नसुड़ी यादव, जिन्होंने चेतना का व्याकरण बदल दिया
नसुड़ी यादव बिरहा गायन शैली के इतिहास के सबसे अलग, विलक्षण और बोल्ड गायक थे। वह बिरहा के आदि विद्रोही थे और उन्होंने पूर्वांचल के समाज में व्याप्त सांस्कृतिक जड़ता, अज्ञानता, धार्मिक अंधविश्वासों और मिथकों पर इतना जोरदार प्रहार किया कि खुद मूर्तिभंजन का एक मिथक बन गए। अपने जीवनकाल में ही वे किंवदंती बन गए थे।
जितनी वास्तविकता और आंच उनकी आवाज़ में थी, उससे अधिक उनके किस्से हवा में थे। आज वे कहां गाने वाले हैं और कल कहां गोली चलते-चलते रह गई थी, इनकी कहानियां हर जगह उनके पहुँचने से पहले ही पहुँच जाती थीं।
उन्हें सुनने वालों का एक विशाल हुजूम हमेशा उनका इंतजार करता था। वह हुजूम न केवल उन्हें रात-रात भर एकटक सुनता, बल्कि अपना प्यार और पैसा भी खुशी-खुशी उनके ऊपर लुटाता। कंजूस से कंजूस व्यक्ति भी किसी न किसी मोड़ पर नसुड़ी की कला पर मुग्ध होकर अपनी जेब में हाथ डाल ही देता। बदले में नसुड़ी अपने श्रोताओं के भीतर असहजता, बेचैनी और तर्कशीलता बोते।
कौन थे नसुड़ी यादव?
नसुड़ी जनता के गायक और किस्सागो थे। वह असाधारण और साहसी वक्ता थे। जो भी अतार्किक होता था, वह उसके विरुद्ध बोलते और गाते थे। उनका उद्देश्य केवल मनोरंजन करना नहीं था, बल्कि लोगों के भीतर इंसानियत और बराबरी की भावना भरना था।
वह चातुर्वर्ण्य की थ्योरी के संहारक थे और ब्राह्मणों के तथाकथित ज्ञान और क्षत्रियों की नकली वीरता के मिथकों को उखाड़ फेंकते थे। सही मायने में वे किसानों, मजदूरों और चरवाहों के गायक थे। वेद की धज्जियाँ उड़ाने वाले गायक थे, इसलिए जनता उन्हें ‘लबेद’ का महान गायक मानती थी।जिस तरह बनारस में कबीर का मान था, उसी तरह नसुड़ी का मान था। उनके जाने के बरसों बाद भी उनकी जगह नहीं भरी जा सकी है और बिरहा विधा की वर्तमान गति को देखते हुए ऐसा लगता है कि वह जगह भरी भी नहीं जा सकेगी। नसुड़ी सदियों में एकाध ही पैदा होते हैं।
नसुड़ी का जन्म 1948 में वाराणसी-भदोही राजमार्ग पर स्थित कुरौना गाँव के एक किसान परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम कटारी और माता का नाम मनभावती देवी था। उनसे छोटे दो भाई और कुल चार बहनें थीं, जिनमें से बड़ी बहन अब नहीं रहीं। उनके छोटे भाई बन्सू यादव किसान थे और रामधनी सेना में थे।
नसुड़ी ने ईंट भट्ठा चलाया और वे लोकप्रिय गायक के साथ ही कुशल कारोबारी भी थे। उनका गाँव कुरौना मिश्रित आबादी वाला गाँव था, जिसमें यादव, राजभर, मिसरा, मुसलमान जुलाहे आदि लोग रहते थे। उन दिनों अधिकतर लोग खेती-बाड़ी या दस्तकारी पर निर्भर थे। गाँव में बनारसी साड़ी और गलीचे बुने जाते थे।
नसुड़ी एक संपन्न परिवार में पैदा हुए थे। उनके घर में अनाज और दूध-घी की कमी नहीं थी। वे चाहते तो पढ़-लिखकर कहीं बड़ी नौकरी कर सकते थे, लेकिन उन दिनों अहिराने में स्कूल की बजाय अखाड़े को ज्यादा तरजीह दी जाती थी। नसुड़ी के परिवार में पढ़ाई का खास माहौल नहीं था। खेती और अहिराऊ हनक ही सबसे बड़ी चीज थी। साथ ही, दूर-दूर तक कोई सलाह देने वाला भी नहीं था। उनके पिता का मानना था कि स्कूल के बिना भी कोई काम नहीं रुकता। ‘खाओ-पियो और अखाड़े की धूल देह में लगाओ।’
