जिंदगी के नए तकाज़े और सामाजिक त्योहार
गजानन माधव ‘मुक्तिबोध’ (1917–1964) हिंदी साहित्य के प्रमुख कवि, आलोचक और कथाकार थे। वह प्रगतिशील लेखक आंदोलन के अग्रणी साहित्यकारों में से एक थे, जिनकी रचनाओं में सामाजिक अन्याय, मानसिक पीड़ा और व्यक्तित्व के द्वंद्व जैसे विषयों की गहन अभिव्यक्ति होती है।
आजीवन ग़रीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी। आज गजानन माधव ‘मुक्तिबोध की पुण्यतिथि है। नया खून में 18 सितम्बर, 1953 में उनका प्रकाशित लेख जिसमें समाज की वास्तविकताओं का चित्रण करते हुए उन्होंने मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाया है, जिसमें संवेदनशीलता और सहानुभूति की गहरी भावना भी झलकती है।
एक ही शहर में दो संस्कृतियाँ होती हैं—एक गरीब की और दूसरी अमीर की
किसी जमाने में मैंने एडिनबरा (स्कॉटलैंड, ब्रिटेन) के बारे में किसी प्रसिद्ध अंग्रेज़ी निबंधकार का एक लेख पढ़ा था। अपने नगर के विकास के संदर्भ में लिखते हुए उसने कहा था कि जो हिस्सा पुराना हो जाता है (एक समय में वह नया था और उसमें बड़े-बड़े सरदार और धनी लोग रहते थे), वहां अब गरीब लोग रहते हैं, और धनियों ने अपने मोहल्ले अलग बसा लिए हैं। जो मोहल्ला बहुत पुराना पड़ जाता है, वह गरीबों के हिस्से आता है, और नया मोहल्ला धनियों के पास जाता है। यह प्रक्रिया स्पष्ट होती है लगभग पचास सालों के भीतर, लेकिन यह अनवरत चलती रहती है।
हमारे नागपुर का भी यही हाल है। जो मोहल्ले आज वीरान हो गए हैं, वहां गरीब लोग रहते हैं। जो मोहल्ले पुराने या आधे पुराने हैं, वहां गरीब मध्यवर्ग रहता है। और पहले महायुद्ध के बाद, दूसरे विश्वयुद्ध के बाद जो नए धनवान बने, उन्होंने धनी शिक्षित मध्यवर्ग के लिए नए मोहल्ले बना लिए हैं, जैसे रामदास पेठ, न्यू कॉलोनी। एडिनबरा का नियम हर जगह लागू होता दिखता है।
कहने का सार यह है कि आजकल के शहरों में नई बस्ती और पुरानी बस्ती का विभाजन हर जगह देखा जा सकता है, चाहे वह इलाहाबाद हो या दिल्ली। यह नया और पुराना का अंतर वास्तव में गरीब और अमीर के बीच का अंतर है। एक ही शहर में दो संस्कृतियाँ होती हैं—एक गरीब की और दूसरी अमीर की। एक ही शहर में दो राष्ट्र हैं। एक राष्ट्र गरीब है, जो काम करता है, मजदूरी करता है, रिक्शा चलाता है, क्लर्की करता है, और दूसरा राष्ट्र धनवान है, जो उद्योगों में पैसा लगाता है, चुनाव लड़ता है, अखबार निकालता है और सरकार चलाता है।
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हर शहर में आधुनिकता और परंपराओं को मानसे वाले भी रहते है
नागपुर जैसे शहर को बाहर से देखने पर लोग मानते हैं कि यह एक आधुनिक, सुशिक्षित शहर होगा। लेकिन जुम्मा दरवाजा, महल इतवारा चौक और उनके पीछे की गलियों में घूमने पर आपको गरीबों की संस्कृति के कई दृश्य देखने को मिलेंगे। उदाहरण के लिए, अगर पुराने शहर में चेचक फैली हो और मौतें हो रही हों, तो मराठी कुम्हारों, कुनबियों, बुनकरों और महारों की औरतें एक चमचमाती थाली में कुछ पवित्र पानी, फूल और चंदन लेकर माता की कृपा के लिए ओवी छंद गाती हुई सड़कों पर निकलती हैं।
इसे देखकर एक ओर तो उनके अज्ञान पर ग्लानि होती है, तो दूसरी ओर उनकी विवशता और दुख देखकर मन द्रवित हो जाता है। आखिर वे क्या करें? देवी-देवताओं को न मनाएं? उनके पास, सच कहूं तो, अपने दुख को भूलने का और कोई रास्ता नहीं है। उनके मोहल्ले गंदे हैं, जहाँ गटर नहीं हैं। म्युनिसिपैलिटी द्वारा बनाए गए शौचालयों में लोग जाते हैं और गलियों में बच्चे खुले में शौच करते हैं। सरकारी अस्पतालों में दवाओं के बदले पानी मिलता है। तो वे क्या करें? मौतें लगातार होती हैं। बच्चों की मौतें तो बहुत सामान्य हैं।
और तब, एक माँ का दिल किसी ईश्वर की कृपा के लिए गाना गाने लगता है। ये औरतें, जिनके चेहरों पर स्त्रीत्व का कोई आकर्षण नहीं है, केवल जीवन के दुख का पीला आवरण पड़ा हुआ है, सड़कों और गलियों में गाती हुई निकलती हैं। यह उनकी संस्कृति है, हमारी नहीं।
नागपुर के नौजवान भी अद्भुत हैं। बुधवारी बाजार में जब एक से मुलाकात हुई, तो बड़ा मजा आया। वह तरकारी बेच रहा था। लेकिन उसके पास बस एक बड़ा कद्दू और थोड़ा धनिया था। किसी जमाने में उसने मुझे जबलपुर में देखा था। बस, इतनी-सी बात हमारे आपसी आनंद के लिए काफी थी। अपनी जिंदगी की खूबी बताते हुए उसने बड़े मनमौजीपन से कहा, ‘क्या है, बाबूजी, इसी तरह सुबह-शाम काम करते-करते बीच ही में खट से…!’ उसका मतलब हार्ट-फेल से था।
मैंने उसके चेहरे की तरफ ध्यान से देखा। उस पर निराशा की कोई छाया नहीं थी। उसकी जगह उसके चेहरे पर एक उद्दाम, सुनहरा आनंद झलक रहा था। मैंने कहा, ‘नहीं भाई, अच्छा जमाना भी आएगा। घर में बाल-बच्चे भी होंगे?’ उसने हंसते हुए कहा, ‘कौन करता है बाबूजी, शादी ऐसे जमाने में! अपने ही भूखों मर रहे हैं, उनको भी भूखों मारने का पाप कौन करे?’
