अंग्रेजों के छक्के छुड़ाने वाले आदिवासी वीर: नीलांबर-पीतांबर
नीलांबर-पीतांबर ने अपनी वीरता से अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए थे। पराक्रमी और गुरिल्ला युद्ध में माहिर इन भाइयों के नेतृत्व में कई ग्रामीण अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो गए थे। उनके बलिदान की स्मृति में डालटनगंज में नीलांबर-पीतांबर विश्वविद्यालय की स्थापना की गई है।
1857 का ‘सिपाही विद्रोह‘ वस्तुतः ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध भारत का पहला स्वतंत्रता महासंग्राम था। नवीनतम शोध और दस्तावेज़ी सच्चाइयों से यह स्पष्ट हो गया है कि 1857 के संघर्ष के दो वर्षों तक पलामू की जनजातियाँ लगभग हारी हुई लड़ाई लड़ती रहीं। इस जनयुद्ध के नायक भोगता जनजाति के थे। भोगता जनजाति के दो नेता सहोदर भाई पीतांबर साही और नीलांबर साही थे।
मंगल पांडेय की फाँसी की खबर जब झारखंड पहुँची, तो लोगों में क्रोध की ज्वाला सुलग उठी। हजारीबाग जेल ढहा दी गई।
बड़कागढ़ के विश्वनाथ शाहदेव और भँवरी के पांडेय गणपत राय के नेतृत्व में हुए ‘हटिया युद्ध’ में अंग्रेजी पलटन की अपराजेयता का मिथक टूट चुका था। अंग्रेजी राजसत्ता का मान, शक्ति, सम्मान और अहंकार सब कुछ छोटानागपुर खास में मटियामेट हो चुका था। छोटानागपुर में अंग्रेजी सत्ता ध्वस्त हो चुकी थी और कानून व्यवस्था विश्वनाथ शाहदेव के हाथों में आ गई थी।
उस समय पलामू के 12 गाँवों की छोटी सी जागीर ‘चेमो-सनेया’ के भोगता जागीरदार पीतांबर साही राँची में थे। सूचना थी कि विद्रोह का यह चक्रवात राँची तक नहीं रुकेगा। हजारीबाग जेल से मुक्त हुए कैदियों की स्वतंत्र पलटन राँची विजय के बाद बाबू कुँवर सिंह की सेना से जुड़ने के लिए रोहतास कूच करने वाली थी। पीतांबर भी उनके साथ निकल पड़े।
नीलांबर-पीतांबर कौन थे?
नीलांबर और पीतांबर पूर्वी भारत के झारखंड राज्य के प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। ये दोनों भाई थे और भोगता समाज से संबंध रखते थे। उनके पिता चेमू सिंह, जो भोगता समुदाय के मुखिया थे, 12 गाँवों की पुश्तैनी जमींदारी के मालिक थे। चेमू सिंह को ‘कोल विद्रोह’ के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ सक्रिय होने के आरोप में सजा दी गई, उनकी जमींदारी जब्त कर ली गई, और उन्हें निर्वासन में भेज दिया गया, जहाँ उनकी मृत्यु हो गई।
उनके पिता की अपमानजनक मौत और अंग्रेजों की गुलामी ने नीलांबर और पीतांबर को गहरे आघात पहुंचाया। भोगता समाज में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा और प्रतिशोध का माहौल तैयार हो चुका था। इस बीच, अंग्रेजों ने पलामू के चेरो राजा चुरामन राय को उनकी गद्दी से बेदखल कर दिया और पलामू परगना को नीलाम कर अपने कब्जे में ले लिया। चेरो समाज भी अंग्रेजों की इस हड़प नीति से नाराज था, लेकिन उनके खिलाफ खुलकर बोलने का साहस नहीं कर पा रहा था।
इस समय नीलांबर और पीतांबर ने चेरो समाज के साथ गठबंधन बनाया और खरवार लोगों को भी अपने संघर्ष में शामिल कर लिया। इस प्रकार, पलामू में अंग्रेजों के खिलाफ चेरो-खरवार-भोगता गठबंधन तैयार हुआ। चतरा में एक बड़ी लड़ाई हुई, जिसमें अंग्रेजी फौज की देसी पलटन को भारी हार का सामना करना पड़ा।
हालांकि पलामू अभियान कमजोर हो चुका था, नीलांबर और पीतांबर ने हार मानने से इनकार कर दिया। उन्होंने अपने नेतृत्व में हजारों विद्रोहियों को संगठित किया और स्वतंत्रता की लड़ाई जारी रखी। नीलांबर के नेतृत्व में 10,000 विद्रोहियों ने डालटनगंज के पास ठकुराई रघुवर दयाल सिंह की हवेली को घेर लिया। घंटों चली गोलाबारी के बाद, विद्रोहियों ने शाहपुर किले पर हमला किया, वहाँ के आग्नेयास्त्र लूट लिए, और किले को जला दिया।
