भूमकाल के आदिवासी विद्रोह का नेता गुण्डाधूर
वीर गुण्डाधूर भारत के आदिवासी आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण नाम हैं, लेकिन वर्ष 1910 के ‘भूमकाल आंदोलन’ का व्यापक उल्लेख नहीं मिलता। इसी कारण अन्य आदिवासी जननायकों की तरह वीर गुण्डाधूर को भी अभी तक वह राष्ट्रीय पहचान और सम्मान नहीं मिल पाया है, जिनके वे हकदार हैं। बाहरी शासन के खिलाफ संघर्ष बस्तर की प्रकृति में रचा-बसा है। बस्तर ने कभी दबाव में आकर घुटने नहीं टेके; उसने हमेशा समर्पण की जगह संघर्ष को प्राथमिकता दी।
कौन थे गुण्डाधूर
गुण्डाधूर 1910 के आदिवासी विद्रोह के प्रमुख सूत्रधार थे। गुण्डाधूर एक समान्य आदिवासी थे, लेकिन उसमें नेतृत्व की अद्भुत क्षमता थी। गुण्डाधूर का असली नाम सोमारू था, और 1910 में बस्तर के संघर्ष के समय उनकी उम्र लगभग 35 वर्ष थी। गुण्डाधूर निडर, साहसी और सत्यनिष्ठ व्यक्ति थे, जिनमें आदिवासियों के स्वाभिमान और अधिकारों की रक्षा के लिए किसी से भी लड़ने का साहस था।
उस समय बस्तर में राजा रुद्र प्रताप देव का शासन था, जबकि अंग्रेजी सरकार ने बैजनाथ पंडा नामक व्यक्ति को दीवान नियुक्त किया था। दीवान बैजनाथ पंडा अंग्रेजों का चापलूस था, जो आदिवासियों का आर्थिक शोषण और अत्याचार करता था। उसने बेतुके आदेशों से बस्तर के लोगों को परेशान कर रखा था। अंग्रेजों के शोषण और दीवान की कुटिल नीतियों से बस्तर के लोग त्रस्त थे।
बस्तर के लोगों की आजीविका मुख्य रूप से वन और वनोपज पर निर्भर थी। वे वनोपज से अपना जीवनयापन करते थे और जंगलों पर उनका परंपरागत अधिकार था, लेकिन दीवान पंडा ने ऐसी नीतियाँ बनाई जिनसे उनका अधिकार सीमित हो गया। अब आदिवासी अपनी आवश्यकताओं की छोटी-छोटी चीजों के लिए भी तरसने लगे थे। जंगल से दातौन और पत्तियाँ तक तोड़ने के लिए सरकारी अनुमति लेनी पड़ती थी।
बस्तर क्षेत्र में बनाए जा रहे स्कूलों और पुलिस चौकियों के भवन निर्माण जैसे कार्यों में आदिवासियों से जबरन बेगार लिया जा रहा था। रियासत के अधिकारी और कर्मचारी आम जनता से दुर्व्यवहार करते थे, जबकि व्यापारी, सूदखोर और शराब ठेकेदारों द्वारा भी लोगों का शोषण किया जा रहा था। दीवान पंडा की शह पर ये सब हो रहा था, और राजा से मिलने की अनुमति भी आम जनता को नहीं दी जाती थी।
जनता में असंतोष बढ़ने लगा। राजपरिवार के कुछ लोग, जैसे राजा के चाचा लाल कालेन्द्र सिंह और राजा की सौतेली माँ सुवर्ण कुँवर, जनता में बहुत लोकप्रिय थे। 1909 में बस्तर की जनता ने इन दोनों के साथ मिलकर इंद्रावती नदी के तट पर एक विशाल सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें हाथों में धनुष, बाण और फरसा लिए हजारों लोग शामिल हुए। इस सम्मेलन में सभी ने संकल्प लिया कि वे दीवान और अंग्रेजों के दमन व अत्याचार के खिलाफ संघर्ष करेंगे। सर्वसम्मति से उत्साही युवक गुण्डाधूर को उनका नेता चुना गया।
गुण्डाधूर ने भूमकाल विद्रोह की रूपरेखा बनाई
नेतृत्व संभालते ही गुण्डाधूर ने विद्रोह की रूपरेखा बनाई। इस विद्रोह को स्थानीय बोली में ‘भूमकाल’ कहा गया, जिसका संदेश आम की टहनियों में मिर्च बाँधकर गाँव-गाँव में भेजा जाता था। इसे स्थानीय लोग ‘डारामिरी’ कहते और बड़े उत्साह से इसका स्वागत करते थे। यह गुण्डाधूर की अद्भुत संगठन क्षमता का ही परिणाम था कि अल्प समय में ही हजारों लोग ‘भूमकाल आंदोलन’ से जुड़ गए।
22 अक्टूबर, 1909 को दशहरा उत्सव के अवसर पर जगदलपुर में माँझी आदिवासियों की बैठक हुई, जिसमें नेतनार के गुण्डाधूर को नेता चुना गया। जैसे 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में संदेश के लिए रोटी और कमल के फूल का प्रयोग किया गया था, वैसे ही बस्तर में भूमकाल विद्रोह के प्रचार के लिए लाल मिर्च का उपयोग किया गया। गाँव-गाँव में लाल मिर्च, मिट्टी, धनुष-बाण, और आम के पेड़ की टहनियाँ भेजकर विद्रोह का संदेश फैलाया गया।
