दूसरा जलियांवाला बाग था रायबरेली का ‘मुंशीगंज गोलीकांड’
रायबरेली से 10 किलोमीटर दूर पड़ता है मुंशीगंज इलाका। इसके किनारे पर बहती सई नदी यूं तो शांत रहती है, लेकिन जब भी इस पर बने पुल से ट्रेन गुजरती है तो पानी में जोरों से कंपन होने लगता है। आजादी के इतिहास में मुंशीगंज इलाके में ‘मुंशीगंज गोलीकांड‘ हुआ था। इस भयानक नरसंहार को स्वतंत्रता सेनानी और पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘दूसरा जलियांवाला बाग’ कहा था।
मुंशीगंज का नरसंहार, जिसने नेहरू को रुला दिया
अवध में चलने वाले किसान आंदोलन की चरम परिणति 7 जनवरी, 1921 को मुंशीगंज गोलीकांड के रूप में हुई। पं. जवाहरलाल नेहरू सई नदी के इस तट पर खड़े थे। दूसरे तट पर रेलवे लाइन और सड़क के मध्य सरपत पुंजों से थोड़ा हटकर नदी की लहरियादार रेती में सहस्रों किसान अपनी छाती पर गोलियों की बौछार सह रहे थे ।
धाँय – धाँय बंदूकों की भयावह आवाजें हवा में गूँज रही थीं। चारों ओर भय और आतंक के साथ सनसनी छाई हुई थी । गोलियों की आवाज के साथ जवानों के कलेजे उछल पड़ते थे। थोड़ी देर में सई नदी का पानी लहूलुहान हो उठा। रेती में चमकते बालुका कण लाल हो उठे, दम तोड़ते सैकड़ों लोग एक बूँद पानी के लिए तड़पते रहे। जाने कितने घायल प्राण बचाकर अज्ञात स्थानों में छिप गए।
कुछ लाशें नदी के प्रवाह में प्रवाहित कर दी गईं। कुछ बालू में दफना दी गईं, तो कुछ लारियों और ट्रकों में भरकर रातों-रात डलमऊ ले जाई गईं और गंगा में प्रवाहित कर दी गईं। जो बचीं वे सरपत पुंजों से निकाल कर दूसरे दिन सबेरे कई इक्कों में लादी गईं। इक्कों में लदी इन लाशों को जन नायक पं. जवाहरलाल नेहरू ने स्वयं देखा था।
उन्हीं के शब्दों में, “वापसी में मैंने चंद लाशें देखीं, जो एक ताँगे में इकट्ठा बेतरतीबी के साथ पड़ी हुई थीं। यह ताँगा बगैर घोड़े के मुंशीगंज पुल के पास खड़ा था। इन लाशों पर कपड़ा ढका था, लेकिन टाँगें निकली हुई थीं। मेरे ख्याल से एक दर्जन टाँगें निकली होंगी। यह मुमकिन है कि 10 हों या 14 | “
ताल्लुकेदारों के अत्याचारों से पीड़ित अवध के किसानों का खून सई नदी की रेती में क्या बहा, पूरे देश में तहलका मच गया।
पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘दूसरा जलियांवाला बाग’ कहा था और चला प्रताप पर मुकदमा
मुंशीगंज गोलीकांड की ‘जलियाँवाला बाग’ से तुलना की जाने लगी। अमर शहीद गणेशशंकर विद्यार्थी उन दिनों ‘प्रताप’ के संपादक थे । विद्यार्थीजी ने दैनिक ‘प्रताप‘ के 13 जनवरी, 1921 के अंक में ‘डायरशाही और ओडायरशाही’ शीर्षक से एक संपादकीय प्रकाशित करके इस घटना का साहस और वीरता के साथ सामना किया। ‘प्रताप’ के उक्त संपादकीय में विद्यार्थीजी का आक्रोश चरम सीमा पार कर चुका था ।
उनकी लेखनी ने तत्काल नौकरशाही पर खुलकर अंगार बरसाए । ताल्लुकेदारों को कोसा और उन्हें हत्यारा कहकर संबोधित किया। दैनिक ‘प्रताप’ के इस ऐतिहासिक संपादकीय से पूरे देश में तहलका मच गया। अनेक पत्रों में इसकी प्रतिक्रिया हुई। मुंशीगंज गोलीकांड के विरोध में देश भर में अनेक जन-सभाएँ हुईं।
