1857 की क्रांति के अग्रदूत मौलवी अहमदुल्ला शाह
डंका शाह । नक्कार शाह । मौलवी अहमदउल्ला । कितने तो नाम थे,जिसे जैसे दिखे,उसने उन्हें वैसे पुकारा, एक सूफ़ी और एक क्रांतिकारी,1857 के महानायक,अवध के हीरो, बेग़म हज़रत महल को विजय का झंडा थमाने वाले,क्या कहें इन्हें,कि हम आपको भी भूल गए । यह आलेख हाफ़िज़ किदवई की फ़ेसबुक पोस्ट के साथ कुछ ज़रूरी तथ्य जोड़कर लिखा गया है।
1857 की क्रांति का रहस्यमयी नायक
एक ऐसा रहस्यमयी लीडर जिसे अंग्रेज पकड़ते मगर हर बार रेत की तरह उनकी मुट्ठी से वह निकल जाते। जब तक एक हुलिया दिमाग मे बैठाते, उनका हुलिया बदल जाता । फैज़ाबाद में जब उन्हें आजीवन कारावास देकर क़ैद किया,तो वह क़ैद हो गए,जब 1857 का बिगुल बजा, तो सलाखें टूट गईं और निकल आया आवाम का बादशाह, लोगों को लगने लगा कि यह तो मौलवी अहमदुल्लाह हैं, जिनकी ख़ुद की मर्ज़ी से ही क़ैद और रिहाई चलती है ।
असाधारण सैन्य क्षमता, संगठन बनाने और लोगों को संगठित करने की शानदार तकनीकी,जब वह लखनऊ पहुँचे,तो उनसे पहले पहुँचा उनका डर । हडसन को खदशा हो गया कि अवध अब हाथ मे नही आएगा । बेग़म और मौलवी मिल गए हैं, इन्हें हराना नामुमकिन है ।
हडसन, जिसने दिल्ली में मौत का मेला लगा रखा था,घर-घर से खींचकर बहादुर शाह के सहयोगियों को फाँसी दिलवाई थी,उनके बेटों के सर थाल में भेजा था, उसी हडसन को लखनऊ की सरज़मीन पर मौलवी अहमदुल्ला ने ज़मींदोज़ कर दिया ।
वह तो जान से गया मगर अंग्रेज,जो दरारों को हवा देना जानते थे,चल दी अपनी चाल और उड़ा दी ख़बर की अहमदुल्लाह शाह ख़ुद अवध की बागडोर लेना चाहते हैं और बाँट दिया उन क्रांतिकारियों को जो मुट्ठी बनकर लड़ रहे थे । हर ऐश-ओ-आराम त्यागने वाले योद्धा को यह बात चुभ गई,मन खट्टा हो गया, मगर लड़ता रहा ।
आराम छोड़कर चुनी एक मुश्किल ज़िंदगी
सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के नायक मौलवी अहमद उल्ला शाह उर्फ़ डंका शहा का परिवार गोपामऊ, जिला: हरदोई से सम्बन्धित था किन्तु इनके परदादा नौकरी करने दक्षिण में चले गए थे। बाद में इनके दादा कर्नाटक के पायाघाट के शासक बने, और पिता को यह पद विरासत में मिला।
अहमद उल्ला ने अपने लिए एक विस्तृत क्षेत्र एवं कठिन काम और उच्च स्थान का चुनाव किया। वे अपने गृह-स्थान को त्याग करके हैदराबाद चले गये। वहाँ से इंग्लैड गये, जहाँ सरकार इनको पदाधिकारी बनाना चाहती थी, किन्तु अहमद उल्लाह शाह इस जाल में नहीं फंसे।
वह मद्रास में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की चालाकियाँ देखकर सजग हो गये थे। कोई धोखा सफल नहीं हुआ और वह हज और ज़ियारत के लिए अरब, ईरान और इराक़ की यात्रा पर चले गये। वहाँ से जिहाद का हौसला लेकर वापस आये।
