कोल विद्रोह के नायक, बुली महतो
कोल विद्रोह 1831 और 1832 के बीच झारखंड के छोटा नागपुर क्षेत्र के आदिवासी कोल लोगों का आंदोलन था। यह विद्रोह ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा लगाए गए भूमि स्वामित्व और प्रशासनिक व्यवस्थाओं से उत्पन्न आर्थिक शोषण के विरोध में हुआ। छोटा नागपुर क्षेत्र के ये आदिवासी, ब्रिटिश शासन के दौरान, बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा थे।
कोल जनजाति छोटा नागपुर में बसी हुई थी। 19वीं शताब्दी की शुरुआत में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने छोटा नागपुर पर अपना नियंत्रण बढ़ाया और नई भूमि स्वामित्व और प्रशासनिक व्यवस्थाएँ लागू कीं, जिससे कोल लोगों को आर्थिक और भूमि संबंधी गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ा। इस विद्रोह का नेतृत्व बुधु भगत, जोआ भगत, झिन्द्रिया मानकी, और मदारा महात जैसे नेताओं ने किया। विद्रोह की शुरुआत में कोल लोगों ने कई गाँवों और शहरों पर कब्जा कर सफलता पाई, परंतु बाद में अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबा दिया। फिर भी इस संघर्ष ने छोटा नागपुर में ब्रिटिश नीतियों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला।
महान कोल विद्रोह के प्रमुख नेताओं में बुली महतो का भी नाम आता है, जिन्होंने अंग्रेजों के शोषण और साजिशों के खिलाफ निरंतर संघर्ष किया। 1831-32 में यह विद्रोह छोटानागपुर के राँची, सिंहभूम, पलामू, और सीमावर्ती बंगाल के जंगल-महाल तक फैल गया था।
छोटा नागपुर के कोल लोगों ने 1829 से 1839 के बीच ईस्ट इंडिया कंपनी के भूमि स्वामित्व और प्रशासनिक संस्थाओं के कारण होने वाली आर्थिक कठिनाइयों का विरोध किया। ब्रिटिश अभिलेखों में इसे “कोल विद्रोह” कहा गया है। इस आंदोलन में मुंडा, ओरांव और हो जैसी अन्य जनजातियाँ भी शामिल हुईं। विद्रोह 1819 के आसपास एक नए राजनीतिक एजेंट की नियुक्ति के विरोध में शुरू हुआ। बड़ी संख्या में लोग उन क्षेत्रों में बसे जहाँ कई आदिवासी जनजातियाँ निवास करती थीं। इन जनजातियों के पास कोई केंद्रीय शासन नहीं था, और उनकी ज़मीनें परहा या सभा से संबंधित परिवारों में विभाजित थीं।
कौन थे कोल विद्रोह के नायक बुली महतो
बुली महतो सोनाहातू प्रखंड के कोड़ाडीह गाँव के निवासी, क्षेत्र के जमींदार और समाज-प्रमुख थे। वे अक्सर घोड़े पर सवारी किया करते थे। बुली महतो राँची जिले के सोनाहातू और बंगाल के सीमावर्ती जंगल महाल क्षेत्र में कोल विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे।
इस आंदोलन के मुख्य कारणों में नए भूमि कर और कानूनों का लागू होना शामिल था। उस समय अंग्रेजों ने कई नए भूमि कर और कानूनों को लागू किया, जिससे कोल लोगों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इन करों और कानूनों ने कोल समुदाय के लिए जीवनयापन कठिन बना दिया, और कई लोगों को गरीबी की ओर धकेल दिया।
विद्रोह के अन्य प्रमुख कारणों में कोल लोगों को शिक्षा और सरकारी नौकरियों से वंचित करना और ऋण के लिए उनकी भूमि जब्त करना शामिल था।
अंग्रेजों के साथ बुली महतो का संघर्ष
उस क्षेत्र के जिला मजिस्ट्रेट एच. पी. रसेल (मुख्यालय बाँकुड़ा) विद्रोह की भयावहता से काफी चिंतित हो गया था। रसेल की अनुशंसा पर, मिदनापुर से सिल्ली, सोनाहातू और तमाड़ क्षेत्र में कोल विद्रोह को दबाने के लिए कप्तान हॉर्सवर्ग के नेतृत्व में सेना की एक टुकड़ी भेजी गई। कर्नल बोबेन को विशेष रूप से सोनाहातू और तमाड़ क्षेत्रों में विद्रोह को नियंत्रित करने की जिम्मेदारी सौंपी गई, और मेदनीपुर से भेजी गई सेना भी उनके नेतृत्व में रखी गई।