सरदार वीरपाल सिंह ने प्रायः सभी पत्र – संपादकों को एक नोटिस भेजी और उनसे अपने पत्र में क्षमा-याचना करने का आग्रह किया। उस समय क्षमा याचना करने वालों में ‘इंडिपेंडेंट’ के संपादक प्रमुख थे । जब यह नोटिस विद्यार्थीजी को मिली, तब उन्होंने ऐसा करने से साफ इनकार करते हुए अदम्य साहस और निर्भीकता का परिचय दिया। उनका उत्तर यों था-
‘दि प्रताप’
हिंदी डेली – वीकली पेपर प्रिंटर्स पब्लिशर्स ऐंड बुक सेलर्स
टेलीग्राफिक एड्रेस ‘प्रताप’
प्रताप ऑफिस
कानपुर
20 जनवरी, 1921
सरदार वीरपाल सिंह (एम. एल. सी.) के नाम उनकी नोटिस का उत्तर श्रीमान्,
हमको आपकी नोटिस दिनांक “यह पूछते हुए कि हम आपसे क्षमा याचना करें, तथा जो हमने संपादकीय 13 जनवरी, 1921 में विचार प्रकट किए हैं, उन्हें वापस लें, मिली। इसके उत्तर में हम आपको सूचित कर रहे हैं कि हमने जो कुछ लिखा है, हम पूरी तौर पर न्यायपथ पर हैं। हमारे पास अपने विचारों की पुष्टि में पर्याप्त साक्ष्य हैं। हम आपसे फिर कहेंगे कि आप हमारे संपादकीय को, जिसका कि आपने नोटिस में उल्लेख किया, दुबारा फिर पढ़िए। हम पूरी सामग्री आपके वकील के हाथ में, यदि समय आया तो देंगे। इसे दूसरी नीति न समझिएगा। अभियोगों के संबंध में सच्चाई तो यह होगी कि जनता हमारा अखबार लेकर आपके दरवाजे पर चिल्लाएगी।
मैं समझता हूँ कि ‘इंडिपेंडेंट’ अखबार के पास समय रहते पर्याप्त साक्ष्य नहीं पहुँच पाए, जिससे उन्होंने माफी माँग ली है।
आपका
सच्चा
गणेशशंकर विद्यार्थी
संपादक – प्रताप
बदनाम पत्र का बदनाम संपादक
विद्यार्थीजी के इस उत्तर के पश्चात् ही उनपर मानहानि का मुकदमा सरदार वीरपाल सिंह ने रायबरेली में चला दिया। रायबरेली की अदालत का फैसला बदनाम पत्र का बदनाम संपादक सरदार वीरपाल सिंह द्वारा विद्यार्थीजी पर चलाए गए मानहानि के मुकदमे की पूरी देश में शोहरत हुई। पं. मोतीलाल नेहरू, पं. जवाहरलाल नेहरू तथा पं. कपिलदेव मालवीय को इस मुकदमे में गणेशजी की ओर से पैरवी के लिए रायबरेली आना पड़ा, परंतु अत्याचार तथा साम्राज्यवाद तो सदा साथ-साथ चलते हैं।
मजिस्ट्रेट तो गणेशजी को सजा देने पर तुला ही हुआ था। उसने न्याय-अन्याय की चिंता किए बिना जमींदार के पक्ष में निर्णय देते हुए गणेशजी को सश्रम कारावास की सजा दी। इतना ही नहीं, उसने अपने निर्णय में गणेशजी को ‘Notorious Editor of Notorious Paper’ ( बदनाम पत्र का बदनाम संपादक) के नाम से संबोधित कर अपनी कट्टर साम्राज्यवादी मनोवृत्ति का परिचय दिया ।
`मजिस्ट्रेट द्वारा दिए गए इस सम्मान को चिरस्थायी बनाने के लिए ‘एक भारतीय आत्मा’ (पं. माखनलाल चतुर्वेदी) ने यह कविता लिख दी –
“तुम नटोरियस हम नटोरियस, हम नटोरियस तीस करोड़ ।
जिन माँ ने जन्मा नटोरियस, हृदय न करना उनकी होड़ ॥ “
पं. मोतीलाल नेहरू एवं मदनमोहन मालवीय को विद्यार्थीजी की ओर से पैरवी के लिए आना पड़ा
इस मुकदमे ने भारतीय आत्माभिमान तथा ब्रिटिश दंभ और अत्याचार प्रियता के बीच चलने वाले संघर्ष का रूप स्पष्ट किया। मुकदमे में विद्यार्थीजी व ‘प्रताप’ के प्रकाशक पं. शिवनारायण मिश्र से पंद्रह-पंद्रह हजार की जमानतें माँगी गईं। इस मुकदमे से ‘प्रताप’ की लोकप्रियता बढ़ गई। उसने किसानों का पक्ष लिया और उनके ऊपर जो अत्याचार हुए थे, उसकी गहरी आलोचना की। बड़े से बड़े अधिकारियों का आसन हिल गया ।
