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नेहरू को लोकदेव नेहरू क्यों कहते थे रामधारी सिंह दिनकर

[रामधारी सिंह दिनकर (1908-1974) हिन्दी के महत्त्वपूर्ण कवि और लेखक हैं। वह राज्यसभा के सदस्य थे, तब लगभग 12 वर्ष नेहरू के समीप रहे और उनको नेहरू को जानने-समझने का अवसर मिला। उनकी कालजयी रचना भारतीय संस्कृति का इतिहास हैं जिसका शीर्षक संस्कृत्ति के चार अध्याय है। नेहरू ने इस किताब की भूमिका लिखी थी।

नेहरू के देहान्त के बाद दिनकर ने उनसे जुड़े अपनी संस्मरण लिखे जिसमें नेहरू पर उनके अपने विचार भी हैं। उन्होंने अपनी इस किताब का शीर्षक रखा-लोकदेव नेहरू। यह आलेख उसी किताब का अंश है जिसे दिनकर संमग्र से लिया गया है।]

कविताएँ सुनकर नेहरू क्या प्रतिक्रिया करते यह उत्सुक कभी पूरी न हुई

पंडित जी कवियों का आदर करते थे, किन्तु कविताओं से वे बहुत उद्धेलित कभी भी नहीं होते थे। संसद सदस्य होने के बाद मैं बहुत शीघ्र पंडितजी के करीब हो गया था। उनकी आंखों से मुझे बराबर प्रेम और प्रोत्साहन प्राप्त होता था और मेरा ख्याल है, वह मुझे कुछ थोड़ा चाहने भी लगे थे।

मित्रवर फिरोज गांधी मुझे मज़ाक़ में महाकवि कहकर पुकारा करते थे। सम्भव है, पंडित जी ने कभी यह सुन ली हो, क्योंकि दो-एक बार उन्होंने भी मुझे इसी नाम से पुकारा था। किन्तु आओ महाकवि, कोई कविता सुनाओ, ऐसा उनके मुख से सुनने का सौभाग्य कभी नहीं मिला।

कविताएँ सुनकर उनकी प्रतिक्रिया क्या होती है, यह जानने को मैं बराबर उत्सुक रहता था, किन्तु उनकी प्रतिक्रिया पकड़ में बहुत कम आती थी।

एक बार होली के अवसर पर प्रधानमंत्री के घर पर जो जलसा हुआ, उसमें जोश मलीहाबादी भी आए थे और उन्होंने उठो कि नौबहार है नामक अपनी नज़्म पढ़ी थी। यह कविता पंडित जी ने बड़े ध्यान से सुना था और एक बार बेताब होकर कुछ बोल भी पड़े थे। फिर मैंने भी एक कविता पढ़ी, मगर पंडित जी का चेहरा मैं देख नहीं सका। जब मैं बैठ गया, पंडित जी उठ खड़े हुए और उन्होंने ऐलान किया,

जाहिर है कि अब कविता का सिलसिला बन्द कर देना चाहिए। मुझे ठीक-ठीक पता नहीं चला कि ऐसा उन्होंने ख़ुश होकर कहा या इस आशंका से कि दो कवियों के बीच कहीं कोई स्पर्धा न आरम्भ हो जाए।

गीता का द्वितीय अध्याय बार-बार पढ़ते थे नेहरू

संसद सदस्य होने के बाद जब मैं पहले-पहल पंडित जी से मिलने गया, मैं उनके लिए थोड़ी-सी पुस्तक साथ ले गया था। पंडित जी ने पुस्तकों को इस भाव से ग्रहण किया, मानो इतना क़ीमति उपहार उन्हें पहले कभी और न मिला हो। फिर बड़े प्यार से बोले, आप मेरे लिए कविताएँ ले आए हैं। अच्छा, मैं इन्हें देखूंगा।

मैंने कहा, पंडित जी, देखने का समय आपको कहाँ से मिलेगा? मैं तो सिर्फ इसलिए ले आया हूँ कि आपके पुस्तकालय में ये भी पड़ी रहें।

वह बोले, नहीं, इन्हें मैं अपने सोने के कमरे में रखूंगा। सोने से पहले थोड़ा-बहुत पढ़ लेता हूँ।

पहली ही मुलाकात में मैंने एक ढिठाई की थी। बातों के सिलसिले में मैंने उनसे पूछ लिया था, पंडित जी, आपने क्या-क्या पढ़ा है? प्रश्न का आशय मुझे समझाना नहीं पड़ा।

वह ख़ुद ही बोले, फारसी का ज्ञान मुझे नहीं है। अंग्रेजी और फ्रेंच के सिवा मैंने हिन्दी पढ़ी थी। थोड़ी-सी संस्कृत भी पढ़ने का मौका मिला था, किन्तु संस्कृत में जो कुछ पढ़ा था, वह सब-का-सब मुझे याद है।

गीता वह जब-तब पढ़ा करते थे, यह खबर उनके मरने के बाद छपी है; किन्तु फीरोज़ से एक बार सुना था कि गीता का द्वितीय अध्याय पंडित जी बार-बार पढ़ते हैं और वह अध्याय उन्हें लगभग कंठस्थ है।

स्वर्गीय पंडित रामनरेश त्रिपाठी संसद में आना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि इस विषय की चर्चा पंडितजी से मैं ही करूं। इसी सिलसिले में त्रिपाठी जी ने मुझे बताया था कि एक समय, मोतीलाल जी के कहने से वे जवाहरलाल जी को तुलसीकृत रामायण पढ़ाया करते थे।

