बिहार के ‘लेनिन’ शहीद जगदेव प्रसाद के संघर्ष की कहानी
कुछ लोग अपने जीवनकाल में ही व्यक्ति से विचारधारा बन जाते हैं। उनकी महानता इस तथ्य में निहित होती है कि चाहे वे जीवित रहें या न रहें, उनकी जीवन-यात्रा शाश्वत प्रकाश बनकर इतिहास को प्रकाशित करती रहती है। ऐसी ही महान विभूतियों में एक नाम है, जगदेव प्रसाद। उनका संपूर्ण जीवन शोषण, उत्पीड़न, अन्याय, अत्याचार, विभेद और विषमता के खिलाफ संघर्ष में बीता। इन्हीं गुणों और विशेषताओं के कारण उन्हें ‘बिहार लेनिन’ कहा गया।
उन्होंने कहा था, “मैं जो लड़ाई की नींव आज डाल रहा हूँ, वह लंबी और कठिन होगी, लेकिन जीत हमारी ही होगी।”
प्रारंभिक जीवन और संघर्ष
जगदेव प्रसाद का जन्म 2 फरवरी 1922 को बिहार के गया जिले (अब अरवल) के कुर्था प्रखंड के कुरहारी गाँव में एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ था। उनके पिता, प्रयाग नारायण, के पास मात्र तीन बीघा ज़मीन थी, और वे मिडिल तक शिक्षित थे। उनकी माँ, रासकली देवी, अनपढ़ थीं। निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में जन्मे जगदेव प्रसाद ने बचपन से ही संघर्ष की राह अपनाई।
पिता चाहते थे कि जगदेव शिक्षक बनें ताकि वे घर के खर्च में सहयोग कर सकें, लेकिन जगदेव की इच्छा उच्च शिक्षा प्राप्त करने की थी। इसके लिए उन्होंने बी. टी. हाई स्कूल, जहानाबाद में नामांकन कराया और तमाम कठिनाइयों के बीच अपनी पढ़ाई जारी रखी। बरसात के दिनों में उन्हें नदी तैरकर स्कूल जाना पड़ता था। विद्यार्थी जीवन के दौरान ही उनका विवाह सत्यरंजना देवी से हुआ, जो एक कुशल गृहिणी थीं, लेकिन शिक्षा से वंचित थीं।
जगदेव प्रसाद बचपन से ही अन्याय के खिलाफ विद्रोही स्वभाव के थे। उन्होंने सामाजिक अन्याय और जातिगत भेदभाव के खिलाफ आवाज़ उठानी शुरू कर दी थी। हाई स्कूल जाते समय जब उच्च जाति के लोग उन पर तंज कसते, तो एक दिन उन्होंने धूल झोंक कर अपना प्रतिवाद किया। इस घटना के कारण उनके पिता को पाँच रुपये जुर्माना भरना पड़ा, लेकिन यह उनकी विद्रोही प्रवृत्ति का एक छोटा उदाहरण मात्र था।
उस समय बिहार, विशेषकर मध्य बिहार, में गरीबी और मजदूरी अधिनियम जैसे कार्यक्रमों के क्रियान्वयन में सरकारी शिथिलता थी। जमींदारों के अत्याचारों से दलित और पिछड़े समाज के लोग बुरी तरह पीड़ित थे। उच्च जातियों का आतंक था, और दलित तथा पिछड़ी जातियों को झूठे मुकदमों में फँसाया जाता था। महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार आम बात थी, और ‘डोला प्रथा’ जैसी कुप्रथाएँ प्रचलित थीं। इन अत्याचारों ने जगदेव प्रसाद को झकझोर कर रख दिया।
राजनीतिक जीवन और ‘बिहार लेनिन’ का उदय
पिछड़ों और दलितों की दुर्दशा देखकर शिक्षक जगदेव हमेशा गुमसुम और परेशान रहते थे। पढ़-लिखकर समझदार हो जाने के बाद उनका दुःख और बढ़ गया था। वे सोचते थे कि सदियों से सताए जा रहे गरीबों को इज्जत की जिंदगी कैसे मिलेगी? इस समुदाय की बहू-बेटियों की आबरू की रक्षा कौन करेगा? देश आजाद है, लेकिन देश की 90 प्रतिशत दलित और पिछड़ी जनता को आजादी कैसे मिलेगी?
