रायबरेली किसान आंदोलन के जननायक पंडित नेहरू
भारत कृषक देश है। भारत की 75 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, खेतिहर है और शेष चौथाई जन संख्या भी उन्हीं के आश्रित है।
जवाहरलाल जी के शब्दों में, “ब्रिटिश सरकार की सारी मशीन किसानों के पैसे से ही चल रही है, फौज-व्यय में और वायसराय, गवर्नरों और दूसरे हुक्मरानों की लंबी-चौड़ी तनख्वाहों में जो रुपया खर्च किया जाता है वह कहां से आता है? भारत के दरिद्रतापूर्ण देहातों से। हमारे शहर भी देहातों के व्यय पर ही गुजर-बसर करते हैं।” भारत के किसानों के उद्धार और भारत के उद्धार का अर्थ एक ही है।
कैसे हुई किसान सभा की स्थापना
इसी उद्देश्य को लेकर संयुक्त प्रांत और विशेषतया अवध के किसानों को उन्नति शील बनाने के लिए महामना पं. मदन मोहन मालवीय जी के प्रयास से 1915 में ‘किसान सभा’ स्थापित हुई थी।
आरंभ में ‘किसान सभा’ का उद्देश्य था किसानों को खेती-बाड़ी के आधुनिक ढंग को बतलाना, कॉपरेटिव सोसायटियों द्वारा कम सूद पर पूंजी सुलभ कराना और जमींदारों के आतंक और जुल्म का सामना करने के लिए उनमें संगठन का बीज बोना। पं. इंद्रनारायण द्विवेदी, बाबा रामचंद्र, बाबू पुरुषोत्तम दास टंडन और पं. गौरीशंकर मिश्र ने इस कार्य में आगे बढ़कर हाथ बढ़ाया और किसान आंदोलन में जान फूंक दी। जवाहरलाल नेहरू सबसे पहले किसान आंदोलन की ओर 1918 में आकृष्ट हुए और उसी वर्ष पं. नेहरू किसान सभा के उपसभापति बनाए गये थे।
किसान समस्या के संपर्क में आते ही इन भुखमरों से नेहरू को स्वाभाविक प्रेम हो गया था। किसानों की दरिद्रता का सच्चा ज्ञान प्राप्त कर पं. नेहरू का हृदय रोता था। जवाहरलाल नेहरू ने कभी नहीं सोचा था कि हमारे ही देश में हमारे अगणित भाई ऐसे भी हैं, जो पेटभर भोजन भी नहीं पाते और गर्मी तथा सर्दी में शरीर से चिथड़े लगाए हुए टूटी-फूटी झोंपड़ियों में रहते हैं।
दिवस- रात परिश्रम करके मनुष्य मात्र का उदर भरने वाले किसानों की दुर्दशा को देखकर जवाहरलाल नेहरू सिहर उठते थे और उन्हें समाज, पूंजीवाद तथा तत्कालीन ब्रिटिश सरकार से घोर घृणा हो गई थी।
जब पं. नेहरू ने किया किसान आंदोलन का नेतृत्व
1919 से 1921 तक किसान आंदोलन ने जो उग्र रूप धारण किया था, उसका सबसे बड़ा श्रेय जवाहरलाल नेहरू को हीं था। सारे अवध में और खासकर प्रतापगढ़ जिले में रात-दिन भ्रमण करना, उपदेश देना और किसानों को संगठित करना ही उनका कार्य था ।
जवाहरलाल नेहरू पीड़ित कृषकों के प्रेम में बंधकर बहुधा किसानों की झोंपड़ियों में कम्बल के उढ़ौने-बिछौने पर सोते थे। पाश्चात्य वेष-भूषा से उन्हें घृणा हो गई थी और देहाती ग्रामीण परिधान में ही वे गांवों में जाते थे । अच्छे-से-अच्छे होटलों में खाना खाकर जो आनंद न मिला था, वह किसानों की मोटी रोटियों और सागपात में उन्हें हासिल होता था। घर से बाहर जो कभी पैदल न निकलते थे, जवाहरलाल नेहरू अरहर के खेतों में, पानी में और गांवों की गलियों में धोती- चढ़ाए सैकड़ों मील पैदल चलते थे। कितना बड़ा परिवर्तन था। उनके पूर्व परिचित लोग इस परिवर्तन को देखकर दांतों तले उंगली दबाते थे ।
