स्वतंत्रता संग्राम का विस्मृत सूरमा ठाकुर रणमत सिंह
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भारतीय स्वतंत्रता का प्रथम संघर्ष कहे जाने वाले 1857 के संग्राम के दौरान अंग्रेजों को खदेड़ने की घटनाएँ केवल दिल्ली, मेरठ या कानपुर के आसपास ही घटित नहीं हुई थीं, बल्कि मध्यप्रदेश के बघेलखण्ड़ में सुदूर क्षेत्र में भी कई राजघराने व आम लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। ऐसे कई क्रांतिकारियों के नाम इतिहास के पन्नों में उतने चर्चित नहीं हुए, जितना उनका योगदान था। जिन्होंने अंग्रेजी सरकार को भारत से खदेड़ने और स्वाधीनता के लिये संघर्ष किया है।
1857 की क्रान्ति का प्रभाव भारत की अन्य इकाइयों की भाँति बघेलखण्ड पर भी पड़ा था। बघेलखण्ड में विद्रोह का स्वरूप स्थानीय परिस्थितियों के कारण ब्रिटिश भारत से कुछ भिन्न अवश्य था, किन्तु उनका उद्देश्य भी भारत को अँग्रेज़ों की दासता से मुक्त कराना था।
बघेलखण्ड के स्थानों, जिन पर विद्रोह का विशेष प्रभाव पड़ा उनमें रीवा, बरौंधा, डभौरा, बिलासपुर और जबलपुर के मध्यवर्ती भाग मैहर, सोहागपुर और विजयराघवगढ़ आदि प्रमुख थे। 1857 में आजादी की पहली लड़ाई में सतना जिले के मनकहरी ग्राम निवासी ठाकुर रणमतसिंह ने भी अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। वह महाराजा रघुराजसिंह के समकालीन थे। महाराजा इन्हें काकू कहा करते थे। उन्हें रीवा की सेना में सरदार का स्थान मिला था ।
कौन थे रणमत सिंह ?
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रणमत सिंह बघेलखण्ड की कोठी जागीर के ग्राम मनकहरी के ठाकुर महीपत सिंह के पुत्र थे। उनके दादा का नाम खुमान सिंह था। प्रारम्भ से ही रणमत की रुचि सैन्य गतिविधियों में थी। वह अपने सैन्य प्रदर्शन के लिए लालायित रहते थे।उनके पूर्वजों को कोठी रियासत की ओर से एक हजार रुपये सालाना आय की जागीर लगी हुई थी। मनकहरी की गढ़ी का निर्माण रणमत सिंह के पूर्वजों ने ही कराया था। उनके छोटे भाई जबर सिंह के दो पुत्र अजीत सिंह तथा दद्दन सिंह थे।
कोठी जागीर रीवा रियासत के अन्तर्गत थी। कोठी जागीर के पड़ोस में रीवा रियासत थी, जो कोठी जागीर से काफी बड़ी थी। रीवा रियासत की सेना में प्रवेश पाने में रणमत सफल न हो सके तो माधवगढ़ के रामराज सिंह ने उन्हें सहायता का आश्वासन दिया। कुछ दिन के बाद वह पन्ना रियासत की सेना में नौकरी पाने की आस में गये और उन्हें वहाँ नौकरी मिल गई। वहाँ पर वह जागीरदार भी थे। पन्ना रियासत में उसके पूर्वजों को सवा लाख रुपये सालाना की जागीर मिली हुई थी। पन्ना तथा रीवा रियासत में कुछ मतभेद बढ़ जाने के कारण युद्ध की नौबत आ गई। यह ‘घटवेलाव युद्ध‘के नाम से जाना जाता है।
