विस्मृत क्रांतिकारी एवं स्वतंत्रता सेनानी पुलिन बिहारी दास
जब अंग्रेजों के प्रति निष्क्रिय प्रतिरोध से कोई परिणाम नहीं मिल रहा था, तो भारतीय क्रांतिकारियों के एक समूह ने यह निर्णय लिया कि अब समय आ गया है कि हिंसक तरीकों को अपनाया जाए और औपनिवेशिक शासन को भारत की धरती से उखाड़ फेंका जाए।
भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में कई ऐसे नायक हुए, जिनके योगदान को आज भुला दिया गया है। ऐसे ही एक महान क्रांतिकारी थे पुलिन बिहारी दास, जिन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में साहस और दृढ़ता के साथ महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनके नेतृत्व में कई क्रांतिकारी गतिविधियाँ संचालित हुईं, जिनका उद्देश्य अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकना था। हालाँकि, उनके नाम को समय के साथ विस्मृत कर दिया गया, लेकिन उनके योगदान को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
पुलिन बिहारी दास एक महान स्वतंत्रता सेनानी और साहसी क्रांतिकारी थे। उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के लिए ‘ढाका अनुशीलन समिति’ नामक क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की और कई क्रांतिकारी गतिविधियों को अंजाम दिया।
कौन थे पुलिन बिहारी दास?
पुलिन का जन्म 24 जनवरी 1877 को बंगाल के फरीदपुर जिले के लोनसिंह नामक गाँव में एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री नबाकुमार दास मदारीपुर के सब डिविजनल कोर्ट में वकील थे।
पुलिन को बचपन से ही शारीरिक सौष्ठव का शौक था और वह बहुत अच्छी लाठी चला लेते थे। इसलिए उन्होंने 1903 में तितकुली नामक स्थान पर अपना अखाड़ा खोला और 1905 में प्रसिद्ध लठैत मुर्तजा से लाठी और घेराबंदी की ट्रेनिंग ली।
सितंबर 1906 में, जब विपिन चंद्र पाल और प्रमथनाथ मित्र ने अपने भाषण में कहा कि जो लोग देश के लिए अपना जीवन देने को तैयार हैं, वे आगे आएं, तब पुलिन उनसे प्रभावित होकर उनके साथ हो लिए। बाद में उन्हें अनुशीलन समिति की ढाका इकाई का संगठन करने की जिम्मेदारी दी गई। अक्टूबर में, उन्होंने 80 युवाओं के साथ ‘ढाका अनुशीलन समिति’ की स्थापना की।
पुलिन एक उत्कृष्ट संगठनकर्ता थे। उनके प्रयासों से शीघ्र ही समिति की 500 से भी अधिक शाखाएँ पूरे प्रांत में स्थापित हो गईं। इसके बाद, पुलिन ने ढाका में ‘नेशनल स्कूल ढाका‘ की स्थापना की, जहाँ युवाओं को लाठी, तलवार, खंजर और पिस्तौल चलाने की ट्रेनिंग दी जाने लगी।
पुलिन ने 23 दिसंबर 1907 को ढाका के पूर्व जिला मजिस्ट्रेट ‘बासिल कोप्लेस्टन एलन‘ को योजनाबद्ध तरीके से गोली मारने की कोशिश की जब वह इंग्लैंड लौट रहा था, लेकिन दुर्भाग्य से वह बच गया।
‘ढाका षडयंत्र केस’ में काले पानी की सजा
1908 में धन की व्यवस्था करने के लिए पुलिन ने ‘बारा डकैती काण्ड’ को अंजाम दिया। इस डकैती से मिले धन से क्रांतिकारियों ने हथियार खरीदे। इस घटना के बाद, 1908 में ही पुलिन को उनके साथियों भूपेश चंद्र नाग, श्यामसुंदर चक्रवर्ती, किशन कुमार मित्र, सुबोध मलिक, और अश्विनी दत्ता के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और मॉंटगोमरी जेल में डाल दिया गया।
जेल में अंग्रेज सरकार की यातनाएँ भी उन्हें झुका नहीं सकीं। 1910 में जेल से रिहा होते ही वे पुनः क्रांतिकारी गतिविधियों को तेज करने में जुट गए। परन्तु अंग्रेजी सरकार ने ‘ढाका षडयंत्र केस‘ के तहत जुलाई 1910 में पुलिन और उनके 46 साथियों को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें काले पानी (आजीवन कारावास) की सजा सुनाकर कुख्यात सेलुलर जेल भेज दिया गया।