इस अथक परिश्रम का फल जो हुआ उसे वे ही जानते होंगे, जो उन दिनों अवध में रहे होंगे। सारे अवध में एक बवंडर – सा आ गया था; किसानों के अटूट संगठन को देखकर ब्रिटिश सरकार और ताल्लुकेदारों को पानी नहीं पचता था। चार दिन के भीतर अवध का सारा किसान समाज किसी भी स्थान पर एकत्रित हो सकता था। किसान सभा की सूचनाएं एक दिन के भीतर करने से कान से कान में इस तरह से पहुंचती थी, जैसे बेतार का तार लगा हो। गांव-गांव में पंचायतें स्थापित हो गई थीं और प्रत्येक गांव में पंचायत का निर्णय मानना अनिवार्य था।
किसानों में उत्साह था और शक्ति थी, नेताओं के संकेत करने पर वे बड़े-से-बड़े त्याग कर सकते थे। उनके सम्मुख एक स्पष्ट कार्यक्रम उपस्थित था जिसमें उनका हित उनकी मोटी समझ में भी खूब आ जाता था, यही कारण था कि यह आंदोलन इतनी बेहतरी से संगठित हो सका।
कैसे उग्र हुआ रायबरेली का किसान आंदोलन
1919 में अवध के किसानों का सम्मेलन ऊंचाहार जिला रायबरेली में होना निश्चित हुआ। किसानों को सूचना दी गई कि प्रत्येक घर से एक आदमी आए। बस, गांव से गांव में बेतार का तार पहुंच गया और निश्चित तिथि के चार दिन पहले से लोगों का आना आरंभ हो गया। ऊंचाहार का दृश्य भी देखने योग्य था। तहसील के किसानों ने अपने-अपने घर से जाकर आटे का पहाड़ लगा दिया था और इसी प्रकार खाने की प्रत्येक वस्तु यहां जुटाई गई थी। प्रत्येक पुरुष भोजन सामग्री अपने लिए ले जाता था और एक भाई के लिए और किसानों के इस सामूहिक संगठन को देखकर ब्रिटिश सरकार घबरा गई।
रायबेरली जिले में धारा 144 लगाकर किसान सभा के मुंह पर ताला जड़ दिया गया और सशस्त्र फौज और पुलिस ऊंचाहार में तैनात की गई। गर्म खबर थी कि ऊंचाहार में ब्रिटिश सरकार गोली चलाए बिना न रहेगी। लाखों किसान सारे अवध से एकत्रित थे और पं. जवाहरलाल नेहरू और पं. गौरी शंकर मिश्र ही इसके अगुआ थे। बाबा रामचंद्र रोगग्रस्त रहने के कारण वहां उपस्थित न हो सके थे।
नेताओं की राय हुई कि निहत्थे किसानों की हत्या बचाने के लिए इस समय ब्रिटिश सरकार की आज्ञा का विरोध न कर सभा भंग कर देना ही विशेष उचित होगा। उस समय वहां ऊंचाहार में पचास-साठ हजार किसान पहुंच चुके थे और इससे कुछ ही कम रायबरेली के रेलवे स्टेशन तथा शहर में पड़े हुए थे।
गौरी शंकर जी ऊंचाहार में एकत्रित लोगों के शांत करने और वापस करने के लिए गए और जवाहरलाल नेहरू रायबेरली से लोगों को वापस करने के लिए रह गए थे। लौटने की प्रार्थना करने पर किसान कहते थे कि नेहरू जी आएं या बाबा रामचंद्र आएं तो हम मानें। पं. नेहरू के कहने पर कि मैं ही नेहरू हूं, बड़ी कोशिशों व अनुनय-विनय के पश्चात् वे कहीं हटते थे। किसानों के संगठन का साहस दिखाकर और सामूहिक संगठन की दीक्षा देकर पं. जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें वापस कर दिया और ऊंचाहार में गोली चलते-चलते रह गई ।
