रायअहमद खाँ खरल जिनको अपना भाई कहते थे महाराजा रणजीत सिंह
राय अहमद खाँ खरल का योगदान स्वतंत्रता सेनानी के रूप में नकारा नहीं जा सकता है। कई मौखिक इतिहास और साहित्य में राय अहमद खाँ खरल को गुरिल्ला नेता के रूप में चित्रित किया है। अंग्रेजों के विरुद्ध उनका विद्रोह कई आधिकारिक रिकार्ड में तो मिलता ही है कई लोक गायकों ने भी उनके संघर्ष को लोकजीवन में जीवित रखा हुआ है।
राय अहमद खाँ खरल के नेतृत्व में गोगईरा जिले की सभी जनजातियों ने 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी। 1857 के युद्ध में राय अहमद खाँ खरल ने साहिवाल और नीलीबार के बीच पूरे क्षेत्र की कमान संभाली। उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध करने में अदम्य साहस और वीरता का परिचय दिया। राय अहमद खाँ खरल 72 साल का बुज़ुर्ग जो अंग्रजो के ख़िलाफ़ लड़ते-लड़ते शहीद हो गए।
कौन थे राय अहमद खाँ खरल
राय अहमद खाँ खरल, नाथू खरल के पुत्र थे, जिनका आस-पास के सभी जनजातियों के बीच काफी सम्मान था। राय अहमद खाँ खरल का जन्म 1786 में झांग जिले के झांगरा गाँव में हुआ था।
राय अहमद खरल का तअल्लुक़ पंजाब के इलाके संदल बार के झमरा गाँव के ज़मींदार राजपूत घराने से था। ये घराना खरल राजपूतों का सरदार भी था।
इनकी शुरुआती शिक्षा आठ साल के उम्र में कोबामे लशेरियन (वर्तमान ओकारा) में एक मदरसे में हुआ। हजरत अवैस एक धार्मिक नेता थे, आध्यात्मिक गुरु और शिक्षक, जिन्होंने अहमद खरल में धार्मिक शिक्षा का प्रसार तो किया ही, युद्ध विद्या में भी प्रशिक्षित किया।
युवावस्था के दौरान, उन्होंने घुड़सवारी और युद्ध तकनीकों का कौशल हासिल करना शुरू कर दिया। उनके पिता ने उन्हें गुरिल्ला प्रशिक्षण और घुड़सवारी देने की पूरी कोशिश की, क्योंकि ये स्थानीय स्तर पर एक नेता अनिवार्य प्रतीक और लक्षण माने जाते थे।
मूल रूप से अहमद खरल एक पंजाबी एक पंजाबी मुस्लिम जमींदार थे, जिनके पास उचित भूमि थी। खरल जनजाति का नेतृत्व सम्मानजनक स्थिति होने के कारण, वह शांतिप्रिय खरल मुखिया स्वतंत्रता सेनानियों के नेता में परिवर्तित हो गए। यह सब अन्याय उस समय अंग्रेजों के हाथों हुआ था।
अपनी मातृभूमि के प्रति उनके प्रेम के परिणामस्वरूप अंग्रेजों के साथ मतभेद हो गए, जिसके परिणामस्वरूप प्रसिद्ध गोगेर विद्रोह का उदय हुआ। मोंटगोमारी गजेटियर के एक ब्रिटिश संकलनकर्ता का कहना है अहमद औसत से ऊपर का साहसी और चालाक व्यक्ति था।
अपना भाई कहते थे महाराजा रणजीत सिंह,राय अहमद खाँ खरल को
पंजाब के सिख विजय के बाद महाराजा रणजीत सिंह सैय्यदवाला तहसील में आए, नादिर शाह कुरैशी, चौधरी जीवन खान अरैन, अहमद खान खरल, मेहर जैसे सभी स्थानीय नेता को आमंत्रित किया गया। हर नेता ने राजा को अपना परिचय दिया, लेकिन राजा रणजीत सिंह ने राय अहमद खरल के बारे में पूछताछ की।