इन्हीं सवालों के जवाब खोजते हुए, जगदेव प्रसाद आसपास के देहाती इलाकों में उत्पीड़ित और दलित समुदाय की विद्रोही भावना को आवाज देने लगे। उनकी राजनीतिक सोच और समझ विकसित होने लगी।
जगदेव प्रसाद को लगा कि सोशलिस्ट पार्टी ही शोषितों और पीड़ितों के हितों की रक्षा कर सकती है। अतः वे अध्यापन कार्य को त्यागकर पटना चले आए और सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए। शोषित और पीड़ित लोगों की सामाजिक व आर्थिक स्थिति की दयनीयता को देखकर उन्हें जगाने की सोच ने जगदेव प्रसाद को पत्र-पत्रिकाओं का सहारा लेने के लिए प्रेरित किया।
1953 में, जगदेव प्रसाद सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका ‘जनता‘ के संपादक बने। ‘जनता’ के माध्यम से वे सामंतों के चक्रव्यूह में फँसे शोषितों को बाहर निकालना चाहते थे। दुर्भाग्यवश, उसी वर्ष सोशलिस्ट पार्टी दो भागों में बँट गई। जगदेव प्रसाद ने लोहिया का साथ दिया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें ‘जनता’ के संपादक पद से हटा दिया गया। 1955 में, जगदेव प्रसाद हैदराबाद जाकर वहाँ से प्रकाशित अंग्रेजी साप्ताहिक ‘उदय’ का संपादन करने लगे। उनके निर्भीक और स्वतंत्र विचारों के कारण उन्हें कई धमकियाँ मिलीं, लेकिन वे अपने सिद्धांतों से पीछे नहीं हटे। उनके संपादन काल में दोनों साप्ताहिकों की प्रसारण संख्या लाखों में पहुँच गई। बाद में, पत्रों के मालिकों से मतभेद होने के कारण, उन्होंने त्यागपत्र दे दिया और पटना लौट आए।
1967 में, उन्होंने कुर्था विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और जीते। सामंती ताकतों और भ्रष्टाचार के खिलाफ उनके आंदोलनों के कारण उनका नारा “संसोपा ने बाँधी गाँठ, पिछड़े पावें सौ में साठ” प्रसिद्ध हुआ। 1967 में, पिछड़ों को उचित स्थान न मिलने के कारण उन्होंने ‘शोषित दल’ नामक नई पार्टी बनाई। उनका विश्वास था कि यह लड़ाई लंबी और कठिन होगी, लेकिन जीत हमारी ही होगी।
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अंतिम संघर्ष और शहादत
1974 में, बिहार की राजनीति में फैले भ्रष्टाचार और कांग्रेसी कुशासन के खिलाफ जयप्रकाश नारायण ने छात्रों के आंदोलन की अगुवाई की। जगदेव प्रसाद इस आंदोलन के समर्थक थे, लेकिन उन्होंने इसे गाँव-गाँव तक ले जाने की आवश्यकता महसूस की।
5 सितंबर 1974 को सत्याग्रह के दौरान कुर्था में पुलिस ने उन पर गोलियाँ चला दीं। गोली लगने के बाद भी उन्होंने पुलिस की बर्बरता के खिलाफ खड़े रहने का प्रयास किया, लेकिन पुलिस ने उन्हें घायल अवस्था में घसीटते हुए थाने ले जाकर मार डाला। जगदेव प्रसाद की शहादत की खबर ने देश भर में दलित और पिछड़े वर्गों में शोक की लहर दौड़ा दी।
6 सितंबर को पटना के विधायक क्लब में उनके शव को आम जनता के दर्शनार्थ रखा गया। 7 सितंबर को उनकी शव यात्रा में उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश सहित देश भर से लाखों लोग शामिल हुए। जगदेव प्रसाद का जीवन संघर्ष और क्रांति की कहानी है। उन्होंने दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित किया और समाज में अमिट छाप छोड़ी। उनकी शहादत ने उन्हें अमर बना दिया।
समाचार पत्रों ने अपने 8 सितंबर के अंक में लिखा था कि ‘देश के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की शव यात्रा के बाद पहली बार किसी नेता की शव यात्रा में इतने लोग शामिल हुए हैं।’
जगदेव प्रसाद का जीवन उन संघर्षों और क्रांतियों की कहानी है, जिन्होंने बिहार के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया। उन्होंने दलितों और पिछड़ों के अधिकारों के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया और एक अमिट छाप छोड़ी। वे आज भी एक विचारधारा के रूप में जीवित हैं, और उनकी शहादत ने उन्हें अमर बना दिया है।
संदर्भ
अशोक कुमार सिन्हा, बिहार के महानायक, प्रभात प्रकाशन 2021
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में