खिलाफत कॉन्फ्रेंस और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
खिलाफत आंदोलन का पहला केंद्र भारत था; यह न केवल मुसलमानों का, बल्कि पूरे भारतीय समाज का मुद्दा बन गया। आंदोलन की शुरुआत में यह केवल जीवन के शुरुआती संघर्षों से जूझ रहा था, जब हजारों लोग खिलाफत का नारा लगा रहे थे, लेकिन सामूहिक रूप से कार्य करने का कोई ठोस साधन नहीं था। आज यह प्रारंभिक दौर इतिहास बन चुका है, जब यह विचार केवल लोगों के दिलों में था और इसे किसी ठोस शक्ति का सहारा प्राप्त नहीं था। परिणामस्वरूप, हमें अपनी तमाम कमियों के बावजूद सफलता मिली, और हमने इस क्षेत्र में एक बड़ी जीत हासिल की।
जब दुनिया ने इस पर ध्यान दिया, तो उसने महसूस किया कि यह केवल किसी छोटे समूह का नहीं, बल्कि पूरे भारत का आंदोलन है। यह खिलाफत आंदोलन का पहला चरण था, जिसे इसने सफलतापूर्वक पार किया।
इसके बाद आंदोलन ने दूसरा महत्वपूर्ण चरण पार किया। इसकी सफलता के लिए यह आवश्यक था कि यह आंदोलन किसी विशेष वर्ग तक सीमित न रहे और एक राष्ट्रीय आंदोलन बन जाए। यह सिर्फ सात करोड़ दिलों तक सीमित न रहे, बल्कि पूरे 32 करोड़ भारतीयों को अपने में समेटे। हमारे हिंदू भाइयों ने भी हमारे साथ कंधे से कंधा मिलाया। उनके इस समर्थन का उद्देश्य यह नहीं था कि मुसलमानों की सफलता इस पर निर्भर थी, बल्कि उनके दिलों में यह विश्वास था कि किसी उद्देश्य की सफलता संख्याबल पर नहीं, बल्कि सच्चे विश्वास और कर्म की शक्ति पर निर्भर करती है।
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने कहा- मैं पहले भी कई बार कह चुका हूं और आज भी कहता हूं कि इस उद्देश्य की सफलता के लिए हमें भारत के किसी भी हिस्से के किसी भी भाई को तकलीफ देने की आवश्यकता नहीं थी। यदि मुसलमान सफल हो सकते थे, तो वह केवल ईश्वर में विश्वास के बल पर संभव था। लेकिन एक व्यापक आंदोलन के बिना हमें सफलता नहीं मिल सकती थी।
खिलाफत आंदोलन की सबसे बड़ी सफलता यही थी कि इसने भारत की समस्या को शक्तिशाली तरीके से उजागर किया, जो चालीस वर्षों की कोशिशों से भी संभव नहीं हो सका था।
मौलाना का गिरफ्तारी से पहले संदेश
मौलाना को अपनी गिरफ्तारी का पूर्वाभास हो गया था। इसलिए, उन्होंने महात्मा गांधी को एक बधाई संदेश और देशवासियों के लिए एक प्रेरणादायक संदेश पहले ही लिख दिया था। उन्होंने जनता, विशेष रूप से मुसलमानों के लिए संदेश दिया:
“मोमिनीन (इस्लाम के सच्चे अनुयायी), निराश और दुखी न हो। यदि सच्चा ईमान अपने भीतर पैदा कर लो, तो तुम ही सब पर छा जाओगे। हमारी सफलता चार सच्चाइयों पर निर्भर करती है—हिन्दू-मुस्लिम एकता, शांति, अनुशासन, और बलिदान। मुसलमानों से मेरा विशेष आग्रह है कि वे अपने इस्लामी कर्तव्यों को याद रखें और इस निर्णायक समय में अपने भारतीय भाइयों से आगे बढ़ें। यदि वे पीछे रहे, तो उनका अस्तित्व विश्व के चालीस करोड़ मुसलमानों के लिए एक कलंक बन जाएगा।”
10 दिसम्बर को शाम साढ़े चार बजे, श्री गोल्डी, डिप्टी कमिश्नर स्पेशल ब्रांच, एक यूरोपीय पुलिस इंस्पेक्टर के साथ मौलाना के पास पहुंचे। उस समय मौलाना ऊपर अपने अध्ययन कक्ष में थे और श्री फज़लुद्दीन अहमद को पत्रों का उत्तर लिखवा रहे थे। मौलाना ने श्री गोल्डी को बुलवा लिया और उनके आने का उद्देश्य समझ गए।
गोल्डी ने पूछा, “क्या आप हमारे साथ चलेंगे?” इस पर फज़लुद्दीन अहमद ने वारंट की मांग की, जिसका उत्तर मिला कि “नहीं।” लेकिन मौलाना बिना वारंट के ही जाने को तैयार हो गए। कुछ ही मिनटों में वे तैयार होकर बाहर आए और साथ चलने का इशारा किया। इंस्पेक्टर ने कहा कि इतनी जल्दी की आवश्यकता नहीं है; यदि आप कुछ साथ ले जाना चाहें, तो ले सकते हैं। मौलाना ने केवल एक गर्म चादर ओढ़ी और कुछ भी साथ नहीं लिया। यह सब इतनी शांति से हुआ कि लोगों को इसकी भनक तक नहीं लगी।
सजा और कौले फ़ैसल
मुकदमा धीमी गति से चलता रहा और अंततः, देशबन्धु को छह महीने और मौलाना को एक साल की कैद की सजा सुनाई गई। मौलाना ने सत्याग्रही होने के नाते मुकदमे की कार्रवाई में कोई सक्रिय भाग नहीं लिया; उन्होंने केवल एक लिखित बयान प्रस्तुत किया। यह बयान ऐतिहासिक महत्व रखता है और “कौले फ़ैसल” (अंतिम निर्णय) के नाम से प्रसिद्ध है।