1857 के इंक़लाब के नायक
1857 के फरवरी माह में मौलवी अहमद उल्ला शाह फ़ैजाबाद आये और अपनी तक़रीरों के कारण साधारण जनता के बीच में सम्मान के पात्र बन बैठे। एक तक़रीर में उन्होंने कहा कि –
आज़ादी जन्नत और गुलामी दोजख़ है। अपने मुल्क की हुकूमत, गैर-मुल्क की हुकूमत के मुकाबले में हज़ार दर्ज़े बेहतर है। अगर हुक्मरान फिरंगी जिस मुल्क में हुकूमत करते हैं, उस मुल्क के बाशिन्दों के साथ इंसानियत का बर्ताव नहीं करते, तो उसकी मुखालिफ़त की जाये।
इसी तरह के जोशीले भाषणों के चलते फ़क़ीरी बाने वाले मौलवी अहमद उल्ला शाह के शागिर्दों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी।
इससे भयाक्रान्त कर्नल थार्बन ने राजद्रोह के अपराध में उन्हें पकड़ना चाहा। पर फौजी मदद मिलने के बाद ही अपने मक़सद में कामयाब हो सके। मौलवी अहमद उल्ला शाह को गिरफ़्तार कर फ़ैजाबाद जेल में क़ैद कर दिया गया और सजा-ए-मौत का हुक्म ज़ारी हुआ।
फैज़ाबाद आज़ाद हो गया
इससे सिपाहियों में फिरंगियों के प्रति बग़ावत घर करने लगी। 1857 के ग़दर के दौरान फ़ैजाबाद में एक बड़ी फ़ौज थी, जिसमें 22 नम्बर और 6 नम्बर की देशी पलटनें व घुड़सवारों और तोपचियों की भी पलटनें शामिल थीं। पैदल सेना का नायक कर्नल लिनाक्स और तोपखाने का सेनापति मेजर मिल था।
जेहाद की खबरे सुन लिनाक्स ने देशी सिपाहियों से हथियार रखवाकर उन्हें मुअत्तल करने का फैसला किया, पर वह उन्हें बर्ख़ास्त न कर पाया। 8 जून 1857 को फ़ैजाबाद में पैदल सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और अंग्रेजों को गिरफ़्तार कर लिया गया। जेल में क़ैद मौलवी साहब की हथकड़ी बेड़ी काटी गयी और उन्हें क्रान्तिकारियों का नेता चुन लिया गया।
9 जून को डुग्गी पिटवाकर फ़ैजाबाद में अंग्रेजी राज्य के खात्मे की घोषणा हुई। इसी समय आजमगढ़, जौनपुर, बनारस आदि आस-पास के ज़िलों में भी क्रान्ति हो गयी और क्रान्तिकारी फौज़ें फ़ैजाबाद पहुँचने लगीं।
सत्तावन की क्रान्ति में फैज़ाबाद एक मुख्य केन्द्र बना। अवध दरबार द्वारा नियुक्त्त अधिकारियों ने पास-पड़ोस के ज़िलों को आज़ाद कराने की मुहिम चलाई। अवध दरबार की सेनाओं के कई केन्द्र फ़ैजाबाद में खोले गये।
लखनऊ रेजीडेंसी पर घेरा डालने के लिए मौलवी अहमद उल्ला शाह एक बड़ी फ़ौज लेकर आगे बढ़े। चिनहट के पास फिरंगी फौजों से युद्ध हुआ और क्रान्तिकारियों ने अंग्रेजी फौजों को रौंद डाला और लखनऊ के काफ़ी हिस्सों को उन्होंने आज़ाद करा लिया।