बुली महतो और उनके विद्रोही साथियों की कर्नल बोबेन की सेना से कई बार भिड़ंत हुई, जिसमें बड़ी संख्या में विद्रोही मारे गए। कर्नल बोबेन ने कोल विद्रोह को कुचलने में एक प्रमुख भूमिका निभाई और तमाड़, बुंडू, राहे, सिल्ली जैसे क्षेत्रों में सेना तैनात कर कोल विद्रोह के नेताओं को आत्मसमर्पण के लिए मजबूर कर दिया। अंग्रेजी सेना ने विद्रोह में शामिल गाँवों में आगजनी और विनाश कर लोगों में आतंक फैलाया।
कर्नल बोबेन की सेना के अत्याचारों के कारण बुली महतो को आंदोलन का क्षेत्र बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा। उनके कई साथी अंग्रेजी सेना के हाथों मारे जा चुके थे। ऐसी स्थिति में बुली महतो ने सोनाहातू, राहे, सिल्ली और तमाड़ के क्षेत्र छोड़कर सीमावर्ती जंगल महाल में कोल विद्रोह का नेतृत्व संभाल लिया। उस समय मानभूम क्षेत्र जंगल महाल जिले का हिस्सा था, जहाँ कुड़मी समुदाय का प्रभुत्व था।
बुली महतो के नेतृत्व में कुड़मी समाज के लोग भी आंदोलित हो उठे, और पुरुलिया, झालदा, मानबाजार, जयपुर, हुड़ा, बाघमुंडी जैसे क्षेत्रों में कोल विद्रोह की लहर तेज़ी से फैलने लगी। राजा, जमींदार और साहूकार घबरा गए और अपनी सुरक्षा के लिए अन्यत्र भागने लगे। इस बीच, जंगल महाल में विद्रोह को दबाने के लिए अधिक सेना भेजी गई। बंगाल सरकार ने जमींदारों और राजाओं के महलों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त सुरक्षा बल तैनात कर दिए। अंग्रेजी सरकार ने विद्रोह को दबाने और शासन की व्यवस्था बनाए रखने के लिए दमन और अत्याचार का सहारा लिया।
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गंगानारायण सिंह की बुली महतो से मुलाकात
कोल विद्रोह के दौरान ही 1832 में जंगल महाल जिले के बराहभूम क्षेत्र में गंगानारायण सिंह के नेतृत्व में भूमिज विद्रोह आरंभ हुआ। बराहभूम के राजपरिवार में उत्तराधिकारी को लेकर विवाद था, जिसमें गंगानारायण सिंह प्रमुख दावेदार थे, लेकिन बड़े होने के कारण गद्दी उनके सौतेले भाई को दी गई। इस कारण गंगानारायण की व्यक्तिगत कठिनाइयाँ बढ़ गईं, और वे साधु की तरह घर छोड़कर जनता के बीच निकल पड़े। इसी दौरान उनकी मुलाकात बुली महतो से हुई, जो उस समय जंगल महाल में कोल विद्रोह का नेतृत्व कर रहे थे।
बुली महतो ने गंगानारायण सिंह को आश्वासन दिया, “मैं आपकी लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर साथ दूँगा।” 1832 में विद्रोह का नेतृत्व गंगानारायण सिंह द्वारा ग्रहण किए जाने के बाद, इस आंदोलन ने राजनीतिक और राष्ट्रीय स्वरूप धारण कर लिया। कोल विद्रोह में पकड़े गए लोगों पर हिंसा के आरोप थे, जबकि भूमिज विद्रोह में गिरफ्तार लोगों पर मुख्य रूप से गंगानारायण, गर्दी सरदार, और सूरा नायक की सहायता का आरोप था। इसी प्रकार, बुली महतो और मजदूर भूमिज पर दीवान माधव सिंह की हत्या में गंगानारायण की मदद करने का आरोप लगा था। कोल विद्रोह में मुख्यत: स्थानीय गैर-आदिवासियों पर हमले हुए थे, लेकिन भूमिज विद्रोह में दूर-दूर तक हमले किए गए, क्योंकि गंगानारायण ने आसपास के सभी जमींदारों से सहायता की अपील की थी।
ब्रिटिश शासकों ने बुली महतो को कोल और भूमिज विद्रोह की कई घटनाओं का प्रमुख अभियुक्त मानते हुए उन्हें विद्रोही घोषित कर दिया। बुली महतो पर बराहभूम परगना के दीवान माधव सिंह की हत्या का गंभीर आरोप था, और इसके कारण उन्हें जिंदा या मुर्दा पकड़वाने के लिए इनाम की घोषणा भी की गई। ऐसा कहा जाता है कि 14 जून 1834 को, जब बुली महतो अपने साथियों के साथ एक अभियान पर पुरुलिया जा रहे थे, तो रास्ते में झुंजका गाँव में ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। उन्हें कालापानी की सजा देकर अंडमान-निकोबार जेल भेजा गया, जहाँ बाद में उनकी मृत्यु हो गई। स्थानीय लोकगीतों में भी बुली महतो की वीरता का वर्णन मिलता है।
संदर्भ
शैलेन्द्र महतो, झारखंड में विद्रोह का इतिहास, प्रभात प्रकाशन 2021
डॉ. बी. वीरोत्तम ‘झारखंड: इतिहास एवं संस्कृति’ बिहार हिंदी ग्रंथ अकादमी,2022
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में