आधुनिता के ध्वजधारी नेहरू की ममता प्राचीन भारतीय संस्कृति से भी थी

भारत के मन को आधुनिक बनाने की दिशा में जवाहरलाल ने जो अथक प्रयत्न किया, वह विस्मयकारी था। किन्तु आधुनिकता के इतने बड़े ध्वजधारी होने पर भी प्राचीन भारत के प्रति उनमें एक प्रकार की ममता थी, जो कभी-कभी प्रत्यक्ष होती थी।

एक बार मिलने को उन्होंने मुझे विदेश मंत्रालय में बुलाया और बात खत्म होने के बाद अपने साथ मुझे एक छोटी-सी गोष्ठी में ले गए, जहा अफ्रीका के छात्रों का दल उनकी इन्तज़ारी कर रहा था। उन्हें सम्बोधित करते हुए पंडित जी ने कहा,

आप जिस देश में आए हैं, वह बड़ा ही पुराना देश है। इसकी सभ्यता की कई परतें हैं और देश में घूमने पर इनमें से हर परत आपको कहीं-न-कही देखने को मिल जाएगी। यहाँ कुछ चीजें आप ऐसी देखेंगे जो यूरोप और अमेरिका में भी हैं और कुछ बातें ऐसी मिलेंगी, जिन्हें समझने में आपको परेशानी होगी। मगर यहाँ की हर चीज़ अहमियत रखती हैं, क्योंकि हिन्दुस्तान जैसा भी है, वह इन सभी चीजों के मेल से बना है। सभ्यता की जो परतें आपको खोखली मालूम हों, उनके बारे में यह समझिए कि किसी समय वे भी सारपूर्ण थी।

क्यों गुस्सा आया  नेहरू को द्रोणाचार्य पर

एक बार संसदीय हिन्दी परिषद की गोष्ठी पंडित जी के घर पर हो रही थी। पंडित जी उस समय घर पर नहीं थे, भाषण देने शहर के बाहर कहीं गए हुए थे।

जब वे आए, गोष्ठी में मेरा व्याख्यान चल रहा था और मैं लोगों को यह बता रहा था कि भारतीय जनता के पूर्ण रूप से एक होने में बाधाएँ कहां-कहाँ पर हैं।

जब पंडित जी की बोलने की बारी आई, उन्होंने कहा, अभी मैं उड़ीसा गया हुआ था। सुना वहाँ के आदिवासी भाई आर्य वालों से नाराज़ हैं। वे कहते हैं कि एकल्व्य अर्नाय था और द्रोणाचार्य आर्य थे। इसी कारण द्रोणाचार्य ने उस अनार्य नौजवान का अगूंठा कटवा दिया। यह बात सुनकर श्रोता हंसने लगे किन्तु पंडित जी को हंसी नहीं आई बल्कि विचलित होकर उन्होंने कहा और अपनी बात मैं आपको बताऊँ, यह सब सुनकर द्रोणाचार्य पर मुझे गुस्सा हो आया।

द्वापर से कलियुग बहुत दूर पड़ता है। लेकिन सच्ची मानवता इस दूरी को नहीं मानती। किन्तु कितनी सजीव थी उस पुरुष की महानता, जो कलियुग में खड़ा होकर द्वापर के अन्याय से तिलमिला उठता था।

क्यों गांधी और नेहरू पराजित पुण्य के प्रतीक हैं…

चीन के आक्रमण के बाद देश में जो हिंसात्मक नारे लगाए जाने लगे, उनमें पंडित जी अत्यन्त दुखी हो गए थे। अपना दर्द उन्होंने कई रूपों में व्यक्त किया था जिसमें से एक रूप यह था कि अभी भी मैं अपने देश के पाशवीकरण को पसन्द नहीं कर सकता।

जब उन्होंने संसद में इस आशय की घोषणा की, मैने उसके जबाव में एक कविता लिखी थी, जो पशुराम की प्रतीक्षा में संकलित है। पंडित जी जिस ऊंचाईयों से अपनी वेदना का बखान कर रहे थे, उस ऊंचाई की मैंने दाद दी है, मगर निष्कर्ष मेरा यह था कि पशुओं को उत्तर पशुबल से ही दिया जा सकता है।

अक्टूबर 1962 से लेकर मार्च 1963 तक पंडित जी ने एक तरह से पंचधुनी तापकर तपस्या की थी। उनके चारों ओर क्रोध उबल रहा था, कटूक्तियों के बाण बरस रहे थे, क्षोभ की ज्वालामुखियाँ भड़क रही थीं, मगर तब भी वे अविचलित और शान्त थे। उन दिनों कानाफूसी चला करती थी कि पंडित जी का नेतृत्व समाप्त हो गया।

किन्तु, अब लगता है, उनके नेतृत्व की जैसी परीक्षा उन छह महीनों में हुई, वैसी परीक्षा और कभी नहीं हुई थी और अविचलित रहकर अपने अत्यन्त ऊंचे नेतृत्व का जैसा परिचय उन्होंने उन दिनों दिया, वैसा परिचय और कभी नहीं दिया था। जीत हमेशा सीमित होती है। उससे इतिहास को प्रकाश नहीं पहुँचता। इतिहास को रोशनी अक्सर उस आदमी से मिलती है, जो पुण्य की राह पर हार गया हो। कृष्ण और अशोक, कबीर और अकबर, गांधी और जवाहरलाल ये पराजित पुण्य के प्रतीक हैं।

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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