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आदिवासी स्वाभिमान और स्वाधीनता संग्राम के महानायक, भीमा नायक

भारत में स्वाधीनता संघर्ष का अंकुर वनों और पर्वतों में रहने वाले आदिवासियों के बीच ही अंकुरित हुआ। इन आदिवासियों के मन में अपनी माटी के प्रति अटूट समर्पण की भावना थी। उन्होंने स्वाधीनता के लिए एक ऐसा निर्भीक संघर्ष किया, जिसे आगे चलकर संपूर्ण राष्ट्र ने अपनाया।

स्वाधीनता संघर्ष और आदिवासी चेतना  के ऐसे ही एक नायक थे— भीमा नायक। मध्य प्रदेश के निमाड़ क्षेत्र के इस वीर ने 1840 से 1864 तक अंग्रेजों के विरुद्ध भीलों की क्रांति का नेतृत्व किया। तात्या टोपे से प्रेरित होकर, भीमा नायक ने 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम के दौरान निमाड़ में अंग्रेजी सत्ता को हिला दिया।

पश्चिम मध्य भारत के भील आदिवासियों का नेतृत्व करने वाले भीमा नायक  बड़वानी रियासत के पंचमोहली गाँव के निवासी थे। 1857 के स्वातंत्र्य संग्राम में अंग्रेजों से सीधी टक्कर लेने के बाद, अंग्रेजों ने उन्हें पकड़ने के लिए खानदेश भील कोर को लगाया, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। भीमा अपने साथियों मोवासिया, रेवलिया नायक और दस हजार क्रांतिकारियों के साथ डटे रहे।

कौन थे भीमा नायक

1857 में निमाड़ के भीलों को जागृत करने वाले इस योद्धा का जन्म लगभग 1815 में हुआ था। केवल 10 वर्ष की आयु में बालक भीमा तीर-कमान और गोफन चलाने में निपुण हो गया। भीमा के क्रांतिकारी बनने में उनके परिवार के संस्कारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही।

पिता रामा ने उन्हें हथियार चलाना सिखाया, जबकि माँ सुरसी हर क्रांतिकारी मोर्चे पर उनका साथ देती रहीं।भीमा की माँ सुरसी ने भी संघर्ष में योगदान दिया। उन्होंने 150 महिलाओं को युद्ध कौशल में प्रशिक्षित किया, जिससे महिलाओं ने भी क्रांति में सक्रिय भूमिका निभाई।

अंग्रेजों के शोषण और अत्याचार से मुक्ति पाने के लिए, भीमा ने 1837 में अपनी सैनिक टुकड़ी बनानी शुरू की। केवल एक वर्ष में उनके पास 500 प्रशिक्षित सेनानी हो गए। भीमा की फौज में भील, भिलाला और मकरानी सैनिक शामिल थे। उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, भीमा ने धानाबावड़ी में एक गढ़ी का निर्माण करवाया।

अंग्रेजों ने छल से भीमा के साथी दौलतसिंह को मार डाला, जिससे भीमा को गहरा आघात पहुँचा। इस कठिन समय में बड़वानी के खाज्या नायक ने उन्हें फिर से मोर्चा संभालने का साहस और संबल प्रदान किया।

अकाल के दौरान अंग्रेजों ने लगान वसूली में जोर-जबरदस्ती, घूसखोरी और हिंसा का सहारा लिया। इस अन्याय के खिलाफ, भीमा ने सूदखोरों, बनियों, सामंतों, साहूकारों और सरकारी खजाने से सामान छीनकर गरीबों में बाँट दिया। अपनी कुलदेवी नागरी माता के समक्ष भीमा ने भीलों का शोषण करने वाले अंग्रेजों को बाहर खदेड़ने की शपथ ली और इस अभियान में जुट गए।

गुजरात से भील नायकों को कुचलने के लिए अंग्रेजों ने ब्रिटिश फौज बुलवाई। इसके जवाब में, भीमा नायक और उनके साथी क्रांतिकारी सेंधवा क्षेत्र की ओर बढ़ गए। खानदेश के मजिस्ट्रेट ने सेंधवा के व्यापारियों का धन ब्रिटिश संरक्षण में जमा करवाया। हालांकि, आम जनता और व्यापारी भीमा नायक के साथ थे, और उन्होंने केवल धन का एक छोटा हिस्सा ही अंग्रेजों के खजाने में जमा किया।

अंग्रेज सैनिक जब इस धन को गुप्त रूप से सेंधवा से एक सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे, तब भीमा नायक ने उन पर हमला कर धन छुड़ा लिया। इस मौके पर उन्होंने कहा, “यह लोगों की मेहनत की कमाई है, और इस पर केवल उन्हीं का अधिकार है।” इस कार्रवाई ने अंग्रेजों के होश उड़ा दिए।


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भींमा नायक और तात्या टोपे
भींमा नायक और तात्या टोपे

तात्या टोपे ने प्रशिक्षित क्रांतिकारी दिए भीमा नायक को

इसी बीच, बड़वानी के राजा राणा जसवंत सिंह ने भीमा नायक से गुप्त रूप से समर्थन का आश्वासन दिया। भीमा ने अपनी अनोखी क्रांति जारी रखी, जबकि 3 नवंबर 1858 को क्रांति के महानायक तात्या टोपे निमाड़ पहुँचे। उनके आगमन से क्रांतिकारियों में उत्साह की लहर दौड़ गई, और गाँव-गाँव में तात्या टोपे के नाम की गूँज सुनाई देने लगी।

