जलियांवाला नरसंहार से विचलित थे गांधी जी
महात्मा गांधी अप्रैल 1919 से पहले तक अंग्रेज सल्तनत के वफादार के तौर पर जाने जाते थे। लेकिन जलियांवाला बाग नरसंहार ने गांधी जी को झकझोर दिया। उनके कहने के बाद भी जब आरोपी अफसरों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई तो वे अंग्रेजों के कट्टर विरोधी बन गए। बापू ने 1919 से पहले कभी पंजाब का दौरा नहीं किया। हालांकि, वह जाना चाहते थे। उनको पता था कि पंजाब राजनीतिक दृष्टिकोण से बेहद संवेदनशील सूबा है। गदर आंदोलन के साथ 1905-07 में हुए स्वदेशी आंदोलन का केंद्र पंजाब ही था। वहां के लोगों ने जिस तरह से ब्रिटिश शासन का विरोध किया, उससे गांधी उनके कायल हो गए थे।
अमृतसर से उठी थी असहयोग की चिंगारी
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन दिसंबर 1919 में पंजाब के अमृतसर में आयोजित किया गया था। यह अधिवेशन यहाँ उसी वर्ष हुए भयानक अत्याचार की पृष्ठभूमि में हुआ था। दिसंबर 1919 में अमृतसर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ, जो 26 दिसंबर से लेकर 28 दिसंबर 1919 तक एचिसन पार्क (अब गोल बाग) में आयोजित हुआ था।
बापू के साथ पंडित मोती लाल नेहरू, मोहम्मद अली जिन्ना, सैफुद्दीन किचलू, डा. हाफिज मोहम्मद बशीर, डॉ. सत्यपाल, चौधरी बुग्गा मल भी इस अधिवेशन में शामिल हुए थे।
अमृतसर के एचिसन पार्क (अब गोल बाग) में आयोजित किए गए कांग्रेस अधिवेशन के दौरान महात्मा गांधी अचानक बीमार हो गए थे। उन्होंने अंग्रेज डॉक्टर से इलाज कराने की बजाए घरेलू उपचार को प्राथमिकता दी। उनके इलाज के लिए मुल्तानी मिट्टी मंगवाई गई और मुल्तानी मिट्टी की पट्टियां गांधीजी को बांधी गईं।
अधिवेशन के दौरान उन्होंने जलियांवाला बाग हत्याकांड और रॉलेट एक्ट का भारी विरोध किया और जलियांवाला बाग नरसंहार की घटना से आहत महात्मा गांधी ने यहीं से विद्रोह का ध्वज उठाया।
बंगाल के नेताओं सी. आर. दास, बी. सी. पाल और बी. चक्रवर्ती के विरोध के बावजूद नए संविधान (जिसे गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1919 नाम दिया गया था) पर काम करने के पक्ष में एक प्रस्ताव पारित किया गया। साथ ही भारत मामलों के विदेश मंत्री मांटेग्यू का भी धन्यवाद किया गया, जिन्होंने इसे लाने में इतनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
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अमृतसर कांग्रेस में लिए गए फैसले के लिए काफी हद तक गांधी जिम्मेदार थे, उन्होंने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट-1919 को सहमति देते हुए शाही उद्घोषणा का स्वागत किया था और अपने साप्ताहिक पत्र ‘ यंग इंडिया’ में 31 दिसंबर, 1919 को लिखा था-
‘सुधार एक्ट और साथ ही उद्घोषणा, यह दिखाता है कि भारत के प्रति न्याय करने की ब्रिटिश लोगों की मंशा कितनी ईमानदार है और इससे संदेह दूर हो जाना चाहिए… इसलिए हमारा यह दायित्व बनता है कि हम सुधारों की आलोचना करने के बजाय शांति से काम करना शुरू कर दें, ताकि उन्हें सफल बनाया जा सके।’
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राष्ट्रद्रोह मामले के सुनवाई में गांधीजी का बयान