इस मुकदमे में गणेशजी व श्री शिवनारायण मिश्र को तीन-तीन महीने की सजा और हजार-हजार रुपए का जुर्माना हुआ। वह बड़ी प्रसन्नता से जेल गए। रायबरेली के मित्रों ने जमानत देकर गणेशजी और शिवनारायणजी को जेल से छुड़ा लिया। पं. मोतीलाल नेहरू एवं मदनमोहन मालवीय को विद्यार्थीजी की ओर से पैरवी के लिए आना पड़ा।
इसके पश्चात् गणेशजी ने 19 जनवरी, 1921 को पुनः ‘प्रताप’ में ‘ रायबरेली की डायरशाही पुलिस और वीरपाल सिंह की कीर्तिकथा’ शीर्षक एक अग्रलेख लिखा । गणेशजी के इस लेख से प्रांत की सरकार में खलबली मच गई, परंतु सरकार कुछ कार्यवाही करती, इससे पूर्व ही उन्होंने कानपुर के कलक्टर के नाम एक पत्र लिखा।
प्रिय महोदय,
23 मई, 1921 को मुझसे जाब्ता फौजदारी की दफा-108 के अनुसार पाँच- पाँच हजार की दो जमानतें और 5000 के मुचलके लिये गए थे। उस समय रायबरेली में मुंशी मकसूद अली की अदालत में मेरे ऊपर मानहानि का एक और फौजदारी मुकदमा चल रहा था। 108 दफा के अनुसार सरकार ने मेरे ऊपर जो कार्यवाही की उसका रायबरेली के मामले से घनिष्ठ संबंध था । रायबरेली में गोली चलाने के काम की ‘प्रताप’ ने जिसका संपादन उस समय मैं करता था, तीव्र निंदा की थी। उन लेखों में अधिकारियों के अमानुषिक काम की घोर निंदा की गई थी और मानवीय जीवन को अधिक पवित्र तथा अधिक बहुमूल्य बताया गया था। मेरा विचार है कि उस समय सरकार ने जो कार्यवाही की वह इसलिए की थी कि अधिकारी वर्ग की करतूतों का अधिक भंडाफोड़ न हो सके, परंतु मेरा विचार है कि उस काम में सरकार को सफलता नहीं मिली।
मुझे इतने दिन जेल से बाहर रखने के लिए मैं सरकार को धन्यवाद देता हूँ, परंतु देश की वर्तमान अवस्था अभी दूसरे कार्यक्षेत्र में मेरा आवाहन करती है। ऐसे समय प्रत्येक कर्तव्यपरायण भारतीय का अपने देश के प्रति कर्तव्य है कि वह इस प्रकार आचरण करे, जिससे उसके देशवासियों के मन में डर पैदा करने के लिए और उन्हें पीछे हटाने के लिए सरकार जो करती है, वह कार्य विफल हो जाए।
जब तक मैं मुचलका और जमानत से बँधा हुआ हूँ, तब तक मेँ कुछ नहीं कर सकता। इसलिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप मेरे इस पत्र को दिनांक 23.05.21 को दिए गए मुचलके को रद्द करने के लिए प्रार्थना पत्र समझें। मुचलके के रद्द होने से दोनों जमानतें अपने आप रद्द हो जाएँगी । उसका जो परिणाम होगा, उसे मैं भली-भाँति जानता हूँ कि उस बंधन से मैं जो स्वतंत्रता प्राप्त करूँगा, उसका अर्थ यह होगा कि मैं किसी जेल में रखा जाऊँगा। मैं उसके लिए तैयार हूँ। देश की वर्तमान हालत में अपने को अपमानित समझते हुए दफा- 108 से बँधे रहने से जेल में रहना कहीं अच्छा समझता हूँ ।
04.10.21
आपका
गणेशशंकर विद्यार्थी
कलक्टर के यहाँ से इसका जवाब आने पर गणेशजी ने 16 अक्तूबर, 1921 की शाम को आत्मसमर्पण कर दिया। कानपुर जेल में दस दिन रहे, उसके बाद 25 अक्तूबर, 1921 को लखनऊ सेंट्रल जेल भेज दिए गए और वहाँ से वह 22 मई, 1922 को मुक्त हुए। जेल में रहने से उनका स्वास्थ्य बहुत गिर गया था, परंतु वे तनिक भी विचलित हुए बिना पूर्ववत उत्साह से कार्य करने लगे। इस तरह गणेशजी ने बड़े ही साहस और दिलेरी के साथ तत्कालीन ब्रिटिश शासकों को ललकारा था। तत्पश्चात् उनपर चला मानहानि का मुकदमा, जो ‘प्रताप मानहानि केस’ के नाम से आज भी एक बहुचर्चित ऐतिहासिक मुकदमा माना जाता है।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में