने को मैं बराबर उत्सुक रहता था, किन्तु उनकी प्रतिक्रिया पकड़ में बहुत कम आती थी।
एक बार होली के अवसर पर प्रधानमंत्री के घर पर जो जलसा हुआ, उसमें जोश मलीहाबादी भी आए थे और उन्होंने ‘उठो कि नौबहार है’ नामक अपनी नज़्म पढ़ी थी। इस कविता को पंडित जी ने बड़े ध्यान से सुना था और एक बार बेताब होकर कुछ बोल भी पड़े थे। फिर मैंने भी एक कविता पढ़ी, मगर पंडित जी का चेहरा में देख नहीं सका। जब में बैठ गया, पंडित जी उठ खड़े हुए और उन्होंने ऐलान किया, ‘जाहिर है कि अब कविता का सिलसिला बन्द कर देना चाहिए।’ मुझे ठीक ठीक पता नहीं चला कि ऐसा उन्होंने खुश होकर कहा या इस आशंका से कि दो कवियों के बीच कहीं कोई स्पर्धा न आरम्भ हो जाए।
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जब पंडित नेहरू ने मेरी कविता पर ‘वाह! वाह!’ कहा
1958 में लालकिले में जो कवि सम्मेलन हुआ, उसका अध्यक्ष ही था और मुझे ही लोग पंडित जी को आमंत्रित करने को उनके घर पर लिवा गए थे। पंडित जी आध घंटे के लिए कवि सम्मेलन में आए तो जरूर, मगर खुश नहीं रहे। एक बार तो धीमी आवाज में बुदबुदाकर उन्होंने यह भी कह दिया कि ‘यही सब सुनने को बुला लाए थे?”
एक बार साहित्य अकादमी के वार्षिक अधिवेशन के अवसर पर पंडित जी ने सभी साहित्यिकों को अपने घर पर सान्ध्य- पार्टी दी। उस भीड़ में फैज़ भी मौजूद थे। उस दिन भी पंडित जी को घेरकर काव्य पाठ का कार्यक्रम, आप- से आप आरम्भ हो गया फैज़ ने अपनी कई गजलें पढ़ीं, और कवियों ने भी अपनी कविताएँ सुनाई, मगर पंडित जी के चेहरे पर कोई भी भाव नहीं आया। वे आँखें नीचे किए सभी कविताएँ सुनते रहे।
मेरी कविता पर वाहवाही उन्होंने सिर्फ एक बार दी थी। टंडन जी जब पचहत्तर वर्ष के हुए, तब संसद सदस्यों ने उनका अभिनन्दन किया। उस समारोह में पंडित जी प्रसन्नता के उभार पर थे। राजर्षि की सहधर्मिणी को उन्होंने बड़े ही सम्मान के साथ राजर्षि की बगलवाली कुर्सी पर आसीन किया, उनके गले में खुद ही फूलों की माला डाली और टंडन जी की अभ्यर्थना में उन्होंने जो भाषण दिया, उससे सभी श्रोता बाग बाग हो उठे। उसी समारोह में मैंने ‘राजर्षि- अभिनन्दन’ नामक कविता पढ़ी थी, जिसके अन्त में ये पंक्तियाँ आती हैं:
एक हाथ में कमल,
एक में धर्मदीप्त विज्ञान
लेकर उठनेवाला है
धरती पर हिन्दुस्तान
ये पंक्तियाँ सुनते ही पंडित जी ‘वाह! वाह!’ बोले उठे।
पता नहीं, यह वाहवाही कवित्व के लिए थी या भारत के भविष्य की उस कल्पना के लिए जो उनके समान मुझे भी आलोड़ित करती रही है!
संदर्भ
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में