जब खिलाफत आंदोलन में मौलाना आजाद हुए गिरफ्तार
भारतीय स्वतंत्रता-संग्राम के देशभक्तों और वीरों की पंक्ति में मौलाना अबुल कलाम आजाद का एक विशिष्ट स्थान है। मौलाना आजाद राष्ट्रवादी मुसलमानों में सबसे प्रमुख थे जिन्होंने मौहम्मद अली जिन्ना द्वारा प्रतिपादित द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को चुनौती देते हुए अखंड भारत के लिए संघर्ष किया। वह उन महान और अद्वितीय प्रतिभा-संपन्न राष्ट्रीय नेताओं की श्रेणी के थे जिन्होंने हमारे राष्ट्र का निमार्ण किया।
मौलाना आज़ाद जनवरी, 1920 में रांची से रिहा किए गए। वह सीधे कलकत्ता वापिस आए। रोलट एक्ट, अमृतसर में जलियांवाला बाग काण्ड, जनरल डायर और उसके सैनिकों के अत्याचार, सैकड़ों नर-नारियों की हत्या, नेताओं की पकड़-धकड़ आदि, यह सब घटनाएं घट चुकी थीं। मौलाना यह संकल्प करके आए थे कि वह केवल अध्ययन एवं लिखने पढ़ने का काम करेंगे, लेकिन इन बातों से वह अलग कैसे रह सकते थे ! मौलाना को आग में कूदना था और कूद पड़े। 1921 में उन्होंने कलकत्ता से एक समाचारपत्र “पैगाम” प्रकाशित किया। इसमें उन्होंने अपने दिल की बातें कही हैं:-
“1918 के अन्त में जबकि आशाओं और उमंगों की पूरी दुनिया लुट चुकी थी और उसकी वीरानियों और पामालियों पर से मुसीबतों का तूफान पूरे जोर-शोर के साथ गुजर चुका था, तो मैं रांची के शान्तिपूर्ण स्थान पर बैठा आशाओं की एक नई दुनिया के निर्माण को देख रहा था और यद्यपि दुनिया ने दरवाजों के बन्द होने की आवाजें सुनी थीं, मगर मेरे कान एक नए दरवाजे के खुलने पर लगे हुए थे।
मेरठ में उन दिनों खिलाफत कांफ्रेंस हो रही थी। मौलाना और गांधीजी उसमें शामिल हुए। असहयोग आन्दोलन का कार्यक्रम पहली बार इसी कांफ्रेंस में बताया गया। फिर कलकत्ता में खिलाफत कांफ्रेंस हुई, जिसमें मौलाना ने अध्यक्ष के रूप में भाषण देते हुए मुसलमानों से कहा कि वे इस कार्यक्रम को अपना आधार बनाकर चलें।
उस काल में मौलाना आज़ाद अधिक समय गांधीजी के साथ रहे और दोनों में परस्पर प्रेम बढ़ गया। गांधीजी आदमी को आसानी से पहचान लेते थे। उन्होंने मौलाना की बुद्धि, उनकी सच्चाई और दूरदृष्टि को परख लिया। इन दोनों में गहरा प्रेम था और जीवन के अन्तिम दिनों तक बना रहा ।
मौलाना आज़ाद की लोकप्रियता इतनी बढ़ चुकी थी कि लगभग एक हजार धार्मिक नेताओं तथा विद्वानों ने लाहौर में एक सभा में यह प्रस्ताव रखा कि मौलाना को ‘इमामुल – हिन्द’ (भारत के इमाम ) का दर्जा दिया जाए । देवबन्द और लखनऊ के पुराने विचार के मौलवियों ने भी मौलाना पर जोर डाला कि वे इसे स्वीकार कर लें। पर मौलाना बड़े विनम्र व्यक्ति थे। उन्होंने बड़ी नम्रता से इस प्रस्ताव को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद वह गिरफ्तार हो गए।
काफी रोचक थी मौलाना आजाद की गिरफ्तारी
