नवाब तफज्जुल हुसैन: शौर्य और वीरता की कहानी
नवाब तफज्जुल हुसैन की वीरता और देशभक्ति भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों में दर्ज है। अंग्रेज उन्हें “भयंकर अपराधी” मानते थे और उनकी गिरफ्तारी के लिए इनाम की घोषणा की गई थी। नवाब ने अंग्रेजों के विरुद्ध जो कदम उठाए, उनके लिए उन्होंने कभी पछतावा नहीं किया। जीवन के अंतिम क्षणों तक, वे अपने विश्वास और दृढ़ता पर अडिग रहे।
1857 की क्रांति और फतहगढ़ की भूमिका
1857 में, पूरे देश में क्रांति की लहर दौड़ रही थी। ऐसे में फतहगढ़ इससे अछूता नहीं रह सकता था। इस क्षेत्र के ठाकुर जमींदार असंतोष से भरे हुए थे, पठान समुदाय अशांत था, और फर्रुखाबाद के नवाब तफज्जुल हुसैन के हृदय में अंग्रेजों के प्रति गहरा आक्रोश था। मई के मध्य तक, समूचे प्रांत में क्रांति की ज्वाला भड़क उठी।
फतहगढ़ में रहने वाले अंग्रेज भयभीत थे। वहां कर्नल स्मिथ के नेतृत्व में 10वीं पलटन तैनात थी। कर्नल स्मिथ को डर था कि उनकी पलटन कभी भी विद्रोह कर सकती है। 4 जून को, उन्होंने महिलाओं और बच्चों को नाव में बैठाकर कानपुर भेज दिया।
इस बीच, 10वीं पलटन के सैनिकों को सूचना मिली कि 41वीं पलटन के सैनिक बंदीगृह से छूटे कैदियों और सैन्य सामग्री के साथ गंगा नदी के किनारे पहुंच चुके हैं। इस खबर से 10वीं पलटन ने भी विद्रोह कर दिया। वे शोर मचाते हुए नदी तट पर पहुंचे और क्रांतिकारियों का गर्मजोशी से स्वागत किया। कर्नल स्मिथ और उनके साथी विवश होकर फतहगढ़ के किले में शरण लेने चले गए।
नवाब तफज्जुल हुसैन का शासन
10वीं और 41वीं पलटन के सैनिक फर्रुखाबाद पहुंचे और नवाब तफज्जुल हुसैन को गद्दी पर बैठा दिया। नवाब को 21 तोपों की सलामी दी गई और उन्हें शासक घोषित कर दिया गया।
नवाब तफज्जुल हुसैन ने सत्ता संभालते ही अंग्रेजों के खिलाफ निर्णायक कदम उठाए। उन्होंने आदेश दिया कि अंग्रेजों व ईसाइयों की संपत्तियों को नष्ट कर दिया जाए। फतहगढ़ के निकट हुसैनपुर के ग्रामवासियों ने उनके प्रयासों में बड़ी सहायता की।
नवाब को अंग्रेजों से गहरी नफरत थी। उन्होंने घोषणा की कि जो कोई भी किसी अंग्रेज को पकड़कर लाएगा, उसे 50 रुपये का इनाम दिया जाएगा।
नवाब तफज्जुल हुसैन सात महीने तक अंग्रेजों के विरुद्ध फर्रुखाबाद के शासक रहे। उन्होंने शासन प्रबंध को सुव्यवस्थित करने का प्रयास किया । अशरत ख़ान, मुल्तान ख़ान, हैदरअली तथा मोहम्मद तकी नवाब की व्यक्तिगत मंत्रणा सभा के सदस्य थे।
नवाब के राज्य में केवल फर्रुखाबाद ही नहीं बल्कि एटा का भी कुछ भाग सम्मिलित था । समस्त सीमा को पूर्वी तथा पश्चिमी, दो भागों में बांट दिया गया था तथा उनकी देख रेख का भार नाज़िमों को सौंपा गया था। बड़े-बड़े मुकदमों का निर्णय मुफ़्तियों द्वारा किया जाता था । छोटे-छोटे मामलों का निर्णय तहसीलदार करते थे । राजस्व के मुकदमों अथवा किराये के मुकदमों का निर्णय भी तहसीलदार करते थे।
अंग्रेजों के समय की भांति भूमि- कर अब भी राज्य की आय का प्रमुख साधन था। अधिक आय के लिए नगर शुल्क अथवा चुंगी बढ़ा दी गई थी। फेरियों (नावों के द्वारा प्राप्त शुल्क सिपाहियों के लिए छोड़ दिया गया था । कोज़ान और वालेस के अनुसार खसखस अथवा पोस्ता की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। नवाब ने अफ़ीम (पोस्ता द्वारा तैयार किया हुआ नशे का विषैला पदार्थ) का भंडार एकत्रित कर लिया था जिसे बेच कर वह खजाने में अधिक धन जमा करना चाहते थे।
