क्यों चंद्रशेखर आज़ाद को बम्बई रास नहीं आई ?
जब चंद्रशेखर आज़ाद बम्बई में थे, तब वह अपने क्रांतिकारी जीवन के एक महत्वपूर्ण और संघर्षपूर्ण दौर से गुजर रहे थे। साथियों के पकड़े जाने और मारे जाने के कारण उनके मन में गहरी पीड़ा थी। उन्हें भविष्य की योजनाओं की चिंता इतनी सताती थी कि रातों में नींद नहीं आती थी। बम्बई में रहते हुए, उन्होंने अपनी आज़ादी के लिए नए रास्ते तलाशने की कोशिश की और जीवन के कठोर अनुभवों का सामना किया।
बम्बई में आज़ाद ने मजदूरी की और कई चुनौतियों का सामना किया, लेकिन उन्होंने अपने आदर्शों और सिद्धांतों से कोई समझौता नहीं किया। बम्बई की भागदौड़ भरी जिंदगी से आज़ाद धीरे-धीरे ऊब गए और उन्होंने वहाँ से बनारस जाने का निश्चय किया, जहाँ उन्हें संस्कृत की पढ़ाई करनी थी। यह निर्णय उनके भविष्य के क्रांतिकारी जीवन की दिशा को और अधिक स्पष्ट और मजबूत बनाता है।
बम्बई में बिताए गए समय ने आज़ाद को मजदूरों और आम जनजीवन के कठिनाइयों से अवगत कराया, जिससे उनका समाज और लोगों के प्रति जुड़ाव और गहरा हुआ। यह अनुभव उनके आगे के क्रांतिकारी जीवन में मददगार साबित हुआ।
क्यों गये थे आज़ाद मायानगरी बम्बई
आज़ाद अपने साथियों के पकड़े जाने और मारे जाने के कारण बहुत दुखी थे। भविष्य में दल का किस प्रकार संगठन किया जाए, इस चिंता से उन्हें रात को नींद नहीं आती थी। कुछ साथियों की गद्दारी की बातें सोच-सोच कर जब वह क्षुब्ध हो जाते, तो मुझे जगाकर बैठा देते और फिर अपने जीवन के प्रसंग सुनाने लगते। भूतकाल के उनके कष्टदायक क्षण मधुर स्मृति बनकर उनकी मानसिक व्यथा को हल्का करने में सहायक होते।
आज़ाद मोतीवाले के साथ बम्बई गए। तब तक अलीराजपुर, भावरा या उसके आसपास कुछ मील के क्षेत्र के सिवा उन्होंने कुछ नहीं देखा था और जो देखा था वह था जंगल और उसमें रहने वाले आदिवासी। इसीलिए उन्होंने सोचा कि अलीराजपुर से अकेले जाना खतरे से खाली नहीं होगा, और तभी उन्हें यह कल्पना सूझी कि मोतीवाले के साथ ही क्यों न भागा जाए। इस प्रकार वे बाहरी दुनिया से परिचित हो जाएँगे। इसी वजह से वे मोतीवाले के साथ बम्बई गए।
लोगों का कहना है कि वह पहले बनारस और फिर बम्बई गए, परंतु आज़ाद के कथनानुसार बम्बई के लिए रेल सीधी जाती थी और उनके पास जो थोड़े बहुत पैसे थे, उनसे बम्बई तक जाना ही संभव था। शायद यह उनकी पहली रेल यात्रा थी, और इसी वजह से अकेले बनारस जाना भी सरल नहीं था।मोतीवाले के साथ वे बम्बई तो पहुँच गए, परंतु भविष्य की चिंता उनके सामने प्रश्न-चिह्न बनकर खड़ी थी। पीछे हटना उन्होंने कभी सीखा ही नहीं था, इसीलिए बम्बई पहुँचते ही उन्होंने मोतीवाले का साथ छोड़ दिया।
स्टेशन के बाहर निकलते ही उनकी आँखें मुम्बापुरी को देखकर चकाचौंध हो गईं। रास्तों की भीड़, विशाल इमारतें, ट्राम गाड़ियाँ और विक्टोरिया उनके लिए मायानगरी के चमत्कारिक दृश्य थे। मोतीवाले से जो उन्होंने सुना था, उसे अब प्रत्यक्ष देख रहे थे। आखिर स्टेशन के बाहर कितनी देर तक खड़ा रहा जा सकता था, इसलिए वे निरुद्देश्य चल पड़े। चलते-चलते जब समुद्र के किनारे पहुँचे, तो रुककर बैठ गए। कभी समुद्र को देखते, तो कभी उस पर आने-जाने वाले जहाजों को।
