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इतिहास के पन्नों में दबकर रह गयी बुंदेला नायक मधुकर शाह की वीर गाथा

भारत के स्वतंत्रता संग्राम के ऐसे अनगिनत अध्याय हैं, जो इतिहास के पन्नों में अपनी जगह नहीं बना सके। देश के दूर-दराज़ हिस्सों में साधारण जनता ने अपने दम पर विदेशी शासकों से कैसे संघर्ष किया, क्या-क्या सहा, उसे दर्ज करने का उस समय न किसी के पास अवसर था और न ही इच्छा। लेकिन पीढ़ियों से चली आ रही लोककथाओं और किंवदंतियों में इतिहास के ऐसे अदेखे सूत्र मिल जाते हैं।

 

1857 के स्वतंत्रता संग्राम से पहले, 1842 में बुंदेलखंड की त्रस्त जनता को अंग्रेज़ों के चंगुल से छुड़ाने के लिए मधुकर शाह ने बहादुर बुंदेला ठाकुरों को संगठित करके बुंदेलखंड की आज़ादी का बिगुल फूँक दिया था। मधुकर शाह बुंदेला की ललकार से अंग्रेज़ों के पसीने छूट गए थे। बाद में, बड़ी चालाकी से अंग्रेज़ों ने उन्हें उनके ही लोगों से पकड़वाकर, सागर की जनता के सामने फांसी दे दी। इस विद्रोह को अंग्रेज़ों ने ‘बुंदेला विद्रोह’ का नाम दिया।

 

 

 

कौन थे मधुकर शाह

मधुकर शाह
मधुकर शाह

 

मधुकर शाह बुंदेलखंड केसरी महाराजा छत्रसाल के वंशज और सागर राज्य की नारहट जागीर के जागीरदार थे। नारहट भौगोलिक रूप से सागर – ललितपुर के मध्य में स्थित है। नारहट वर्तमान में उत्तर प्रदेश के महरौनी क्षेत्र से प्रभावित था ।

महाराज छत्रसाल ने यह क्षेत्र पेशवा बाजीराव द्वितीय को दे दिया था। 1802 में मराठों ने अंग्रेजों से ‘बेसिन की संधि’ की। लेकिन बुंदेलखंड के राजाओं और जागीरदारों ने उस संधि का विरोध किया। इनमें नारहट के मधुकर शाहचंद्रपुर के जवाहर सिंह गुना के गनेशजू, हीरापुर के हृदयशाह लोधी, ढिल्लनशाह, जैतपुर के राजा परीक्षित तथा चिरगाँव के राजा बरुत सिंह शामिल थे।

 

अंग्रेजों ने राठ पनवाड़ी के पास कैथा में अपनी छावनी बना रखी थी। वहाँ से वह बुंदेलखंड में गतिविधियाँ चला रहे थे। इधर बुंदेलखंड के राजा और जागीरदारों ने अंग्रेजों की नीतियों का विरोध जारी रखा, उधर अंग्रेज अपना दमनकारी शिकंजा कसने में लगे थे। अंग्रेजों ने जमीन पर करों की दरें बीस गुना बढ़ा दीं तथा जमा न करने की स्थिति में चल-अचल संपत्ति कुर्क करने लगे। नारहट के जागीरदार मधुकर शाह ने अंग्रेजों का विरोध किया तथा कर जमा नहीं किया।

 


स्वतंत्रता संग्राम का विस्मृत सूरमा ठाकुर रणमत सिंह


 

मधुकर शाह पर दीवानी अदालत में डिक्री

 

अंग्रेजों ने 1842 में मधुकर शाह के विरुद्ध सागर की दीवानी अदालत में डिक्री कर दी तथा एक एजेंट सैनिकों की पूरी टुकड़ी लेकर उनकी कुर्की करने पहुँच गया। क्षेत्र में मुनादी कराई गई कि जो संपत्ति नारहट में मधुकर शाह की है, उसे नीलाम किया जा रहा है, जो खरीदना चाहे, वह खरीद ले।

 

समाचार जब मधुकर शाह ने सुना तो वह आग-बबूला हो गए। उन्होंने वसूली एजेंट एवं उसकी टुकड़ी के सदस्यों को घेरकर जमकर पिटवाया। झगड़ा यहाँ तक बढ़ा कि कर वसूली टुकड़ी के तीन सदस्य भी मारे गए।अंग्रेज पनवाड़ी के पास कैंथा नामक स्थान पर उत्सव मना रहे थे। कैंथा के उत्सव में पहुँची इस सूचना ने आग में घी का काम किया। उन्होंने मधुकर शाह दरबार की नर्तकी को उठवा लिया। मधुकर शाह ने कैंथा के उत्सव पर धावा बोलकर उपस्थित सभी अंग्रेजों तथा उनके साथी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कैंथा छावनी को लूट लिया।

 

इस खबर से अंग्रेज मधुकर शाह पर बहुत क्रोधित हुए और उनको गिरफ्तार करने की योजना बनाने लगे। मधुकर शाह भी प्रबल उत्साह के साथ अंग्रेजों से लोहा लेने की ठान चुके थे। मधुकर शाह के भाई चंद्रपुर के जागीरदार जवाहर सिंह ने भी मधुकर शाह के पदचिह्नों का अनुसरण किया तथा मालगुजारी वसूलने के विरोध में युद्ध छेड़ दिया। अंग्रेजों ने दमन के लिए पूरी शक्ति झोंक दी। बदले में जवाहर सिंह ने वहाँ आकर समस्त अंग्रेज सैनिकों को मार डाला।

 