नवाब तफज्जुल हुसैन की सेना में सीतापुर की 41 वीं पलटन के तथा कुछ स्थानीय सैनिक भी थे। नवाब ने सेना को सुदृढ़ करने का प्रयास किया । उन्होंने अश्वारोहियों की संख्या को बढ़ाकर 2,200 कर दिया। बाद में उन्होंने पैदल तथा अश्वारोहियों की ग्यारह पलटनों का निर्माण किया । 24 तोपें तथा 200 तोपची नियुक्त किये गये । आगा हुसैन को प्रमुख सेनापति बनाया गया । नवाब तफज्जुल हुसैन का सैन्य गठन एवं शासन प्रबंध आस-पास के सब जिलों के शासन प्रबंध से उत्तम था ।
फतहगढ़ के किले में अंग्रेजों का संघर्ष
नवाब तफज्जुल हुसैन ने जिस समय फर्रुखाबाद का शासन- भार संभाला, अंग्रेज अधिकारियों ने फतहगढ़ के किले में शरण ले ली । फर्रुखाबाद के किले को क्रांतिकारियों ने चारों ओर से घेर रखा था। वे बार- बार उन पर गोलियों की वर्षा करते थे।
क्रांतिकारियों ने रात और दिन लग कर एक सुरंग बनायी जिसके विस्फोट से सारा किला हिल उठा । क्रांतिकारी निरंतर किले पर चढ़ने का प्रयास कर रहे थे। अंग्रेजों को अब किले की रक्षा करना कठिन लग रहा था।
कर्नल स्मिथ तथा उनके साथी तीन नावों में बैठकर 4 जुलाई को प्रातः दो बजे कानपुर की ओर चले गये। क्रांतिकारियों को उनके भागने का आभास मिल गया। वह चिल्लाते हुए उनके पीछे भागे- “फिरंगी भाग रहे हैं… पकड़ो।” अंग्रेजों ने शीघ्रता से नावें चलाईं। सिपाहियों ने उनका पीछा किया। उन्होंने नावों पर गोली चलाई।
बहुत से अंग्रेजों को मौत के घाट उतार दिया गया और बहुत से घायल हो गये, जो लोग बचकर बिठूर पहुंचे उन्हें वहां पर पकड़ लिया गया तथा उनमें से अधिकांश को जान से हाथ धोना पड़ा।
नवाब तफज्जुल हुसैन का अंग्रेजों से संघर्ष
नवाब तफज्जुल हुसैन की अंग्रेज सेना से चार बार मुठभेड़ हुई। पहली लड़ाई कन्नौज में हुई, दूसरी लड़ाई कासगंज में हुई तथा तीसरा युद्ध पटियाली में हुआ । चौथा तथा अंतिम युद्ध काली नदी के किनारे पर हुआ। चौथे तथा निर्णायक युद्ध के समय तक क्रांति ने दूसरा रूप ले लिया था । अंग्रेज स्थान-स्थान पर विजयी होने लगे थे।
सितंबर 1857 में अंग्रेजों ने दिल्ली पर पुनः अधिकार कर लिया था | नवंबर 1857 में अंग्रेजों ने लखनऊ पर भी विजय प्राप्त कर ली। तात्या टोपे भी पराजित हो गये थे | अब अंग्रेजों का ध्यान फतहगढ़ की ओर आकृष्ट हुआ। अंग्रेजों की एक सेना फतहगढ़ की ओर बढ़ रही थी। सर कालिन्स कानपुर से फतहगढ़ की ओर बढ़े । नवाब तफज्जुल हुसैन ने अपनी समस्त सेना को अंग्रेजों का मुकाबला करने के लिए भेजा।
दुर्भाग्यवश 2 जनवरी, 1858 को नवाब के सेनापति ठाकुर पांडे ने लड़ाई के मैदान में वीरगति प्राप्त की। ठाकुर पांडे की मृत्यु के उपरांत नवाब की सेना फर्रुखाबाद लौट आई अंग्रेजों ने 2 जनवरी, 1858 को फतहगढ़ के किले में प्रवेश किया। उनके पहुंचने से पहले ही नवाब तफज्जुल हुसैन तथा शहज़ादा फिरोज़ ने नगर छोड़ दिया तथा वे गंगा नदी को पार कर बरेली की ओर चले गये।
अंग्रेजों को किले के अंदर बहुत-सा धन और सैन्य सामग्री मिली। उनको लगभग दस लाख रुपये तथा बहुत- सी लकड़ी मिली। यह लकड़ी तोपों की फैक्ट्री में काम आती थी। किले के अंदर बारूद और सैन्य सामग्री भी बनाई जाती थी। अंग्रेजों को बहुत से सैनिकों के कपड़े, छोलदारियां तथा तोपें मिलीं। क्रांतिकारियों को किला छोड़ने से पहले समस्त सैन्य सामग्री को नष्ट कर देना चाहिए था। अंग्रेजों के हाथ में धन और सैन्य सामग्री पड़ने देना उनकी एक बड़ी भूल थी ।
नवाब तफज्जुल हुसैन को पकड़ने के लिए 10,000 रुपये का इनाम