रीवा रियासत का राजा बघेल था और बुन्देला पन्ना रियासत का राजा था। रणमत सिंह बघेल वंश के थे। इसलिये उन्होंने बघेलों के खिलाफ पन्ना रियासत की ओर से युद्ध करना उचित नहीं समझा और पन्ना रियासत की सेना से नौकरी छोड़ दी। जिसके बाद पन्ना रियासत ने रणमत को सवा लाख रुपये सालाना आय की जागीर से बेदखल कर दिया। जिसके बाद पन्ना के राजा से बदला लेने के लिए रणमत ने ठान ली।
पन्ना रियासत से बेदखल होने के बाद रणमत चरखारी आ गये। चरखारी के राजा ने उनसे सहयोग मांगा, लेकिन राजा द्वारा ब्रिटिश सरकार को सहायता दिए जाने के कारण रणमत हाथ मिलाना उचित नहीं समझे। जबकि राजा ने चरखारी रियासत से एक लाख रुपये सालाना जागीर देने का प्रस्ताव रखा था। राजा के प्रस्ताव को ठुकराने के बाद चरखारी रियासत से रणमत सिंह निकाल दिये गये। अब वह सागर आ गये। यहां ब्रिटिश छावनी में उन्हें लैफ्टिनेंट बनाया गया। इसके बाद उनके कार्य को देखते हुए कैप्टन बनाकर नौगाँव छावनी भेज दिया गया।
रणमत सिंह ने अपनी सवा लाख रूपये सालाना की जागीर छोड़ दी
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रीवा रियासत के प्रति अपनी वफादारी के लिए रणमत सिंह ने अपनी सवा लाख रूपये सालाना की जागीर छोड़ दी थी। उसी रीवा राजा के संकेत पर उनके एक अधिकारी ने रणमत सिंह को स्वागत के बहाने बुलाया और पकड़कर अँग्रेज़ों के हवाले कर दिया।
रीवा रियासत की एक बड़ी विशेषता है, जो पूरे भारत से अलग है। वह यह कि देश की तमाम राजनैतिक उथल-पुथल का इस रियासत पर कोई असर नहीं पड़ा। भारत की केंद्रीय सत्ता पर अँग्रेज़ रहे हों, मुग़ल रहे हों, लोदी, तुगलक या गुलाम वंश रहा, किन्तु रीवा के राज परिवार ने अपनी सत्ता को हमेशा सलामत रखा। इसके लिए भले ही नर्तकियां भेंट करनी पड़ीं, अथवा अपने ही किसी प्रियजन को पकड़ कर अँग्रेज़ों के हवाले करना पड़ा। रणमत सिंह की गिरफ़्तारी भी इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा थी।
यह बात 1857 की है। पन्ना और रीवा अलग-अलग रियासतें रही हैं, तब भी थीं, और आज भी दोनों राजघराने के वंशज मौजूद हैं। रणमत सिंह की जागीर पन्ना रियासत के अंतर्गत आती थी। रणमत सिंह मूलतः बघेल क्षत्रिय थे । इतिहास में बघेल अपने शौर्य और वफादारी के लिए मशहूर रहे हैं। इसी वफादारी के कारण पन्ना रियासत से रणमत सिंह के पूर्वजों को सवा लाख सालाना की कोठी जागीर में मिली थी। इसी जागीर के अंतर्गत ग्राम मनकहरी रणमत सिंह के पिता को दिया गया था। रणमत सिंह का जन्म इसी ग्राम में हुआ।
पन्ना का राज परिवार बघेल नहीं था जबकि रीवा राज परिवार बघेल था। कहते हैं, रणमत सिंह रीवा राज परिवार के साथ हमेशा रहा। इसी बीच पन्ना और रीवा रियासतों के बीच मन मुटाव हो गया। दोनों रियासतों ने युद्ध की तैयारियाँ शुरू कीं। यह घटना 1850 के आसपास की है।