जहाजों को रंगने वाले रंगसाजों की सहायता से आज़ाद को मिला काम
उन दिनों बम्बई बेकारों की माई-बाप थी। वहाँ कोई भी बेकार और बेघर नहीं रहता था। आज़ाद को भी बम्बई में काम मिला। उन्हें गोदी में काम करने वाले मजदूरों की मदद से जहाजों को रंगने वाले रंगसाजों की सहायता से काम मिला। उन्हीं मजदूरों ने उन्हें अपनी कोठरी में रहने की जगह दी। मजदूर शाम को आज़ाद को अपनी कोठरी पर ले गए।
खाने को पूछा तो बोले, “खा चुका हूँ।” उन्होंने दिन भर मूँगफली, भेल आदि खाकर पेट भरने का प्रयास किया था और बाकी पेट की जगह पानी से भर ली थी। सोने के लिए मजदूरों ने एक चटाई दी, उसी पर आज़ाद ने अपनी पहली रात गहरी नींद में बिताई। एक तो रेल यात्रा और फिर दिन भर की पदयात्रा ने उन्हें इतना थका दिया था कि नींद आनी ही थी। सुबह पाँच बजे मजदूरों ने बालक आज़ाद को जगा दिया और साथ ही काम पर ले गए।
शाम को मजदूरों ने कोठरी में भोजन बनाया और आज़ाद को भी बुलाया, परंतु आज़ाद कट्टर ब्राह्मण पिता के पुत्र थे। वे उन मजदूरों के साथ कैसे खाते, जिनकी न जात का पता था और न धर्म का। दिन में चना-चबेना खाकर गुजारा किया और यह सोचते रहे कि जब पैसा जमा हो जाएगा, तब बर्तन और भोजन बनाने की व्यवस्था हो जाएगी। परंतु चने खाते-खाते जी ऊब गया। जिंदगी में कभी चूल्हा जलाया नहीं था, परंतु यात्रा में सब चलता है, इसलिए मजदूरों में से एक को साथी बना लिया। उसकी वे चूल्हा जलाने और आटा गूँथने में मदद कर देते थे, परंतु उनकी यह मदद भी ज्यादा दिन नहीं चली। कभी चूल्हा न जलता तो कभी आटा पतला सत्तू जैसा हो जाता। तब साथी हँसकर उन्हें हटा देता और सब कुछ खुद ही कर लेता।
आज़ाद का यह क्रम मुश्किल से एक सप्ताह चला और फिर उन्होंने होटल में खाना शुरू किया। इसके लिए उन्होंने तर्क दिया कि जब पराई जात के हाथ की बनी रोटी खा ली, तो फिर होटल में खाने में क्या बुराई है। इस प्रकार होटल की रोटियाँ सहज ही ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो गईं।
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बम्बई में आजाद का न कोई मित्र था,न साथी
होटल में खाना शुरू करने के बाद, शाम का काफी समय बच जाता था। दिन भर की थकान मिटाने के लिए आज़ाद ने सिनेमा देखना शुरू किया। वे कोठरी में तभी जाते, जब नींद आँखों पर छा जाती और उसे रोकना मुश्किल हो जाता। कोठरी में इतने लोग एक साथ सोते थे हवा दूषित हो जाती थी। साथ ही, कोई खाँसकर किसी कोने में थूक देता था। बीड़ी का धुआँ तो सामान्य बात थी। कोठरी में कोई खिड़की नहीं थी, इसलिए बाहर की ताजी हवा आने का कोई साधन भी नहीं था। आज़ाद को इस तरह के घुटन भरे वातावरण में सोने की आदत नहीं थी।