बरबस दो निष्कर्ष सामने आए। पहला, उस कद्दूवाले ने अपनी जिंदगी पर खूब सोचा था। उसकी जिंदगी के प्रति जो दृष्टिकोण था, उसमें भयानक यथार्थ की स्वीकृति थी, लेकिन साथ ही उसमें मस्ती कम न करने की दृढ़ता भी थी। उसकी इसी भीतरी शक्ति का प्रफुल्ल रूप उसके चेहरे पर मनमौजी आनंद बनकर झलक रहा था।
दूसरा निष्कर्ष यह था कि वह व्यक्ति बहुत कुछ देख चुका था। उसने जीवन के कई क्षितिज देखे थे, कई सुबहें और शामें देखी थीं। वह कद्दूवाला एक घुमक्कड़ प्राणी होना चाहिए और उसके पैरों पर कई गाँवों की धूल होनी चाहिए!
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सामाजिक जरूरतों के हिसाब से सांस्कृतिक कार्यक्रम तय होने चाहिए
शहर में ऐसे लोग कम होते हैं। फिर भी, मुसीबतों की काली छायाओं के बीच कुछ सुनहरे क्षण भी होते हैं जो उन्होंने खुद पैदा किए होते हैं। रात के डेढ़ बजे, तिलक पुतले के पास जब रिक्शेवालों का हुजूम एक-दूसरे से गाली-गलौज करते हुए लड़ता और ठहाके लगाता है, तो हंसी के फव्वारे फूटते हैं। बाबूजियों की दुनिया सो चुकी होती है, लेकिन रिक्शेवालों की दुनिया जाग रही होती है।
इन दृश्यों से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि जनता के जीवन में सुख-शांति है। होटलों में फटी चड्डी पहने लड़कों के पीले चेहरे इस बात का सबूत हैं कि स्थिति भयानक है। कॉटन मार्केट के पास एक गंदे होटल में जब मैं चाय पीने गया, तो एक लड़का जिसकी आँखों में पीलिया था, मेरी चाय लाया। उसकी हालत देखकर मुझसे चाय नहीं पी गई। होटल मालिक से जब मैंने कहा, तो उसने मेरी बात ऐसे सुनी, जैसे कोई बेकार की बात हो। उसने रुखाई से कहा, ‘हाँ, अस्पताल भेज दूंगा।’ पर शायद उसे पता था कि वह लड़का अगर बीमार पड़ा, तो उसकी माँ के पास जो चार रुपए माहवार जाते हैं, वे भी बंद हो जाएंगे।
यह एक सच्ची घटना है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इन अंधेरी गलियों में जिंदगी कितनी विद्रूप और कठिनाइयों से भरी है। अतः, जब ये लोग अपने अखाड़े के अस्त्रों का जुलूस निकालते हैं और ढोलक की धुन पर लाठियों के करतब दिखाते हैं, तो देखनेवाले सिहर उठते हैं। यह उनका असांस्कृतिक रूप हो सकता है, लेकिन इसे समझने और सुधारने की आवश्यकता है।
सरकार के अधीन आते ही गणेशोत्सव, जो एक समय राष्ट्रीय-सामाजिक और सांस्कृतिक त्योहार था, अब इसमें लाउडस्पीकर और सस्ते सिनेमा गीतों का शोर है। इसका पुराना सामाजिक सत्य अब नष्ट हो गया है।गणेशोत्सव के वर्तमान स्वरूप से स्पष्ट होता है कि इसे नए युग के अनुरूप बदलने की आवश्यकता है। इस उत्सव की अवधि को घटाकर, इसे एक नए सांस्कृतिक आंदोलन के रूप में बदलने की आवश्यकता है।
अगर हमारे मध्यवर्गीय लोग इस कार्य में सफल होते हैं, तो निस्संदेह अन्य वर्ग भी इस उदाहरण का अनुसरण करेंगे। आवश्यकता इस बात की है कि हम नई सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार अपने सांस्कृतिक कार्यक्रमों में परिवर्तन करें।
संदर्भ
संपादन वसंत त्रिपाठी, विचार का आईना. मुक्तिबोध, लोकभारती प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में