रायबरेली हत्याकांड किसान आंदोलन की महत्त्वपूर्ण घटना थी
रायबरेली का हत्याकांड भी किसान आंदोलन की एक महत्त्वपूर्ण घटना थी। अवध के एक ताल्लुके के राजा साहब अत्यंत विलासी थे और वे रानी को बहुत कष्ट देते थे। रानी ने गांव की पंचायत से अपील की और पंचों ने रानी के पक्ष में फैसला देकर राजा को पंचायती न्याय मानने के लिए विवश किया। राजा उस समय मान गए, किंतु बाद में उन्होंने पुलिस में रिपोर्ट कर दी और पंच गिरफ्तार कर लिए गए।
जिस किसान ने सुना, वही रायबेरली की ओर दौड़ पड़ा और रायबरेली में नदी के पुल के उस पार किसानों की भीड़ बढ़ती ही गई। ब्रिटिश सरकार भी बेसुध न थी। किसानों को जुटा हुआ देखकर उसे बलवा होने का पूरा भय था । सशस्त्र पुलिस और फौज पुल के इस पार तैनात की गई। किसान चिल्लाते थे कि बाबा रामचंद्र और पंचों को छोड़ दो। पुलिस कहती थी भाग जाओ अन्यथा नुकसान उठाओगे।
जवाहरलाल नेहरू को तार दे दिया गया था। जिस समय पं. नेहरू रायबेरली पहुंचे, उस समय नदी के इस पार सशस्त्र पुलिस थी और उस ओर निहत्थे किसान। पं. नेहरू ने उस पार जाने का बहुत प्रयत्न किया, किंतु उन्हें बलपूर्वक रोक लिया गया। जिस समय गोली चली, पं. नेहरू का हृदय टूट गया, प्रत्येक गोली जो किसानों के लगी थी, उनके हृदय में सदा के लिए बैठ गई। वे उस पार जाने के लिए बहुत छटपटाए, किंतु रोक दिए गए। पांच मिनट तक गोली चली, न जाने कितने मरे और न जाने कितने लोग घायल हुए।
जवाहरलाल नेहरू दो दिन तक आहतों की सहायता करने के लिए रायबरेली ठहरे और उन्होंने किसानों को सान्त्वना दी। तत्पश्चात् विशेष आवश्यक राजनैतिक कार्य के कारण उन्हें इलाहाबाद चला आना पड़ा, किंतु यहां भी पं. नेहरू पीड़ित किसानों को न भूले और बहुत-सा रुपया उन्होंने उनकी सहायतार्थ भेजा।
अहसयोग के दिनों में भारतीय स्वतंत्रता के महत्त्वपूर्ण प्रश्न की ओर आकृष्ट होकर पंडित जवाहरलाल नेहरू किसान आंदोलन से विशेष संपर्क न रख सके। किसानों से पं. नेहरू को अत्यधिक प्रेम था और उनको स्वराज्य के प्रोग्राम में किसानों के हिताहित का सबसे पहले ध्यान रहता था।
रायबरेली में किसान आंदोलन शुरू हुआ था और इसे बाबा रामचंद्र ने जो फीजी से लौटे थे ताल्लुकेदारों के विरुद्ध शुरू किया था। जब आंदोलन तेज हुआ, तो रायबरेली से सात मील दूर रुस्तमपुर बाजार लुटवा दिया गया और भी ऐसी घटनाएँ हुईं, जिसके बाद श्री जवाहरलाल नेहरू किसानों से मिलने रायबरेली आए।
