मुहम्मदी बेगम: भारत की पहली मुस्लिम महिला संपादक
मुस्लिम जगत में सैयदा मुहम्मदी बेगम को महिला सशक्तिकरण और भारतीय उपमहाद्वीप की पहली महिला पत्रकार के तौर पर जाना जाता है। उन्होंने महिलाओं की दशा और दिशा बदलने के लिए कई प्रयोग किए। तत्कालीन समाज उन नवाचारों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। फिर भी उन्होंने नारी सशक्तिकरण के लिए ऐसे बीज बोए, जो बाद की दुनिया के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गए।
मुहम्मदी बेगम की परवरिश तरक्कीपसंद महौल में हुई थी
मुहम्मदी बेगम वजीराबाद हाई स्कूल के प्रधानाचार्य सैयद मुहम्मद शफी की बेटी थीं और उनका जन्म पंजाब के शाहपुर में हुआ था। सैयद मुहम्मद एक तरक्कीपसंद व्यक्ति थे और लड़कियों की शिक्षा के समर्थक थे। वे चाहते थे कि बच्चियों को आधुनिक शिक्षा मिले, ताकि वह जीवन के कठिन दिनों में मुश्किलों का सामना कर सकें और अपने पैरों पर खड़े होकर अपने परिवार का सहारा बन सकें।
पिता की प्रगतिशील सोच का ही परिणाम था कि जब औरतें पर्दे में रहती थीं और जिन्हें घर की चारदीवारी से बाहर कदम रखने की मनाही थी, उस दौर में मुहम्मदी बेगम घुड़सवारी और पुरुषों के वर्चस्व वाले खेल क्रिकेट में भी सक्रिय थीं।
बेगम की परवरिश जिस खुले माहौल में हुई, उसी तरह के खुले विचारों वाले जीवनसाथी के लिए उनकी तमन्ना भी पूरी हुई। लाहौर में तब मुमताज अली की प्रिंटिंग प्रेस और पब्लिकेशन हाउस था। पहली पत्नी की मृत्यु के बाद, 1897 में मुहम्मदी बेगम की मुमताज अली से शादी हुई।
मुमताज अली भी नारी सशक्तिकरण के समर्थक थे। उन्होंने दारुल उलूम देवबंद से शिक्षा प्राप्त की थी और वे सर सैयद अहमद खान के करीबी थे। एएमयू में उनके नाम पर एक हॉस्टल भी है।
पब्लिकेशन हाउस का हर काम करती थी मुहम्मदी बेगम
शादी के बाद, मुहम्मदी बेगम ने जल्दी ही पब्लिकेशन हाउस में प्रकाशन, संपादन और प्रूफरीडिंग का कार्य संभाला। उन्हें हिंदी, उर्दू, फारसी, अरबी और अंग्रेजी का ज्ञान था, जिससे वे पब्लिकेशन हाउस के लिए एक अमूल्य संपत्ति बन गईं। शादी के लगभग एक साल बाद, 1 जुलाई 1898 को उन्होंने ‘तहजीब-ए-निस्वान‘ नामक महिला विषयक साप्ताहिक पत्रिका का पहला संस्करण निकाला।
मुहम्मदी बेगम न केवल शायरी, कहानियों, महिला सुधारों और समसामयिक गद्य लेखन में सिद्धहस्त थीं, बल्कि उन्हें असली पहचान तब मिली जब साप्ताहिक पत्रिका ‘तहजीब-ए-निस्वान’ प्रकाशित हुई और वे उसकी संपादक बनीं।
समाज उस समय महिलाओं को ज्यादा अधिकार देने के मूड में नहीं था, इसलिए नारी अधिकारों की वकालत करने वाले व्यक्तियों, संस्थाओं या पत्रिकाओं को लोग आसानी से स्वीकार नहीं करते थे। बेगम इस पत्रिका की प्रतियां मुफ्त में बांटती थीं।
पांच साल की कड़ी मेहनत के बावजूद ‘तहजीब-ए-निस्वान’ का प्रसार केवल 450 प्रतियों तक ही सीमित रहा। इसके बावजूद उनका हौसला नहीं टूटा और वे नारी अधिकारों की बात करती रहीं। उन्होंने 1905 में महिलाओं के लिए एक और पत्रिका ‘मुशीर-ए-मदर’ प्रकाशित की, जिसे भी अच्छा प्रतिसाद नहीं मिला।
बेगम की पत्रिकाओं को समाज ने स्वीकार नहीं किया, लेकिन वे अपने जीवन में ऐसा ऐतिहासिक कार्य कर गईं कि उनकी महिला पत्रिकाओं में लिखे लेख नारी सशक्तिकरण के दस्तावेज बन गए। बेगम ने नारी अधिकारों पर एक किताब ‘हुकूक-ए-निस्वान’ भी लिखी थी। मुहम्मदी बेगम ने अपने पति मुमताज अली के साथ काम शुरू किया, जिन्होंने महिलाओं के अधिकारों पर जोर देने वाली किताब ‘हुकूक-ए-निस्वान’ लिखी थी। मुमताज दारुल उलूम, देवबंद से शिक्षित और लाहौर आधारित प्रकाशक थे।