नसुड़ी के चचेरे भाई गुंगई पहलवान थे, लिहाजा किशोर नसुड़ी उन्हीं के साथ कुश्ती लड़ने का अभ्यास करते, गायें चराते और खेती करते। हालांकि उन्होंने अपने छोटे भाइयों को स्कूल भेजा और उन दोनों ने मन लगाकर पढ़ाई की।
नसुड़ी के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव
नसुड़ी के जीवन में क्रांतिकारी बदलाव गुंगई पहलवान के कारण हुए। यह एक रोचक कहानी है, जो बताती है कि जिसे बात की चोट लगती है, वही बदलाव लाता है।
बनारस के पास वरुणा नदी के किनारे स्थित ग्राम चमाँव में नसुड़ी की बड़ी बहन ब्याही थीं। नसुड़ी बचपन से ही बड़े जिद्दी थे। किसी से जरा भी नहीं दबते थे। गुंगई उनके समऊरिया थे, और दोनों में प्रतिदिन किसी न किसी बात पर झगड़ा होना सामान्य बात थी। परिवार संयुक्त था और बड़े भाइयों से झगड़े के बाद नसुड़ी को उनकी बड़ी बहन के यहाँ भेज दिया गया।
गुंगई को गोरू-भैंस देखने में लगा दिया गया, जबकि नसुड़ी तीन-चार साल बहन के यहाँ रहे। लेकिन जब उन्हें वापस घर बुलाया गया, तो नसुड़ी और गुंगई में फिर से मारपीट शुरू हो गई। अंततः उन्हें गाँव में भरौटी में डोरा उठाने का काम दिया गया। यह काम बुनकरी का सबसे छोटा काम माना जाता था।
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नसुड़ी की विद्रोही गायकी की शुरुआत
भरौटी में काम करने के दौरान नसुड़ी के मन में गहरा गुस्सा था। जब उन्होंने भरों और चमारों के साथ खाना-पीना शुरू किया, तो उनके घरवालों ने उन्हें अपने बर्तनों में खाने से रोक दिया और खपड़ी में खाना देने लगे। नसुड़ी के मन में यहीं से जाति-व्यवस्था और ब्राह्मणवाद के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ।
उनकी गायकी यात्रा तब शुरू हुई जब उन्होंने जाति-व्यवस्था के खिलाफ मोर्चाबंदी की। उनकी दमदार आवाज़ और बिरहा गायकी के प्रति जुनून ने उन्हें एक अनोखा गायक बना दिया। नसुड़ी ने सरजू खलीफा के अखाड़े में गाना शुरू किया, जो प्रगतिशील विचारों के कवि और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ चेतना फैलाने वाले गायक थे।
नसुड़ी की गायकी में एक अद्वितीय आग थी। वे जहां भी जाते, मिथकों और कर्मकांडों को तोड़ते। तीनों अखाड़े भले ही भक्ति, सौंदर्य और वीरता की गायकी के लिए जाने जाते हों, लेकिन नसुड़ी का तरीका सबसे अलग और तर्कशील था।
उनकी शैली ऐसी थी कि वह अतिमानवीय व्यक्तित्वों को साधारण बना देते और समाज के मिथकों को तार-तार कर देते। उनके बिरहे सुनने के लिए लोग उमड़ पड़ते और मुकाबला जितना बड़ा होता, नसुड़ी का जलवा उतना ही बढ़ता।
नसुड़ी और समाजवादी विचारधारा
नसुड़ी पर समाजवादी विचारधारा का गहरा प्रभाव था। उन्होंने समाजवादी और प्रगतिशील विचारों को अपने गीतों में उतारा। उन्होंने 1970 के आसपास स्वरूप मास्टर से जुड़कर अंधविश्वास और सामाजिक पाखंडों के खिलाफ गायन शुरू किया।
नसुड़ी ने पेरियार और ललई सिंह यादव के विचारों को गाया और ‘सच्ची रामायण’ जैसे विषयों पर गायन किया, जिससे विवाद भी होते थे। लेकिन नसुड़ी निडर होकर अपने उद्देश्य में लगे रहे। उनकी गायकी ने देश भर में धूम मचाई। उनके प्रसिद्ध बिरहे में ‘मरकहवा दूल्हा’, ‘नौ दिन की महाभारत’, ‘कृष्ण का पाप’, ‘भीष्म पितामह की शादी’, ‘ज्ञानवापी काण्ड’ आदि शामिल हैं।
संदर्भ
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में