अंग्रेजों ने तात्या टोपे को दक्षिण की ओर बढ़ने से रोकने के लिए आधा दर्जन जनरल नियुक्त किए। इस समय, सेंधवा घाट से लेकर महाराष्ट्र तक भीमा नायक, रेवलिया नायक, खाज्या नायक, खोजेबसिंह, और कालू बाबा जैसे वीर क्रांतिकारियों का प्रभाव था।

इसी दौरान, भीमा नायक और तात्या टोपे की मुलाकात हुई। तात्या टोपे, भीमा की संगठन क्षमता और क्रांतिकारी कार्यों से प्रभावित हुए। उन्होंने अपने 200 प्रशिक्षित क्रांतिकारी भीमा के साथ कर दिए।

जब भीमा ने तात्या टोपे को नर्मदा नदी पार करने में मदद की, तब जाते समय तात्या ने कहा, “यदि हमारा अभियान सफल होता है, तो इस उपकार का बदला अवश्य चुकाएँगे।

1857 के विद्रोह में भीमा नायक अंग्रेजों चुनौती बन गए

1857 के विद्रोह के बाद, अंग्रेजों ने देशभर में क्रांति को लगभग दबा दिया था, लेकिन भीमा नायक की क्रांतिकारी गतिविधियाँ उनके लिए बड़ी चुनौती बनी रहीं। कैप्टन आर. एच. केटिंग ने कर्नल से सहायता माँगी।

4 फरवरी 1859 को केटिंग के नेतृत्व में अंग्रेजी सेना ने धोलाबावड़ी पर हमला किया। इसके बाद, 13 फरवरी 1859 को भीमा के गाँव पंचबावली में युद्ध हुआ। भीलों को जंगलों में शरण लेनी पड़ी। इस भीषण संग्राम में भीमा के 10 साथी शहीद हुए, और कई क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया।

अंग्रेजों ने भीमा के क्रांतिकारी साथियों और उनकी माँ सुरसी को मंडलेश्वर जेल में कैद कर लिया। भीमा की गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करने के लिए, खोजेवसिंह और माँ सुरसी को अमानवीय यातनाएँ दी गईं। अंततः, भूख और प्यास से तड़पते हुए, 28 फरवरी 1859 को माँ सुरसी ने जेल में प्राण त्याग दिए। उनके बलिदान से क्रांतिकारियों का धैर्य टूट गया। उन्होंने जेल पर कब्जा कर लिया, और मंडलेश्वर जेल में भीषण युद्ध छिड़ गया।

कुछ क्रांतिकारी जेल से निकलने में सफल हुए, लेकिन बाद में कई गिरफ्तार कर लिए गए। निमाड़ के पॉलिटिकल एजेंट कैप्टन ई. थॉमसन ने मुकदमे की सुनवाई की। खजब बुदिस, शेख मोहम्मद, हाजी अमीन, झग्गा, दिलशेर खान और नरसिंह निहाल को सजा-ए-मौत दी गई। इन क्रांतिकारियों को सार्वजनिक रूप से फाँसी पर लटकाया गया। मायाराम, महबूब उल्ला, गुलाब खाँ, जवाहर सिंह, फुत्त कईम खाँ, बहादुर सिंह, नूना देवी, मंजूशाह और सरजुद्दीन को काले पानी भेज दिया गया।


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दमनचक्र के बावजूद भीमा नायक ने हथियार नहीं डाले

अंग्रेजों के इस दमनचक्र के बावजूद, भील नेता न तो भयभीत हुए, न ही उन्होंने हथियार डाले। पूरे भारत में अंग्रेजों ने अपनी सत्ता स्थापित कर ली थी, लेकिन भील योद्धा अपने मोर्चे पर डटे रहे। 1861 तक भीलों ने अंग्रेजों से लगातार संघर्ष किया।

16 दिसंबर 1866 को, निमाड़ के सभी भील नायकों ने मिलकर अंग्रेजों पर बड़ा हमला किया, जिससे अंग्रेजों को भारी नुकसान हुआ। हालांकि, धर-पकड़ के दौरान बड़वानी के कई भील क्रांतिकारी पकड़े गए।अंग्रेज लगातार भीमा नायक को खोजते रहे, लेकिन उनका कहीं पता नहीं चला। अंततः 2 अप्रैल 1867 को, एक गद्दार की सूचना पर, अंग्रेजों ने घने जंगल में सोते हुए भीमा नायक को गिरफ्तार कर लिया।

भीमा नायक ने अंतिम क्षण तक समझौता करने से इनकार कर दिया। उन्होंने भीलों के स्वाभिमान और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण को बनाए रखा। इस महानायक की प्रेरणा से अनेक भील नायकों ने क्रांति की मशाल को जलाए रखा, जो स्वतंत्रता मिलने तक जलती रही।


संदर्भ

रंजना चितले, जनजातीय योद्धा, स्वाभिमान और स्वाधीनता का संघर्ष

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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