‘तहजीब-ए-निस्वान’ का पहला अंक 1 जुलाई 1898 को प्रकाशित हुआ। इसका लक्ष्य महिलाओं का उत्थान था, और इसमें महिलाओं की विभिन्न समस्याओं और मुद्दों पर लेख प्रकाशित होते थे।
‘तहजीब-ए-निस्वान‘ महिलाओं के लिए विशेष रूप से प्रकाशित होने वाली पहली उर्दू पत्रिका नहीं थी। इससे पहले भी कई पत्रिकाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। इस क्रम में ‘रफीक-ए-निस्वान’ पहली उर्दू पत्रिका थी। 5 मार्च 1884 को एक ईसाई मिशनरी द्वारा लखनऊ से शुरू किया गया यह एक पाक्षिक पत्र था।
‘अख़बार-उन-निसा’ महिलाओं के लिए दूसरी उर्दू पत्रिका थी। प्रसिद्ध कोशकार और ‘फरहंग-ए-आसिफिया’ के संकलनकर्ता सैयद अहमद देहलवी ने इसे 1 अगस्त 1884 को दिल्ली से लॉन्च किया था। यह पत्रिका महीने में तीन बार प्रकाशित होती थी और महिलाओं के अधिकारों की वकालत करती थी, लेकिन 350 प्रतियों के सीमित प्रसार के कारण इसे अधिक समय तक चलाया नहीं जा सका।
मुहम्मदी बेगम की अन्य कृतियों में शामिल हैं: ‘आज कल’, ‘सफिया बेगम’, ‘चंदन हार’, ‘आदाब-ए-मुलाक़ात’, ‘रफीक़ अरोस’, ‘खानादारी’, ‘सुघढ़ बेटी’।
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मुहम्मदी बेगम ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में छात्रवृत्ति भी पाई
1930 के दशक की शुरुआत में, हैदराबाद की रियासत से इंग्लैंड की यात्रा करने वाली एक युवा मुस्लिम महिला मुहम्मदी बेगम ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में छात्रवृत्ति प्राप्त की, जिससे वे उन चंद भारतीय मुस्लिम महिलाओं में से एक बन गईं जिन्हें यह अवसर मिला।
एक गहरी पर्यवेक्षक के रूप में, उन्होंने एक डायरी लिखी जिसमें उस समय के राजनीतिक घटनाक्रमों का उल्लेख है, जब जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रतिस्पर्धा करने वाले राजनीतिक विचारों ने यूरोप में लोगों की कल्पना को जकड़ लिया था। यूरोप से दूर, ब्रिटिश साम्राज्य के उपनिवेशों में स्वतंत्रता के लिए आंदोलन भी गति पकड़ रहा था।
इस युग को पहली बार दर्शाते हुए, हैदराबाद से एक लंबी यात्रा के बाद, मुहम्मदी बेगम द्वारा विदेश में लिखी गई डायरी हमारे सामने आती है, जिसका मूल उर्दू में अनुवाद किया गया है। यह उनके लिए एक खोज की यात्रा थी, जिसमें उन्हें एक दूरदर्शी माँ और एक सहायक पति का समर्थन मिला। एक विदेशी भूमि में अपने रोजमर्रा के जीवन का वर्णन करना उनके लिए एक नया अनुभव था, जिसे उन्होंने आत्मविश्वास के साथ संभाला।
जिज्ञासा से भरी, नए लोगों से मिलना और बदलावों को स्वीकार करना, जैसे कि उनके बच्चे का जन्म या पढ़ाई के साथ घर के काम को संतुलित करना, उनके जीवन का हिस्सा था। वे अपने नए परिवेश में सहज थीं और चर्चा का स्वागत करती थीं, चाहे वह साथी शिक्षाविदों के साथ गांधीवादी दर्शन पर हो, इकबाल की आयतें पढ़ने पर या ऑक्सफोर्ड यूनियन में महिलाओं की भागीदारी पर अपने शिक्षक से प्रश्न पूछना हो।
मुहम्मदी बेगम मात्र 30 वर्ष तक जीवित रहीं। अपने इस छोटे से जीवनकाल में उन्होंने तीस किताबें लिखीं, जिनमें “शरीफ़ बेटी” भी शामिल है, जो बच्चों की तयशुदा शादियों के खतरों पर केंद्रित है।
उनके बेटे इम्तियाज़ अली ताज एक मशहूर नाटककार थे। उनकी कृति ‘अनारकली’ पर फिल्म ‘मुग़ल-ए-आज़म’ बनी।
संदर्भ
Muhammadi Begum, A Long Way from Hyderabad, Diary of a Young Muslim Woman in 1930s Britain, Primus Books, 2022
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में