नीलांबर के नेतृत्व में विद्रोही दल
नीलांबर के नेतृत्व में विद्रोही दल लेस्लीगंज पर कहर बनकर टूटा था। लेस्लीगंज के तमाम सरकारी भवन फूँक दिए गए। पलामू में नीलांबर-पीतांबर के आंदोलन की हाहाकारी शुरुआत हो चुकी थी। सीधी लड़ाई से बचते हुए नीलांबर-पीतांबर गुरिल्ला युद्ध लड़ रहे थे।
नीलांबर के बेटे कुमार शाही ने सरदार परमानंद और भोज-भरत के साथ पलामू किले पर भी कब्जा कर लिया था। तिलमिलाए अंग्रेजों ने पूरी ताकत के साथ पलामू किले पर हमला बोल दिया। पलामू किले पर पुनः कब्जा करने के बाद डाल्टन ने लेस्लीगंज को मुख्यालय बनाकर नीलांबर-पीतांबर के दमन की तैयारी की।
कर्नल टर्नर पलामू के जंगलों की खाक छानता रहा, पर नीलांबर-पीतांबर का कोई सुराग नहीं मिल रहा था। खीज और क्रोध से उबलते टर्नर ने चेमो-सनेया पर आक्रमण कर दिया, लेकिन गुरिल्ला लड़ाकों के सामने कोई टिक नहीं सका। मनिका, छतरपुर, लातेहार, महुआडांड़, छेछारी जैसे महत्वपूर्ण अंग्रेजी ठिकानों पर नीलांबर-पीतांबर के आक्रमण ने अंग्रेजी कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ा दी थीं।
विश्वनाथ शाहदेव और पांडेय गणपत राय को फाँसी दी जा चुकी थी। लाल किले पर अंग्रेजी ध्वज अभी भी लहरा रहा था, परंतु पलामू में नीलांबर-पीतांबर की तूती बोल रही थी, जो अंग्रेजी राज के लिए बहुत अपमानजनक थी।
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नीलांबर को फांसी और पीतांबर को कालापानी
अंग्रेजों ने ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति अपनाई। सबसे पहले खरवारों को बरगलाया। भ्रमित खरवार आंदोलन से अलग हो गए। फिर अंग्रेजों ने चेरो जागीरदार भवानीबख्श राय को डरा-धमकाकर शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करवा लिए।
भवानीबख्श राय के टूटते ही पूरा चेरो समाज गठबंधन से अलग हो गया और दोनों भाई अकेले पड़ गए। अंग्रेजों ने अब चेमो-सनेया की सख्त नाकेबंदी कर एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया, फिर भी दोनों भाई पकड़ में नहीं आए। सनेगा गाँव के भूखा साह और शिवचरण माँझी जैसे उनके विश्वस्त साथी अंग्रेजों के मुखबिर बन गए, जिससे दोनों भाई टूट गए।
इसी बीच अंग्रेजों ने एक और चाल चली। उन्होंने सर्वक्षम माफी और विस्मरण की घोषणा की। यह उन विद्रोहियों को क्षमा करने की नीति थी जो तय समय-सीमा के भीतर आत्मसमर्पण कर दें। पीतांबर और कुमार शाही ने आत्मसमर्पण कर दिया, जिसके बाद उद्विग्न नीलांबर ने भी समर्पण कर दिया।
लेस्लीगंज की अदालत में विद्रोहियों पर लूट, हत्या, आगजनी, राजद्रोह आदि आरोपों के मुकदमे चलाए गए। अंग्रेजी सरकार एक भी महत्वपूर्ण गवाह नहीं जुटा सकी थी, फिर भी परिस्थितिजन्य सबूतों और खरीदी गई गवाहियों के आधार पर अभियुक्तों को सजाएँ दी गईं।
पीतांबर के मामले में नरमी बरतते हुए उन्हें आजीवन निर्वासन, यानी कालापानी की सजा दी गई, और कुमार शाही को 14 साल के कारावास की सजा मिली। नीलांबर को फाँसी की सजा सुनाई गई, जिसे मार्च 1859 में अंजाम दिया गया।
संदर्भ
Shailendra Mahto, Jharkhand Mein Vidroh Ka Itihas, PRABHAT PRAKASHAN
रंजना चितले, जनजातीय योद्धा स्वाभिमान और स्वाधीनता का संघर्ष, प्रभात प्रकाशन, 2023
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में