मधुकर शाह, जवाहर सिंह, नरसिंहपुर के डेलनशाह, सुआताल के राजा रणजीत सिंह, हीरापुर के नरेश हृदयशाह, गणेशजू आदि बुंदेलखंड के राजा और जागीरदारों ने एकजुट होकर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उनके साथ बुंदेलखंड अंचल के लोधी, ठाकुर, अहीर, गोंड सरदार भी एकजुट हो गए। मधुकर शाह ने मालथौन पर आक्रमण कर अंग्रेजी खजाना लूट लिया तथा सैनिकों को मार डाला।

 

इस विजय ने मधुकर शाह का उत्साह और अधिक बढ़ा दिया। उन्होंने खिमलासा के दुर्ग पर आक्रमण कर उसे अपने कब्जे में कर लिया। इसके बाद खुरई को जीतकर उन्होंने अंग्रेजी कैंप को पूरी तरह नष्ट कर दिया और जो बच गए, वे जान बचाकर वहाँ से भाग खड़े हुए।


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 मधुकर शाह के नेतृत्व में बुंदेलखंड का संघर्ष 

 

1842 में हुए विद्रोह से संबंधित एक पेंटिंग
1842 में हुए विद्रोह से संबंधित एक पेंटिंग

 

डेलनशाह ने चाँवर पाठा पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। सुआताल के राजा रणजीत सिंह ने देवरी दुर्ग, नरियावली और बिनैका में भी कब्जा कर भारतीय ध्वज लहरा दिया। हीरापुर के राजा हृदयशाह तेजगढ़ के दुर्ग पर धावा बोल अपने कब्जे में ले लिया।

 

मधुकर शाह के नेतृत्व में पूरा का पूरा बुंदेलखंड अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष के लिए खड़ा हो गया। मधुकर शाह ने धमौनी पर चढ़ाई की, खजाना लूटा और अंग्रेज सैनिकों को मार डाला। इस प्रकार सागर छावनी के चारों ओर बुंदेली वीरों ने अंग्रेजों को लगभग नेस्तनाबूद कर दिया।

 

इधर जैतपुर के राजा परीक्षित तथा उनकी रानी गजमाला देशपथ आदि अंग्रेजों जूझ रहे थे । परीक्षित के ससुर, टटम के राजा राय बहादुर प्राण सिंह भी झुमर से सेना लेकर मदद करने चल दिए। महोबा और ज्योराह के बीच भीषण युद्ध हुआ। मधुकर शाह ने प्राणसिंह की सहायता की तथा अंग्रेजी सेना को तबाह कर डाला। राजा परीक्षित, रानी गजमाला, दीवान देशपथ तथा मधुकर शाह ने मिलकर मझगुवाँ और बमीठा अंग्रेजों से छीन लिया।

बारीगढ़ में पुनः युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों की हार हुई, बहुत से सैनिक मारे गए तथा जो बचे, वह प्राण बचाकर भागे । मधुकर शाह नारहट वापस आ गए। संपूर्ण मध्य भारत में स्वतंत्रता संघर्ष की आग फैल गई। अंग्रेज इसे साम, दाम, दंड और भेद से शांत करने में लगे रहे। इसी के तहत फ्रेजर ने राव विजयबहादुर सिंह को जेल से मुक्त कर दिया, लेकिन मधुकर शाह तो क्रांति के पथ पर बहुत आगे बढ़ चुके थे, जहाँ से अब लौटना आसान नहीं था । ललितपुर और झाँसी के जंगलों में रोज मधुकर शाह की फौज एवं अंग्रेजी फौज की मुठभेड़ होने लगी। अंग्रेजों ने उनके ऊपर भारी इनाम की राशि घोषित कर दी और वे उनका बराबर पीछा करते रहे।

 

अंग्रेज मधुकर शाह को घेरने का ताना-बाना बुन रहे थे, किंतु उनसे प्रत्यक्ष युद्ध करने का साहस नहीं कर पा थे। अंग्रेजों ने कूटनीति का सहारा लिया और मधुकर शाह के पीछे गुप्तचर लगाकर घोषणा की कि जो भी मधुकर शाह को गिरफ्तार करवाएगा, उसे नकद इनाम तथा जागीर दी जाएगी।

 

मधुकर शाह जीत की खुशी मनाने अपनी बहन के घर कुलगवाँ गए। ललितपुर के अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर हैमिल्टन को 23 जनवरी, 1844 को एक देशद्रोही ने इसकी सूचना दे दी। इस सूचना पर उसने कुलगवाँ पर गुप्त रूप से घेरा डाल दिया। मधुकर शाह बहन के घर पर भोजन करके सोए हुए थे। 24 जनवरी, 1844 को मधुकर शाह को गिरफ्तार कर लिया गया। 28 जनवरी, 1844 को उन्हें डिप्टी कमिश्नर, सागर के समक्ष उपस्थित किया गया।

 

अंग्रेज मधुकर शाह से इतना भयाक्रांत थे कि उन पर मुकदमा चलाने का नाटक किया गया। अंततः केवल 21 वर्ष की आयु में सागर की खुली जेल में उन्हें फाँसी दे दी गई।

 

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जनमानस ने इस बलिदान को जीवंत रखने के लिए सागर में समाधि-स्थल बनवाया, जो आज भी राजा मधुकर शाह के बलिदान की कहानी कह रहा है। इस प्रकार देश का महान् क्रांतिकारी देश पर अपना सर्वस्व अर्पण करके हमेशा के लिए बुंदेलखंड की वीरभूमि पर अमर हो गया।


संदर्भ

Govind Namdev, Madhukar Shah : Bundelkhand Ka Nayak, Rajkamal

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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