महात्मा गांधी ने “यंग इंडिया” में लिखा कि इससे अधिक मजबूत, सच्चा और स्पष्ट बयान किसी सत्याग्रही का नहीं हो सकता। इस पुस्तक के अंत में उस बयान के अंश उद्धृत किए गए हैं। बयान के अंत में मौलाना ने न्यायालय को संबोधित करते हुए कहा:
“श्रीमान मजिस्ट्रेट, अब मैं न्यायालय का और अधिक समय नहीं लूंगा। यह इतिहास का एक रोचक और शिक्षाप्रद अध्याय है, जिसमें हम दोनों अपनी-अपनी भूमिकाएं निभा रहे हैं। हमारे हिस्से में अभियुक्तों का कटघरा है और आपके हिस्से में मजिस्ट्रेट की कुर्सी। मैं मानता हूं कि इस काम के लिए वह कुर्सी भी उतनी ही जरूरी है जितना कि यह कटघरा। आओ, इस कार्य को जल्द समाप्त करें। इतिहासकार हमारी प्रतीक्षा में हैं और भविष्य कब से हमारा इंतजार कर रहा है। एक दूसरी अदालत का द्वार खुलने तक यह काम जारी रहेगा। यह ईश्वरीय कानून की अदालत है, जिसमें समय न्यायाधीश है और उसी का फैसला अंतिम निर्णय होगा।”
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बेगम साहिबा का महात्मा गांधी को तार
बेगम साहिबा ने मौलाना को सजा सुनाए जाने के बाद महात्मा गांधी को अहमदाबाद और बारदोली के पते पर एक तार भेजा था, लेकिन केन्द्रीय तारघर कलकत्ता ने इसे रोक दिया:
“मेरे पति मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के मुकदमे का फैसला आज सुनाया गया। उन्हें केवल एक साल की सख्त कैद की सजा दी गई, जो उससे बहुत कम है जिसकी हम प्रतीक्षा कर रहे थे। यदि सजा और कैद राष्ट्र सेवा का पुरस्कार है, तो आप मानेंगे कि इसमें भी उनके साथ अन्याय हुआ है। यह तो उससे भी कम है जिसके वे अधिकारी थे। मैं सूचित करना चाहती हूं कि बंगाल में जो स्थान खाली हुआ है, उसके लिए मैंने स्वयं को प्रस्तुत किया है और वे सभी कार्य नियमित रूप से जारी रहेंगे जो उनकी उपस्थिति में होते थे।”
सिविल नाफरमानी आंदोलन पूरे जोर पर था। लाला लाजपत राय, पं० मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास और मौलाना आज़ाद जेल में थे। अहमदाबाद में हकीम अजमल खां की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ। गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के माध्यम से एक वर्ष के भीतर स्वराज्य प्राप्त करने की आशा दिलाई थी। वह साल बीत चुका था, लेकिन फिर भी, अहमदाबाद में गांधीजी के अहिंसावाद पर आधारित सत्याग्रह के प्रति पूरा समर्थन दिखाया गया।
इसके बाद गांधीजी ने बारदोली में सामूहिक सिविल नाफरमानी आंदोलन शुरू करने की सूचना सरकार को दी। आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले में भी कर न देने के आंदोलन की तैयारियां हो रही थीं। देशभर में आंदोलन का उत्साह था, लेकिन अचानक उत्तर प्रदेश के चराचरी नामक स्थान पर हिंसा का एक कांड हुआ, जिससे गांधीजी आहत हुए। पुलिस ने एक भीड़ पर गोली चलाई, जिससे भीड़ उत्तेजित हो गई और उन्होंने थाने पर हमला कर उसे जला दिया, जिसमें कुछ पुलिसकर्मी भी मारे गए। इसके अलावा बरेली और मद्रास में भी कुछ घटनाएं हुईं। गांधीजी को इतनी ठेस पहुंची कि उन्होंने जेल से बाहर मौजूद कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्यों की बैठक बुलाकर आंदोलन समाप्त करने का निर्णय किया।
इसके बाद, सरकार ने “यंग इंडिया” में कुछ लेखों के कारण गांधीजी को साबरमती से गिरफ्तार कर लिया। गांधीजी ने साहस और सच्चाई के साथ अपना “जुर्म” स्वीकार किया, जिसकी मिसाल मौलाना आज़ाद पहले “कौले-फैसल” में दे चुके थे। अदालत में गांधीजी को छह साल की सजा दी गई।
फैसले में मजिस्ट्रेट ने गांधीजी को लोकमान्य तिलक की श्रेणी में रखा, जिन्हें भी छह साल की सजा हुई थी। दो साल बाद गांधीजी का ऑपरेशन हुआ, और जनता की मांग पर 5 फरवरी 1924 को उनकी रिहाई हुई, लेकिन तब तक देश में अव्यवस्था फैल चुकी थी।
संदर्भ
अर्श मलसियानी, आधुनिक भारत के निर्माता मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, प्रकाशन विभाग, नई दिल्ली
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में