उनके स्वागत के लिए मुंशीगंज में किसानों की बड़ी भीड़ थी, परंतु श्री जवाहरलाल नेहरू को सई नदी के उस पार पुलिस द्वारा रोक दिया गया, फिर भी भीड़ नहीं हटी तो जनता पर पीछे से गोली चलाई गई। पुलिस ने कहा कि उसने गोली नहीं चलाई, लेकिन अनेक लोग मरे।
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मुंशीगंज हत्याकांड का सच सामने लाना था गणेश शंकर विद्यार्थी ने
एक अन्य मुकदमा था, जिसने नेहरू परिवार को रायबरेली जिले से परंपरागत तरीके से जोड़ दिया। इसे मुंशीगंज हत्याकांड का मुकदमा कहते हैं। गणेशजी ने यह समाचार पाकर एक विशेष प्रतिनिधि भेज कर हत्याकांड का पता लगाया ओर उसका पूरा विवरण ‘प्रताप’ में छापा ।
इस समाचार में कहा गया था कि वहाँ पर गोली ताल्लुकेदार वीरपाल सिंह ने चलाई थी और उनके कहने से ही और गोलियाँ चलीं। ये समाचार तो इलाहाबाद के ‘लीडर’, में ‘इंडिपेंडेंट’ पत्रों में भी छपे, परंतु श्री गणेशशंकर विद्यार्थी और ‘प्रताप’ के प्रकाशक श्री शिवनारायण मिश्रा पर मुकदमा चलाया गया। उसकी सुनवाई के लिए बड़ी भीड़ आती थी और उसमें मोतीलाल नेहरू और जवाहरलाल नेहरू जैसे लोगों ने गवाहियाँ दीं, लेकिन मजिस्ट्रेट ने दोनों अभियुक्तों को तीन- तीन माह की कैद और एक हजार रुपया जुर्माना कर दिया।
वे दोनों जेल चले गए, अपील भी खारिज हो गई। परिणामस्वरूप ‘दैनिक प्रताप’ भी बंद करना पड़ा और उसी बीच उन लोगों से पंद्रह-पंद्रह हजार रुपए के जमानती मुचलके भी माँग लिए गए। एक जेल से छूटे तो फतेहपुर में एक भाषण को आधार मानकर उन्हें फिर जेल भेज दिया गया, जहाँ वे दो साल रहे ।
किसान आंनदोलन ने पं.नेहरू को राजनीतिक जननायक बना दिया
पुलिस की ज्यादतियों और किसान आंदोलन से सीधे परिचय ने जवाहरलाल को हिला दिया था। अपने अनुभवों को याद करते हुए कुछ दिनों के बाद उन्होंने लिखा था, वह लिखते है-
“मुझे नहीं पता उन लोगों ने कैसा महसूस किया, पर मुझे अपनी भावनाओं के बारे में पता है । एक पल के लिए तो मेरा भी खून खौल उठा और मैं अहिंसा बिल्कुल भूल ही गया था; पर यह सब एक ही पल के लिए था । एक ऐसे नेता का विचार, जिसे ईश्वर की कृपा ने हमारे पास विजय के लिए भेजा था, मुझे आया और मैंने देखा कि किसान मेरे पास बैठे हैं और वे मुझसे कम उत्तेजित भी थे— और तब तक कमजोरी का वह पल जा चुका था ।
मैंने उनसे अहिंसा पर पूर्ण विनम्रता के साथ कहा, ‘मुझे उनसे अधिक इस पाठ की आवश्यकता है और उन्होंने मुझपर ध्यान दिया तथा शांतिपूर्वक चले गए ।’ नदी के दूसरी तरफ लोग मरे हुए और मरती हुई हालत में पड़े हुए थे। यह एक ही तरह की भीड़, एक ही तरह के उद्देश्य के लिए थी । फिर भी, जाने से पहले उनका हृदय रक्त में सना हुआ था।
आगामी कुछ दिनों तक जवाहरलाल उन्हीं क्षेत्रों में घूमते रहे और घायलों की हालत स्वयं ही देखते रहे। किसान हिंसा अब धीरे-धीरे अन्य जिलों, जैसे- रायबरेली, फैजाबाद और सुल्तानपुर में भी फैल चुकी थी । वहाँ के बाजार लूटे जा रहे थे तथा जमींदारों और पुलिस पर आक्रमण हो रहे थे।