प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति पर उनकी सजा कम कर दी गई और 1918 में उन्हें रिहा कर दिया गया। इसके बावजूद उन्हें एक वर्ष तक गृहबंदी में रखा गया।
‘भारत सेवक संघ’ की स्थापना
1919 में पूरी तरह रिहा होते ही पुलिन ने एक बार फिर समिति की गतिविधियों को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। लेकिन सरकार द्वारा समिति को गैरकानूनी घोषित करने और सदस्यों के बिखर जाने के कारण उन्हें सफलता नहीं मिली। अतः उन्होंने 1920 में ‘भारत सेवक संघ’ की स्थापना की।
इस समय तक गांधीवादी आदर्शों का प्रभाव बढ़ गया था और उनके कई पूर्व सहयोगियों ने हिंसा के मार्ग को त्याग दिया था। फिर भी, पुलिन ने अपने विचारों से समझौता नहीं किया और भारत सेवक संघ की स्थापना की।हालांकि, आंतरिक राजनीति के कारण यह संगठन भी ढाका अनुशीलन समिति जैसी सफलता प्राप्त नहीं कर सका। पुलिन ने अंततः सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया।
इसके बाद, उन्होंने ‘हक कथा’ और ‘स्वराज’ नामक पत्रिकाओं का प्रकाशन किया, लेकिन बाद में समिति और पुलिन के बीच मतभेद उत्पन्न हो गए, जिसके कारण उन्होंने समिति से दूरी बना ली और 1922 में ‘भारत सेवक संघ’ को भंग कर दिया।
जब रवींद्रनाथ से मिलने शांतिनिकेतन पहुंचे पुलिन बिहारी दास
18-19 फरवरी 1922 को शांतिनिकेतन आए और रवींद्रनाथ से मिले। उन्होंने अनुशीलन समिति की एक मासिक पत्रिका “शंख” प्रकाशित करने की पहल की। इस इरादे से जितेंद्रनाथ बंद्योपाध्याय और नलिनी गुहा ने रवींद्रनाथ से मुलाकात की और पुलिन बिहारी दास को बताया कि रवींद्रनाथ उनसे मिलना चाहते हैं।
इस पर वे शांतिनिकेतन आ गए। उन्होंने लिखा,
“रवींद्रनाथ ने “कृषि शिल्प वाणिज्य” और “भारत सेवक संघ” नामक दो पुस्तकें बड़ी उत्सुकता से पढ़ीं। उस पुस्तक में गांधीजी के असहयोग आंदोलन की कुछ आलोचना थी। रवींद्रनाथ ने उनसे भारत की वर्तमान राजनीतिक स्थिति के बारे में चर्चा की। बार-बार पूछताछ से उन्हें पता चला। सहानुभूति और समर्थन दिखाते हुए उन्होंने मुझसे एल्महर्स्ट को योजना दिखाने को कहा और मुझे यथासंभव सभी प्रकार की मदद का आश्वासन दिया और प्रस्तावित पत्रिका में लगातार अपना लेख देने के लिए सहमत हुए।
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रवींद्रनाथ सामाजिक विकास कार्यों में क्रांतिकारियों के शांतिपूर्ण पुनर्वास के कार्यक्रम में सहयोग के पक्ष में थे। उन्होंने “साधन की मोर आसन नेबे हट्टोगोलेर कांधे” गीत का योगदान दिया।
वांग्य व्यायाम समिति की स्थापना और जीवन के अंतिम वर्ष
1928 में, उन्होंने कलकत्ता के मच्चु बाजार में ‘वांग्य व्यायाम समिति’ की स्थापना की। यह संस्था युवाओं को शारीरिक शिक्षा के साथ लाठी चलाने, तलवारबाजी, और कुश्ती की ट्रेनिंग देती थी।
बाद में पुलिन बिहारी दास ने विवाह किया, जिससे उनके तीन पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। एक योगी के संपर्क में आने के बाद वे अध्यात्म की ओर झुक गए। स्वामी सत्यानंद गिरी और उनके मित्र पुलिन बिहारी बोस के निवास पर सत्संग किया करते थे।
17 अगस्त 1949 को कोलकाता, पश्चिम बंगाल में पुलिन बिहारी दास का निधन हो गया। उनके योगदान को सम्मानित करने के लिए कलकत्ता विश्वविद्यालय अपने श्रेष्ठ छात्रों को ‘पुलिन बिहारी दास स्मृति पदक’ प्रदान करता है।
संदर्भ
डां. श्याम सिंह तंवर और मृदुलता भूले-बिसरे क्रांतिकारी, प्रभात प्रकाशन, 2008
शम्सुल इस्लाम,भारत में अलगावदाद और धर्म, वाणी प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में