लेकिन अगले नौ महीनों में घटनाक्रम अचानक नाटकीय ढंग से घटित हुआ। हकीकत में हुआ क्या था, इसे गांधी स्वयं अपने शब्दों में अधिक बेहतर तरीके से बता सकते हैं। उन्होंने अपने समाचार-पत्र में एक लेख लिखा, जिसे ब्रिटिश सरकार ने राष्ट्रद्रोही प्रकृति का पाया और जब इस मामले में मार्च 1922 में ब्रिटिश जज ब्रूमफील्ड उनके खिलाफ राष्ट्रद्रोह के मामले की सुनवाई कर रहे थे तो गांधी ने एक बहुत ही शानदार वक्तव्य दिया और इस वक्तव्य में उन्होंने विस्तार से बताया कि जीवन भर ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करने के बावजूद आखिर में वे क्यों उसके खिलाफ होने को मजबूर हुए? इसमें उन्होंने कहा—
‘पहला सदमा रॉलेट एक्ट के रूप में लगा, एक ऐसा कानून, जो लोगों से उनकी सारी असली आजादी लूटने के लिए बनाया गया था। मेरे भीतर से एक आवाज आई कि मुझे इस कानून के खिलाफ सघन आंदोलन का नेतृत्व करना चाहिए। उसके बाद पंजाब का खौफनाक मंजर, जिसकी शुरुआत जलियांवाला बाग (अमृतसर) नरसंहार से शुरू हुई, उसके बाद रेंगने के आदेश, सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाना और भी ऐसी ही अनेक अपमानजनक घटनाएँ, जिनकी व्याख्या नहीं की जा सकती मैंने यह भी पाया कि तुर्की की अखंडता तथा इस्लाम के पवित्र स्थलों के संबंध में भारत के मुसलमानों के सामने प्रधानमंत्री द्वारा योजना पूर्वक बोले गए शब्दों का मान नहीं रखा गया, प्रधानमंत्री ने अपना वादा पूरा नहीं किया।
लेकिन दोस्तों की गंभीर चेतावनियों और भविष्यवाणियों के बावजूद, 1919 में अमृतसर कांग्रेस में मैंने मोटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के प्रति सहयोग और काम करने के लिए लड़ाई लड़ी और यह लड़ाई इस उम्मीद के साथ लड़ी थी कि प्रधानमंत्री भारतीय मुसलमानों के साथ किया गया वादा निभाएँगे… कि पंजाब के घाव भरे जाएँगे… और सुधारों के अपर्याप्त और असंतोषजनक होने के बावजूद यह उम्मीद लगाई कि इससे भारत के जीवन में आशा के एक नए युग का सूत्रपात होगा। लेकिन यह सारी उम्मीदें चकनाचूर हो गईं।
खिलाफत का वादा पूरा नहीं हुआ। पंजाब के अपराध पर घड़ियाली आँसू बहाकर खानापूर्ति कर दी गई और अधिकतर दोषियों को सजा देना तो दूर, ये उलटे सेवा में अने रहे और कुछ तो भारतीय खजाने से पेंशन तक पाते रहे… कुछ मामलों में तो उन्हें इनाम भी दिए गए। मैंने यह भी देखा कि सुधारों से कोई हृदय परिवर्तन नहीं हुआ, उलटा यह पाया कि यह सुधार भारत की संपदा की और लूट-खसोट करने का केवल एक नया तरीका थे। उसकी गुलामी को और लंबे समय तक खींचने का साधन थे।
महात्मा गांधी ने ब्रिटिश वायसराय से कहा कि जनरल डायर और तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर माइकल ओड्वायर को नरसंहार के लिए दोषी मानकर तुरंत बर्खास्त किया जाए। लेकिन वायसराय ने जनरल डायर के एक्शन पर खेद जताया और ओड्वायर को सर्टिफिकेट ऑफ कैरेक्टर दे दिया। इसमें उनकी मुक्तकंठ से सराहना की गई। तब गांधीजी ने आंदोलन चलाने का फैसला किया।
संदर्भ
सुभाषचंद्र बोस- भारत का संघर्ष,प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में