विजयी अंग्रेजों ने भारतीयों से पूरा-पूरा बदला लिया । अस्थायी सैनिक न्यायालयों ने कितने ही भारतीयों को मृत्यु-दंड दिया तथा उन्हें पेड़ों की शाखाओं से लटका कर फांसी दी । नवाब तफज्जुल हुसैन के महल को मिट्टी में मिला दिया गया। उनकी पत्नी बिल्किस जमानिया बेगम की धन-संपति छीन ली गई । नवाब के परिवार के बहुत से लोगों को मृत्यु- -दंड दिया गया। अंग्रेज सरकार ने नवाब तफज्जुल हुसैन को पकड़ने के लिए 10,000 रुपये का इनाम घोषित किया।
नवाब तफज्जुल हुसैन तथा अन्य पराजित क्रांतिकारी नेपाल की तराई की ओर चले गये थे। सर कालिन कैम्पबेल उनका निरंतर पीछा कर रहे थे। नेपाल के राणा जंगबहादुर को क्रांतिकारियों से कोई सहानुभूति नहीं थी । अंत में बहुत से क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के सम्मुख आत्म-समर्पण कर दिया |
नवाब तफज्जुल हुसैन भी उनमें से एक थे नवाब तथा उनके साथियों ने राप्ती नदी को पार किया। उन्होंने और उनके 200 साथियों ने अंग्रेजों के सम्मुख आत्म समर्पण कर दिया। वे लोग हाथियों और पालकियों पर बैठकर अंग्रेजों के कैम्प तक पहुंचे थे। उनके पीछे-पीछे स्थानीय लोगों की भीड़ थी। नवाब तफज्जुल हुसैन पर निरपराध अंग्रेज स्त्री और बच्चों को मारने का आरोप लगाया गया था। दो ईसाई स्त्रियां नवाब तफज्जुल हुसैन से पहले ही परिचित थीं। उन्होंने बार-बार कहने का प्रयास किया कि नवाब निरपराध हैं परन्तु अंग्रेज उन्हें अपराधी मानते रहे।
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देशद्रोह और फतहगढ़ के हत्याकांड के अपराध
नवाब तफज्जुल हुसैन पर देशद्रोह और फतहगढ़ के हत्याकांड के अपराध के लिए मुकदमा चला। उन्हें सब अभियोगों के लिए दोषी ठहराया गया तथा न्यायालय ने उन्हें प्राणदंड दिया। जिस समय अंतिम निर्णय सुनाया गया, न्यायालय का कमरा भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। नवाब तफज्जुल हुसैन उस समय भी शांत थे तथा उनके मुख पर ‘क्रुद्ध’ एवं ‘निरपेक्ष’ भाव था।
न्यायाधीश ने कहा कि नवाब ने केवल देशद्रोह ही नहीं किया बल्कि निरपराध स्त्री बच्चों की नृशंस हत्या भी की है। मुकदमे के समय भी उनके मुख पर पश्चाताप का कोई चिह्न नहीं दिखाई दिया । वह पहले से ही जानते थे कि अंग्रेजों के न्यायालय में अपने को निर्दोष सिद्ध करना असंभव है । वह एक वीर सेनानी की भांति अडिग खड़े रहे ।
नवाब तफज्जुल हुसैन के आत्म समर्पण से पहले मेजर बरो ने उन्हें एक पत्र लिखा था । इस पत्र में लिखा हुआ था कि नवाब निश्शंक भाव से आत्म-समर्पण कर सकते हैं क्योंकि उनके सिर पर किसी यूरोपियन को मारने का अपराध नहीं है। इस पत्र के आधार पर न्यायाधीश ने नवाब की सज़ा को ‘मृत्यु-दंड से बदलकर आजीवन कारावास में परिवर्तित कर दिया ।
निर्णय होते ही नवाब से कहा गया कि वह अपने रहने के लिए देश से बाहर कोई भी स्थान चुन सकते हैं। नवाब तफज्जुल हुसैन ने मक्का जाने का निर्णय लिया। नवाब को तैयारी के लिए थोड़ा सा समय दिया गया | नवाब आजीवन कारावास से पहले बेगमों तथा बच्चों से अंतिम बार मिलना चाहते थे । उन्हें केवल कुछ क्षणों के लिए अपने परिवार को देखने की अनुमति मिली। इस दुःखद अश्रुपूर्ण मिलन के तुरन्त बाद उन्हें लोहे की भारी-भारी बेड़ियां पहना दी गई।
उन्हें अपने साथ केवल दो सहायक ले जाने की अनुमति मिली थी। उनकी गाड़ी के चारों ओर भारी पहरा था तथा छह बंदूकधारी साथ-साथ चल रहे थे। जिस समय उनकी गाड़ी चली, देशवासियों की भीड़ उन्हें अंतिम विदा देने के लिए वहां एकत्रित हो गई थी। सबकी आंखें अश्रुपूरित थीं । वह देश को छोड़कर जा रहे थे परन्तु उनकी अमिट स्मृति देशवासियों के हृदय में थी ।
संदर्भ
उषा चम्द्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, प्रकाशन विभाग
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में