यूनाइटेड प्रॉविंस के गवर्नर ने स्थिति की गंभीरता को देखते हुए मार्च 1921 में लिखा था – ” मैंने दक्षिण अवध के तीन जिलों को देखा है। यह क्रांति जैसी स्थिति की शुरुआत है।’
1920-21 में जवाहरलाल ने स्वयं को भी उन्हीं विरोध करनेवाले किसानों के बीच ही पाया था। वे उन्हीं की सभाओं में घूमते, उन्हीं की शिकायतें सुनते और उनसे वार्त्तालाप करते रहते थे। यह उनका ग्रामीण भारत से पहला परिचय ही नहीं था, बल्कि गंभीर राजनीति में उनके शामिल होने की शुरुआत थी । यह राजनीति भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के उस शीतकालीन सत्र से बिल्कुल अलग थी, जिसमें जवाहरलाल भाग लेने पहुँचे थे।
जवाहरलाल ने इससे कुछ अनुभव भी प्राप्त किए थे। उन्होंने लिखा- ” मैंने वह आवरण उठा दिया और भारतीय समस्या के उस मौलिक पहलू को खोलकर रख दिया, जिस पर राष्ट्रवादियों ने मुश्किल से ही कोई ध्यान दिया था।”इसने किसानों की दयनीय स्थिति से भी उनका परिचय कराया और उनके मस्तिष्क पर एक अमिट छाप भी छोड़ी । प्रतापगढ़ जाने के बाद से भारत के नंगे व भूखे जन-समूह का चित्र मेरे मन में बना रहता है। भारत की नई तसवीर उनके सामने आ चुकी थी, जिसमें ” नंगे, भूखे, दबे-कुचले व पीडित लोग थे । “
किसानों के बीच घूमते रहने से उनमें एक राजनीतिक जन नायक भी विकसित हुआ। गाँवों में जाने के पहले वे किसी जनसभा को मुश्किल से ही संबोधित कर पाते थे और उन्हें इसकी संभावना से ही भय लगता था । परंतु उन किसानों ने मुझसे मेरी झिझक छीन ली और मुझे लोगों के बीच में बोलना सिखा दिया। अब मैं उन गरीब बनावट – विहीन लोगों से कैसे शर्म कर सकता था!” वे इन लोगों से एक वक्ता के रूप में नहीं, बल्कि आमने-सामने की तरह बातें करते और जो उनके मन या मस्तिष्क में रहता, उसे वे उनसे कहते थे। उनके ऊपर यह प्रभाव तकरीबन एक दशक के अनुभवों के बाद ही पड़ा था।
जवाहरलाल नेहरू ने लिखा – “मुझे उनके साथ काम करने, मिलने-जुलने, उनकी कच्ची झोंपड़ियों में रहने तथा उनके निम्न स्तरीय भोजन में हिस्सा बँटाने का भी सौभाग्य प्राप्त हुआ और मैं, जो कि तलवार के सिद्धांत में यकीन रखता था, वह किसानों के द्वारा अहिंसा के सिद्धांत में बदल चुका है। मुझे यह विश्वास है कि उनमें अहिंसा भीतर तक है और यह उनके स्वभाव का हिस्सा है ।… यह जन समूह नहीं, बल्कि हम जो कि पश्चिमी माहौल में पले-बढ़े हैं, सहजतापूर्वक शांतिप्रिय तरीकों की कमी के बारे में बोलते रहते हैं। जनसमूह अहिंसा की ताकत से परिचित है।”
संदर्भ
डां लाल बहादुर सिंह चौहान, युगपुरुष पंडित जवाहरलाल नेहरू, सावित्री प्रकाशन, दिल्ली
श्री तिलक, गणेशशंकर विद्यार्थी, व्यक्तित्व और कृतित्व
रुद्रांक्षु मुखर्जी, नेहरू बनाम सुभाष,
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में