वैसे भी क्रांतिकारी जीवन में वे सबसे अलग सोना पसंद करते थे, चाहे कितनी भी ठंड क्यों न हो। ओढ़ने की कमी होने पर वे अपने सभी साथी को ओढ़ने के साधन दे देते थे और खुद एक अखबार बिछाकर, धोती ओढ़कर लँगोट बाँधकर सो जाते थे। उनकी नींद उतनी ही गहरी होती थी, जितनी उनके साथी रजाई या कम्बल ओढ़कर सोते थे।
बम्बई में उनका न कोई मित्र था, न साथी। हाँ, जहाज पर जो लोग दूध के डिब्बे चुराकर लाते थे, उनके साथ वे भी दूध पीते थे। बस, इतनी ही देर के लिए उनसे दोस्ती होती थी। बम्बई में दिन-रात मजदूरों के साथ रहने के बावजूद वे किसी व्यसन में नहीं पड़े। न कभी बीड़ी पी, न तंबाकू खाई। कई बार मजदूर उनसे मदिरालय में ताड़ी पीने के लिए कहते, परंतु वे कभी चार कदम भी उनके साथ नहीं गए।
क्रांतिकारी जीवन में भी आज़ाद मांस-मदिरा, बीड़ी-सिगरेट आदि से दूर रहे। पुलिस को धोखा देने के लिए ही उन्होंने दो-चार बार बीड़ी या सिगरेट पी होगी। ठाकुरों के साथ जब वे ठाकुर बन जाते थे, तब उन्होंने मांसाहार भी किया, परंतु यह केवल यह सिद्ध करने के लिए था कि वे ठाकुर हैं। अन्यथा उन्हें इसमें कोई रुचि नहीं थी। ब्रह्मचारी होने के नाते भी वे इनसे दूर रहते थे। वे कहा करते थे कि अविवाहित व्यक्तियों को मांसाहार नहीं करना चाहिए। परंतु जो साथी खाना चाहते थे, उन्हें कभी रोका नहीं, न उनके साथ बैठकर खाने में कभी घृणा की।
आजाद को बम्बई के जीवन से घृणा होने लगी
धीरे-धीरे उन्हें बम्बई के इस यंत्रवत जीवन से घृणा होने लगी। उन्हें यह महसूस होने लगा कि अगर पेट भरने के लिए नौकरी या मजदूरी ही करनी थी, तो वह अलीराजपुर में भी मिल सकती थी। इसके लिए घर छोड़कर इतनी कठिनाइयाँ उठाने की क्या आवश्यकता थी?
एक रविवार, जब वे नहा-धोकर होटल में भोजन करने गए, तो भोजन करते-करते उन्होंने बम्बई छोड़ने का निश्चय कर लिया। परंतु घर वापस नहीं जाना था, इसीलिए संस्कृत पढ़ने के लिए बनारस जाने का विचार किया। उन्होंने अपने पिताजी से सुन रखा था कि संस्कृत पढ़ने के लिए लोग बनारस जाते हैं। ब्राह्मणों के बच्चों को वहाँ रहने-खाने की निःशुल्क व्यवस्था होती है, और दानी लोग उन्हें कपड़े भी दे देते हैं।
होटल में भोजन के बाद उन्होंने सीधे रेलवे स्टेशन का रास्ता पकड़ा। जो भी सामान था, वह पास ही था। एक सप्ताह की कमाई जेब में थी। स्टेशन पर जानकारी प्राप्त कर वे बनारस की गाड़ी में बिना टिकट बैठ गए। बम्बई से जाते समय वे एक चीज जरूर ले गए—मजदूरों के जीवन का अपना खुद का अनुभव। वे उनकी स्थिति से भली-भाँति परिचित हो चुके थे।
क्रांतिकारी जीवन में जब मजदूरों की परिस्थिति की चर्चा होती थी, तो वे उस पर पूरी निष्ठा से बोलते थे। उसी प्रकार भावरा में उन्होंने आदिवासियों और किसानों के जीवन को भी करीब से देखा था। इसलिए जब वे किसान और मजदूरों के शासन की बात करते थे, तो उनकी बातों में अनुभव की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।
संदर्भ
विश्वनाथ वैशम्पायन, अमर शहीद चंद्रशेखर आजाद, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
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