वह अहमद खरल के बहादुरी से बहुत अधिक प्रभावित थे। राजा रणजीत सिंह से अहमद खरल को अपना भाई घोषित किया। समय के साथ यह रिश्ता और अधिक मजबूत हुआ और पारिवारिक रिश्ते में भी तब्दील हुआ।
एक बार रणजीत सिंह अहमद खरल से मिलने आए जहाँ राजा ने उन्हें एक उपहार देना चाहा और कहा कि वह को चाहे ले सकते हैं। उस समय सरकार को राजस्व नहीं देने के कारण राजा ने कुछ मुसलमानों को भी जेल में डाल दिया।
राजा अहमद खरल ने उत्तर दिया कि वह पकड़े गए सभी मुसलमानों को रिहा करने का उपहार लेगे। इसलिए राजा रणजीत सिंह उनका बहुत सम्मान करते थे क्योंकि अपनी ही नहीं सभी समुदाय के लोगों के साथ न्यायउचित व्यवहार रखते थे।
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1857 के संग्राम में पंजाब की भूमिका
1857 के संग्राम में एक प्रांत के रूप में पंजाब की भूमिका काफी नगण्य थी, लेकिन लोधियाना, खान गढ़ गुगेरा और हिसार जैसे पंजाब के विभिन्न क्षेत्र को 1857 के संग्राम में प्रमुखता से शामिल किया गया था। मेरठ के विद्रोह और लाहौर के मियाँ मीर में स्वदेशी सैनिकों के निशस्त्रीकरण की खबर ने अंसतोष की आग भड़का दी।
13 मई 1857 ब्रिटिश डिप्टी कमीश्नर कैप्टन एल्फिंस्टन ने, ट्रेजरी गार्ड के रूप में वहाँ तैनात 49 एन.आई के स्वदेशी सेनिकों को निशस्त्र करने का आदेश दिया और लहौर वापस भेज दिया।
सिख जागीरदार बाबा खेम सिंह और संपूर्ण सिंह के कर्मचारियों ने नए ब्रिटिश सैनिकों की मदद की। गोगैरा जिले की भूमिका
1 जुलाई 1857 को प्रमुख हो गई, जब लाखों में जोइया जनजाति के लोग पाकपट्टन तहसील में भू-राजस्व देने से मना कर दिया।
इस महत्त्वपूर्ण समय में अहमद खान खरल लोगों के प्रतिनिधि बनकर सामने आए और डिप्टी कमीश्नर कैप्टन एल्फिंस्ट से कहा कोई राजस्व बकाया नहीं है उन्हें अवैध रूप से गिरफ्तार किया गया है।
यदि इन लोगों को रिहा नहीं किया गया तो सरकार मुश्किल में आ सकती है। डिप्टी कमीश्नर कैप्टन एल्फिंस्ट ने बात मान ली और लोगों को छोड़ दिया। परंतु, इसके बाद ब्रिटिश अधिकारी, अहमद खान खरल को शक के निगाह से देखने लगे।
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कंपनी फौज को अपने सिपाही देने से इन्कार
1857 का साल हिन्दोस्तान की तारीख में बहुत अहम था, कंपनी राज के खिलाफ बगावत छिड़ गई थी और कंपनी के सिपाही अँगरेज़ फ़ौज से बगावत करने लगे।
इसी कड़ी में अंग्रेजों को अपनी फ़ौज के लिए सिपाहियों की ज़रूरत पड़ने लगी। अँगरेज़ फ़ौज की कमी पूरी करने के लिये पंजाब के क़बीलों से अपने साथ मिलने की दरख़्वास्त करने लगे अँगरेज़ क़बीलों को तमाम तर जागीर और ज़मीनों का लालच दे रहे थे।
इसी पेशकश के साथ अंग्रेज़ “खरल सरदार राय अहमद खाँ” के पास पहुँचे। राय अहमद खाँ को अंग्रेजों से सख्त नफ़रत थी उन्होंने अंग्रेज़ों की इस पेशकश को ठुकरा दिया।
दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर को अपनी हिमायत की पेशकश के बाद राय साहब ने अपने क़बीले के साथ अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ एलान ए जंग कर दिया।
इस एलान को अंग्रेजों में हल्के में नहीं लिया और खरलो को दबाने की हर मुमकिन कोशिश की तैयारी करने लगे। खरलो की हिम्मत देख कर साहिवाल और गोगेरा के दीगर कबाईल ने भी अंग्रेज़ों को लगान देने से मना कर दिया और अपनी सदारत राय अहमद खरल को सौंप दी।
जेल पर हमला कर कैदियों को छुड़ाया अहमद खा खरल ने
अँगरेज़ हुकूमत ने साहिवाल के कमिश्नर बर्कले को ये इंक़लाब दबाने और क़बीलों से लगान वसूलने की ज़िम्मेदारी सौंप दी। जिसके बाद बर्कले ने बड़ी तादाद में बागियों को गिरफ्तार कर गोगेरा जेल में बंद कर दिया।
बर्कले की इस हिमाकत के बाद राय अहमद खरल गुस्से में आ गए और एक रोज़ रात के अंधेरे में लोगों के साथ गोगेरा जेल पर हमला कर सभी कैदियों को छुड़ा लिया। इस शिकश्त के बाद अँगरेज़ बौखला गये जिसके बाद साहिवाल में बहुत से गाँव अंग्रेज़ों ने जला दिए।
राय अहमद खरल ने गिशकोरी के जंगलों में पनाह ले रखी थी और अंग्रेज़ों के खिलाफ अपनी जद्दोजहद गुरिल्ला लड़ाई के तौर पर यही से जारी रखी।
राय अहमद खरल को पकड़ना अंग्रेज़ों के लिए आसान नहीं था। राय अहमद खरल एक बेहद बहादुर और जंगी तरबियत याफ्ता सरदार थे और किशकोरी के जंगलों से बख़ूबी वाक़िफ़ थे।
राय अहमद खरल को पकड़ने के लिए अंग्रेज़ों को खरलो के बीच से एक मीर जाफर चाहिए था। जो उन्हें सरफ़राज़ खरल के तौर पर मिल गया। सरफ़राज़ खरल ने अंग्रेजों को खबर दे दी कि राय अहमद खरल अपने जंगजुओं के साथ दरिया ए रावी को पार करने वाले हैं।
इस ख़बर के मिलते ही कमिश्नर बर्कले अँगरेज़ फ़ौज के साथ खरालों के पीछे लगा गया। जहाँ अंग्रेज़ों का सामना राय अहमद खरल से हुआ। खरल के बागी अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ बहुत बहादुरी से लड़े और अंग्रेज़ों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
अब अहमद खरल दरिया ए रावी पार कर गए। कुछ दूरी पर ही बागियों ने पड़ाव डाला और राय अहमद खाँ खरल नमाज़ अदा करने मुसल्ले पर खड़े हो गए। राय अहमद खरल नमाज़ अदा ही कर रहे थे की बर्कले अँगरेज़ सिपाहियो के साथ आ धमका।
नमाज़ अदा मरते हुए राय अहमद खाँ खरल पर कमिश्नर बर्कली ने गोलियाँ दागी दीं और एक हिन्दोस्तां की आज़ादी का परवाना शहीद हो गया।
21 सितम्बर 1857 का दिन था, यानी की 10वां मुहर्रम। ये वही दिन था जब हज़रत इमाम हुसैन र0अ0 को सजदे में शहीद कर दिया गया था। इसी मुक़द्दस दिन मुस्लिम राजपूत सूरमा राय अहमद खाँ खरल अपने वतन की आज़ादी के लिए शहीद हो गए।
संदर्भ
Shamsul Illam, Rebel Sikhs in 1857, Vani Prakashan, New Delhi, 2008
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में