यह बात अलग है कि अँग्रेज़ों की मध्यस्थता के कारण युद्ध नहीं हो पाया। लेकिन युद्ध की तैयारियों के बीच रणमत सिंह को यह बात अच्छी नहीं लगी कि वे अपने ही पूर्वजों के वंशज रीवा के बघेलों के विरूद्ध हथियार उठाएँ । रणमत सिंह जागीर छोड़कर पन्ना रियासत से चले गए । पन्ना रियासत ने उनकी जागीर ज़ब्त कर ली। बाद में दोनों रियासतों के समझौते के बाद पन्ना राजा के आग्रह पर रणमत सिंह को रीवा रियासत में जगह नहीं मिली।
वह अपने कुछ साथियों के साथ सागर आ गए। जहाँ वे अँग्रेज़ी सेना में लेफ्टिनेंट हो गए। कुछ दिनों बाद उन्हें पदोन्नति देकर नौगाँव भेज दिया गया। जहाँ उन्होंने कैप्टन के रूप में पदभार सँभाल लिया।
1857 का दौर में रणमत सिंह का संघर्ष
1857 में बिहार के बाबू कुंवरसिंह और झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अँग्रेज़ों के विरुद्ध भारी मारकाट मचाई। लेकिन दोनों शक्तियाँ मिल नहीं पाई क्योंकि बघेलखण्ड में अँग्रेज़ दोनों शक्तियों को मिलने नहीं देने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहे थे।
महाराजा रघुराजसिंह पर भी अँग्रेज़ों की कड़ी नज़र थी। ठाकुर रणमतसिंह रीवा और पन्ना के बीच का क्षेत्र बुंदेलों से मुक्त कराने में उभरकर सामने आए। अँग्रेज़ों के विरुद्ध गुस्सा फूटा और क्रान्ति ने जोर पकड़ा। क्रांति का सर्वाधिक प्रभाव बघेलखण्ड में देखा गया।
कैप्टन रणमत सिंह की पलटन को आदेश मिला कि वह क्रान्तिकारी बख़्तबली और मर्दन सिंह को पकड़ने का अभियान चलाएँ । रणमत सिंह ने यह अभियान नहीं चलाया बल्कि वह दिखावे के लिए यहाँ-वहाँ डोलते रहे। यह बात अँग्रेज़ों को पता चल गई। उन्होंने रणमत सिंह और उनके साथियों को बर्खास्त कर दिया और गिरफ़्तारी आदेश जारी कर दिए ।
अँग्रेज फौज में रहते हुए रणमत सिंह ने लगभग 300 लोगों की एक टुकड़ी बना ली थी। बर्खास्त होने के बाद यह टोली खुलकर क्रान्ति में शामिल हो गई। इलाका रणमत सिंह का देखा हुआ था। लिहाज़ा उन्हें पकड़ना नामुमकिन हो गया था।
जब 1857 की क्रान्ति समाप्त हो चुकी थी, महारानी लक्ष्मीबाई शहीद हो चुकी थीं, सेना का रुख़ पूरब की तरफ़ कर दिया गया। 1858 में बांदा में एक सैन्य दल ठाकुर रणमत सिंह का पीछा करने लगा।
रणमत सिंह का क्रान्ति क्षेत्र अकेला बघेलखण्ड तक नहीं रहा। उन्होंने झाँसी से जबलपुर, रायपुर, नागपुर तक धावा किया। उनके साथ सैनिक जुड़ते रहे, टूटते रहे लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। उधर ठाकुर रणमत सिंह साहब पर 2000 रु. का इनाम घोषित किया गया। उन्होंने डभौरा के ज़मींदार रणजीत राय दीक्षित के गढ़ में शरण ली।