विद्रोह का आरंभ 6 फरवरी, 1910 को हुआ। आदिवासी विद्रोही दीवान बैजनाथ पंडा को बंदी बनाना चाहते थे, परंतु वह सुरक्षित भागने में सफल रहा। विद्रोहियों ने बाजार लूट लिए, स्कूलों, थानों और सरकारी भवनों में आग लगा दी। कई बाहरी लोगों और अफसरों की हत्या कर दी गई। 6 से 15 फरवरी तक बस्तर विद्रोह की आग में जलता रहा। दीवान के मातहतों को विद्रोही आदिवासियों ने मार डाला। राजा भयभीत हो गया और उसने अंग्रेज अफसरों को सेना भेजने के लिए तार किया।
7 फरवरी, 1910 को विद्रोहियों के नेता गुण्डाधूर की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें आगे की कार्रवाई की योजना बनाई गई।
आदिवासियों ने गीदम और आसपास के नगरों पर अधिकार कर लिया। बारसूर के नेगी विद्रोह के पक्ष में नहीं थे, जिसके कारण आदिवासी नेताओं केरिया माँझी और जकरापेंदा के नेतृत्व में नेगियों से लड़ाई हुई, जिसमें विद्रोहियों ने बारसूर पर विजय प्राप्त की और फिर कुटरू नगर को जीत लिया।
विद्रोहियों ने दंतेवाड़ा पर भी आक्रमण किया, लेकिन वहाँ के दंतेश्वरी देवी मंदिर के पुजारी बलराम जिया ने उन्हें पराजित कर दिया। 6 से 12 फरवरी तक राजमहल को छोड़कर पूरा जगदलपुर नगर विद्रोहियों के नियंत्रण में रहा। विद्रोह की लपटें अबूझमाड़ तक पहुँच गईं। आदिवासी नेता आयतू ने छोटे डोंगर में अपना पराक्रम दिखाया। भूमकाल आंदोलन पूरे रियासत में आग की तरह फैल गया।
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भूमकाल विद्रोह को दबाने के लिए जयपुर और नागपुर अपराजेय टुकड़ियाँ बुलाईं गई
बस्तर के तत्कालीन राजा रूद्र प्रताप देव ने अंग्रेजी सेना की सहायता लेकर इस आंदोलन का दमन किया। ब्रिटिश शासन ने भूमकाल आंदोलन को स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा मानने की बजाय इसे जनजातीय विद्रोह तक सीमित कर दिया। 12 फरवरी, 1910 को अंग्रेजी सेना जगदलपुर पहुँची और आतंक व अत्याचार का तांडव मचाया।
कैप्टन डूरी के नेतृत्व में हुई फायरिंग में लगभग 100 विद्रोही मारे गए और कई घायल हो गए। विद्रोहियों ने छोटे डोंगर में अनाज लूट लिया। 12 मार्च, 1910 को कमांडर गेयर के नेतृत्व में अंग्रेजों की एक बड़ी सेना बस्तर पहुँची। भूमकाल आंदोलन का दमन करने के लिए ब्रिटिश सेना ने जयपुर और नागपुर से अपनी अपराजेय टुकड़ियाँ बुलाईं, जिनका नेतृत्व अंग्रेज अधिकारी गेयर ने किया।
गेयर को खबर मिली कि विद्रोही अलनार में एकत्रित हो रहे हैं। आधी रात को अंग्रेजों ने आदिवासियों पर कायरतापूर्ण हमला किया, जो भोर की पहली किरण के साथ ही समाप्त हुआ। इस हमले में विद्रोही अलनार से पलायन कर गए। इस संघर्ष के दौरान आदिवासियों ने अपने जननायक गुण्डाधूर को युद्ध क्षेत्र से हटा दिया ताकि वह जीवित रह सकें और भविष्य में दोबारा आंदोलन कर सकें।
1910 के विद्रोही नेताओं में केवल गुण्डाधूर ही ऐसे थे जिन्हें न तो मारा जा सका और न ही पकड़ा जा सका। गुण्डाधूर अमर थे, अमर हैं, और अमर रहेंगे। इस आंदोलन के मुख्य सूत्रधार वीर गुण्डाधूर, खोड़ीयाधूर, डेबरीधूर और अन्य जननायक थे, जो इस आंदोलन का संचालन कर रहे थे।
ब्रिटिश शासन ने आंदोलन का कठोरतापूर्वक दमन किया और कई निर्दोष लोगों की कायरतापूर्वक हत्या कर दी गई। डेबरीधूर और उनके साथियों को 29 मार्च, 1910 को जगदलपुर के गोल बाजार में इमली के पेड़ पर फांसी दी गई। आज बस्तर के जगदलपुर में स्थित न्यायालय चौक का नामकरण 1910 के भूमकाल आंदोलन के सम्मान में ‘‘भूमकाल चौक’’ किया गया है।
संदर्भ
पांखुरी वक़्त जोशी, स्वतंत्रता समर के भूले-बिसरे सितारे, वाणी प्रकाशन
सुधीर सक्सेना, गुण्डाधूर, मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में