मौलाना को अपनी गिरफ्तारी के बारे में पहले ही मालूम हो गया था। इसलिए उन्होंने महात्मा गांधी के नाम बधाई और देशवासियों के नाम उपरोक्त सन्देश लिख लिया था। उन्होंने जनता और विशेष रूप से मुसलमानों के लिए निम्नलिखित सन्देश दिया था :
“मोमिनीन (इस्लाम के सच्चे समर्थक), न तुम निराश हो, न दुखी। अगर सच्चा ईमान अपने अन्दर पैदा कर लो तुम्हीं सब पर छा जाओगे। हमारी सफलताएं चार सच्चाइयों पर निर्भर करती हैं और मैं इस समय भी सारे देशवासियों को इन्हीं के लिए आमंत्रित करता हूं – हिन्दू-मुस्लिम एकता, शान्ति, अनुशासन और बलिदान। मुसलमानों से मैं विशेष रूप से अनुरोध करूंगा कि अपने इस्लामी कर्तव्य को याद रखें और परीक्षा के इस निर्णयात्मक समय में अपने सारे भारतीय भाइयों से आगे निकल जाएं। अगर वे पीछे रहे तो उनका अस्तित्व विश्व के चालीस करोड़ मुसलमानों के लिए कलंक बन जाएगा।”
गिरफ्तारी की कहानी भी बड़ी रोचक है।
10 दिसम्बर को साढ़े चार बजे श्री गोल्डी, डिप्टी कमिश्नर स्पेशल ब्रांच, एक यूरोपीय इन्स्पैक्टर पुलिस के साथ आए मौलाना उस समय ऊपर की मंजिल पर अपने अध्ययन कक्ष में थे और श्री फज़लुद्दीन अहमद को पत्रों का जवाब लिखवा रहे थे। उन्होंने श्री गोल्डी को वहीं बुलवा लिया और उनके आने का आशय समझ गए।
श्री गोल्डी ने पूछा, “क्या आप हमारे साथ चलेंगे ?” इस पर फज़लुद्दीन अहमद ने पूछा कि क्या उनके पास वारन्ट है ? उत्तर मिला कि “नहीं”। लेकिन मौलाना वारन्ट के बगैर ही जाने के लिए तैयार हो गए। पांच-छ: मिनट में अन्दर जाकर तैयार हो गए और साथ चलने के लिए कहा।
इन्स्पेक्टर ने कहा कि इतनी जल्दी की जरूरत क्या है। यदि आप अपने साथ कोई चीज लेना चाहते हैं, तो ले लें। मौलाना ने एक गर्म चादर ओढ़ ली और कोई चीज साथ न ली। यह सब कुछ इतनी शान्तिपूर्वक हुआ कि लोगों को इसका ज्ञान हो सका।
इसके विपरीत जब मौलाना को रांची में नज़रबन्द किया गया था, तो पुलिस की अच्छी खासी संख्या थी ।
मौलाना को पहले पुलिस कमिश्नर के कार्यालय में पहुंचाया गया लगभग बीस मिनट के पश्चात देशबन्धु सी० आर० दास भी पहुंच गए। उसके बाद इन दोनों नेताओं को प्रेसीडेंसी जेल, अलीपुर के यूरोपियन वार्ड में अलग-अलग कमरों में बन्द कर दिया गया।
मौलाना का कहना है कि उनके दिमाग से एक बहुत बड़ा बोझ उतर गया। लगभग दो वर्ष के सतत परिश्रम के बाद सन्तोष के क्षण मिले थे और वह उस रात ऐसी नींद सोए कि पिछले दो साल में कभी नहीं सोए थे।
कौले फ़ैसल” (अन्तिम निर्णय) पर मौलान आजाद ने क्या कहा
प्रिंस आफ वेल्स भारत आ रहे थे। सरकार चाहती थी कि राजाओं, नवाबों, और दरबारी रईसों के सहयोग से साम्राज्य की शक्ति का पूरा प्रदर्शन किया जाए। कांग्रेस ने प्रिंस आफ वेल्स की यात्रा के बहिष्कार की घोषणा कर दी थी और इसके लिए स्वयंसेवक भर्ती करने शुरू कर दिए।