वहाँ भी अंग्रेज़ी सेना ने हमला बोल दिया। वह विवश होकर सोहागपुर गए। वहाँ भी अँग्रेज़ों ने पीछा किया। जब ठाकुर रणमतसिंह क्योटी की गढ़ी में छिपे हुए थे, अँग्रेज़ी सेना की एक टुकड़ी ने रीवा की सेना की सहायता से उन्हें घेर लिया। वह वहाँ से भाग निकलने में सफल हो गए। रणमत सिंह के मुख्य साथी लाल श्यामशाह सिंह, धीर सिंह, पंजाब सिंह, रंजीतराय दीक्षित, सहमत अली, लोचन सिंह आदि प्रमुख थे।
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जब अँग्रेज़ों ने रणमत सिंह को पकड़ने के लिए अंतिम चाल चली
अँग्रेज़ यह बात जानते थे कि रणमत सिंह और रीवा राज परिवार एक वंश के हैं। लिहाज़ा उन्होंने रीवा राजा से सीधी बात नहीं की। उनके दरबार में संपर्क निकाला । रीवा फोर्स में कंपनी कमान्डेन्ट बलदेव सिंह का भाई हीरा सिंह रीवा राजा का अति विश्वास पात्र था।
अँग्रेज़ों ने इसी सूत्र को पकड़ा। बलदेव सिंह के मार्फत हीरा सिंह से बात की गई। अँग्रेज़ों के प्रलोभन में हीरा सिंह आ गया। उसने पहले राजा से बात की। उनकी सहमति लेकर रणमत सिंह से संपर्क साधा रणमत सिंह को बताया गया कि रीवा राजा ने अँग्रेज़ों से बात कर ली है। तुम्हारा रीवा में स्वागत होगा तथा जागीर मिलेगी। लेकिन रणमत सिंह ने नहीं माना और इधर रीवा महाराज पर लगातार अँग्रेज़ों द्वारा दबाव बढ़ता ही जा रहा था।
अँग्रेज़ों ने रणमत सिंह को पकड़ने के लिए अंतिम चाल चली। रीवा के महाराजा पर दबाव डाला गया। उन्होंने पत्र लिखकर ठाकुर रणमतसिंह को बुलवाया। महाराजा के बुलाने पर वे गुप्त मार्ग से राजमहल में प्रविष्ट हुए और महाराजा से भेंट की। महाराजा से भेंट होने पर रणमत सिंह के सामने आत्मसमर्पण का विकल्प रखा।
इसके बाद जब रणमतसिंह अपने मित्र विजय शंकर नाग के घर जालपा देवी मंदिर के तहखाने में विश्राम कर रहे थे, संकेत पर पॉलिटिकल एजेंट को यह सूचना दी गई। रणमतसिंह गिरफ़्तार कर लिए गए। रात भर इस कोठी के आसपास तगड़ा पहरा रहा।
हालाँकि क्रान्ति के दमन के बाद वर्ष 1859 में रणमत सिंह को कुछ करने के लिए ज्यादा नहीं रह गया था, फिर भी अँग्रेज़ उन्हें पकड़कर ख़त्म करना चाहते थे। अँग्रेज़ों की मंशा केवल गद्दारी के कारण पूरी हो सकी, अँग्रेज़ों की वीरता के कारण नहीं। उन्हें सवेरे गिरफ़्तार करके बांदा भेज दिया गया।
अँग्रेज़ों ने यह भ्रम फैलाया कि रणमत सिंह को आगरा भेज जा रहा है किंतु बांदा में 1 अगस्त 1859 को उन्हें फाँसी दे दी गई। ठाकुर रणमत सिंह के बलिदान की गाथा बघेलखण्ड बुन्देल खण्ड के लोकगीतों में अभी भी गाई जाती है।
संदर्भ
मध्यांचल के विस्मृत सूरमा, लेखक – डॉं. सुरेश मिश्र , प्रकाशन -राष्ट्रीय पुस्तक न्यास भारत
मध्यप्रदेश के रणबाँकुरे, लेखक – डॉं. सुरेश मिश्र, भगवानदास श्रीवास्तव, प्रकाशन स्वराज संस्थान संचालनालय संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश
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जनता का इतिहास, जनता की भाषा में