सरकार ने कांग्रेस सेवा दल को कानून-विरोधी घोषित कर दिया। सारे देश से इसका जवाब देने के लिए एक आन्दोलन उठ खड़ा हुआ और गिरफ्तारियां हुईं। कलकत्ता में मौलाना और देशबन्धु सी० आर० दास का नाम सबसे ऊपर था । देशबन्धु ने गिरफ्तारी की आशा से ही एक प्रेरणादायक बयान लिख रखा था। उन्होंने कहा :
“मैं अपने हाथों में हथकड़ियों और शरीर पर भारी जंजीरों का बोझ महसूस कर रहा हूं। सारा देश एक बड़ा जेलखाना है। कांग्रेस का काम हर हाल में जारी रहे। मैं जेल में रहूं या बाहर, इससे क्या फर्क पड़ेगा। मैं जिन्दा रहूं या मर जाऊं, इससे भी हमारी शक्ति नहीं टूट सकती।”
सारे देश में बिजली की एक लहर दौड़ गई। प्रिंस आफ वेल्स जहां भी गए, उनका बायकाट किया गया । मुट्ठी भर वफादारों को छोड़कर उसके स्वागत के लिए कोई दूसरा आदमी न था। मौलाना और देशबन्धु की गिरफ्तारी की खबर कलकत्ता में आग की तरह फैल गई। लोग दुख और क्रोध से भर गए लेकिन मौलाना के शान्ति के सन्देश पर डटे रहे। मुकदमा धीमी गति से चलता रहा। अन्त में देशबन्धु को छ: महीने तथा मौलाना को एक साल की कैद की सजा हुई।
केवल एक लिखित बयान दाखिल किया। यह बयान ऐतिहासिक महत्व का है और “कौले फ़ैसल” (अन्तिम निर्णय) के नाम से प्रसिद्ध है। महात्मा गांधी ने “यंग इंडिया” में लिखा कि इससे अधिक सबल, सच्चा और स्पष्ट बयान किसी सत्याग्रही का नहीं होगा। इसके अंश इस पुस्तक के अन्त में उद्धृत कि गए हैं। बयान के अन्त में मौलाना ने न्यायालय को सम्बोधित करते हुए कहा :
“श्रीमान मजिस्ट्रेट, अब मैं न्यायालय का और अधिक समय न लूंगा। यह इतिहास का एक रोचक तथा शिक्षाप्रद अध्याय है, जिसमें हम दोनों अपनी-अपनी भूमिका निभा रहे हैं। हमारे हिस्से में अभियुक्तों का कटघरा आया है और आपके हिस्से में मजिस्ट्रेट की कुर्सी। मैं स्वीकार करता हूं कि इस काम के लिए वह कुर्सी भी इतनी ही ज़रूरी है जितना कि यह कटघरा। आओ, इस चिरस्मरणीय काम को जल्दी खत्म कर दें। इतिहासकार हमारी प्रतीक्षा में हैं और भविष्य कब से हमारा रास्ता देख रहा है। हमें जल्दी-जल्दी यहां आने दो और तुम भी जल्दी-जल्दी फैसले लिखते रहो। अभी कुछ दिनों तक यह काम जारी रहेगा। जब तक कि एक दूसरी अदालत का द्वार न खुल जाए। यह ईश्वरीय कानून की अदालत है। समय इसका न्यायाधीश है। वह फैसला लिखेगा और उसी का फैसला अन्तिम निर्णय होगा। “
9 फरवरी, 1922 को मुकदमे की आखिरी पेशी से पहले मौलाना ने कलकत्ता के लोगों को हड़ताल या किसी प्रकार का प्रदर्शन करने से रोक दिया था। अतः 9 फरवरी को जब एक वर्ष कठोर कारावास की खबर लोगों को मिली तो वे अपने जोश और भावनाओं को दबाकर रह गए।
मौलाना ने मजिस्ट्रेट से मुस्कराते हुए कहा कि यह सज़ा तो बहुत कम है और मेरी आशा के विपरीत है।
कितना स्पष्ट कितना बहादुर! देश की आज़ादी के लिए मर-मिटने वाला यह साहसी वीर हँसते-हँसते जेल चला गया और जैसे वह नियमित रूप से कांग्रेस के कार्यालय जाता करेत थे।
मौलाना की बेगम साहिबा ने गांधीजी को भेजा था तार
बेगम साहिबा ने मौलाना को सज़ा हो जाने के बाद महात्मा गांधी को अहमदाबाद और बारदोली के पतों पर यह तार दिया था, लेकिन केन्द्रीय तार घर कलकत्ता ने उसे रोक दिया :-
“मेरे पति मौलाना आज़ाद के मुकदमे का फैसला आज सुना दिया गया। उन्हें केवल एक साल की सख्त कैद की सज़ा दी गई। यह उससे बहुत कम है जिसके सुनने के लिए हम तैयार थे। यदि सज़ा और कैद राष्ट्र सेवा का पुरस्कार है, तो आप स्वीकार करेंगे कि इस में भी उनके साथ घोर अन्याय किया गया। यह तो उससे बहुत कम है जिसके वह अधिकारी थे। मैं आपको सूचित करना चाहती हूं कि बंगाल में जो जगह खाली हुई है, उसके लिए मैंने अपने आप को प्रस्तुत कर दिया है और वे सब काम नियमित रूप से होते रहेंगे जो उनकी उपस्थिति में होते थे।
“मेरे लिए यह एक बड़ा बोझ है, लेकिन मुझे ईश्वर पर पूरा भरोसा है। अलबत्ता उनकी जगह केवल बंगाल ही में खाली नहीं है, बल्कि पूरे देश में, इसके लिए कोशिश करना मेरे बस से बाहर है।
“मैं पहले चार साल तक उनकी नज़रबन्दी के समय में एक परीक्षा से गुजर चुकी हूं और मैं कह सकती हूं कि इस दूसरी परीक्षा में भी पूरी सफल रहूंगी। पिछले पांच वर्षों से मेरा स्वास्थ्य खराब है। दिमागी मेहनत से बिल्कुल मजबूर हूं। इसलिए मेरी इच्छा होते हुए भी मौलाना मुझे काम करने से रोकते हैं।
“लेकिन मैंने इरादा कर लिया था कि उनको सजा हो जाने के बाद मैं अपना जीवन उन कर्तव्यों के पालन में लगा दूंगी। मैं आज से बंगाल प्रान्तीय खिलाफत कमेटी के सारे कामों को अपने भाई की सहायता से पूरा करूंगी। उन्होंने मुझसे कहा है कि यह सन्देश आपको पहुंचा दूं कि इस समय दोनों में से कोई पक्ष सन्धि के लिए तैयार नहीं, न सरकार न देश | इसलिए हमारे सामने केवल अपने आप को तैयार करने का ही काम है। बंगाल जिस तरह आज सबसे आगे है, उसी तरह भविष्य में भी सबसे आगे रहेगा।”
सिविल नाफरमानी ज़ोरों पर थी। लाला लाजपतराय, पं० मोतीलाल नेहरू, चित्तरंजन दास और मौलाना आज़ाद जेल में थे। अहमदाबाद में हकीम अजमल खां की अध्यक्षता में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन हुआ । नागपुर के पिछले वर्ष के अधिवेशन में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन के हथियार से एक वर्ष के अन्दर ही स्वराज्य प्राप्त करने की आशा दिलाई थी। वह साल तो गुजर गया। बीस-पच्चीस हजार सत्याग्रही जेल में थे। फिर भी, अहमदाबाद में महात्मा गांधी के अहिंसावाद पर आधारित सत्याग्रह का पूरा विश्वास प्रकट किया गया।
संदर्भ
अर्श मलसियानी, आधुनिक भारत के निर्माता-मौलाना अबुल कमाल आज़ाद, प्रकाशन विभाग, 1980
‘क़ौल-ए-फ़ैसल,मौलाना अबुल कलम आज़ाद,अनुवाद-मोहम्मद नौशाद,-सेतु प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में