फ़ैज़ाबाद जनवरी 1858 तक पूर्णरुपेण स्वतंत्र रहा। 6 जनवरी 1858 को नेपाल ने आक्रमण शुरू कर दिया। अकबरपुर में घमासान युद्ध हुआ और नेपाली सेना जीत गई। फ़ैजाबाद की अवध दरबार की फौजों को चहुंओर से हुए हमलों का मुक़ाबला करना पड़ा। अक्टूबर 1858 में अवध दरबार की चार हज़ार फौजों को जंगलों में छिपने को विवश होना पड़ा।
टान्डा और अकबरपुर फिर परतंत्र हो गये। क्रान्तिकारी सेनाओं ने हटकर घाघरा के दूसरे तट पर अपना मोर्चा लगाया और एक माह तक फिरंगी फौजियों को घागरा(सरयू) पार न करने दिया। होपग्राण्ट, कर्नल टेलर और निकलसन की फौजों ने भारी गोलबारी की आड़ में सरयू नदी पर पुल बना लिया और 27 नवम्बर को नदी पार कर क्रान्तिकारी सेनाओं को पीछे हटने को मजबूर कर दिया।
क्रान्तिकारी फौजों को फिरंगी फौजें गोण्डा तक ढकेल ले गयी। इस तरह एक बार फिर 10 माह आज़ाद रहने के बाद अवध के नवाबों की पहली राजधानी फ़ैज़ाबाद परतंत्रता की बेड़ियों से जकड़ गयी, परंतु मौलवी अहमद उल्ला शाह के कुशल नेतृत्व में क्रान्तिकारियों ने फैज़ाबाद से फिरंगियों को क़रीब दस माह तक दूर रखा।
सन 1857 के इस हिन्दुस्तानी जंग-ए-आज़ादी को फ़िरंगियों ने फौजी बग़ावत की संज्ञा दी और इसे कुचल देने का दावा किया; किन्तु बग़ावत की चिन्गारी को फिरंगी पूरी तरह से बुझा नहीं पाए। मौलवी अहमद उल्ला शाह भूमिगत हो गये, परंतु सत्तावन के वीर सेना-नायका का खौफ़ अन्त तक फिरंगियों के ऊपर छाया रहा।
दोस्तों ने धोखा दिया
लड़ते लड़ते जब दूसरे अंग्रेजों का पीछा किया,उनके पीछे बरेली शहजहाँपुर तक दौड़ के गए मगर अंग्रेज उनसे भागते रहे । नाना साहब पेशवा और मौलवी की योजना थी कि साथ मे ही बरेली को जीत लिया जाए,शाहजहाँपुर में डेरा डाला जाए ।
नाना साहब पेशवा ने गद्दारों और मुखबिरों के घर मे आग लगवा दी, दूसरी तरफ मौलवी अपने एक दोस्त राजा पुवायां जगन्नाथ सिंह के यहाँ योजना को अमली जामा पहनाने गए ।
अंग्रेजों ने पचास हज़ार चाँदी के सिक्कों का ईनाम रखा,कहा जो डंका शाह का सर लाएगा वह यह ईनाम तो पाएगा ही,अंग्रेज़ो का सम्मान भी हासिल करेगा ।
दोस्त ने ईनाम की लालच में ईमान बेच दिया । महल में घुसते ही चमकते माथे पर चुपके से उसके भाई ने छिपकर गोली चला दी,मौलवी गिर गए । जिसका अंग्रेज कुछ कर न सके,उसकी पीठ पर दोस्त ने खँजर मारा और गर्दन उतार ली ।
रुमाल में वह सर अंग्रेज़ो को उपहार दिया गया और यह सर अंग्रेज़ो ने अपने मुख्यालय पर लटका दिया । ज़िन्दा जिस्म से डरने वाले अंग्रेज,उनका सर अपनी इमारत पर टांग इठलाए और कहा,हमारी हुक़ूमत की नींव मज़बूती से रख गई ।
यादगार-ए-डंका शाह
हम भला उन्हें आज क्यों याद कर रहे हैं, क्योंकि गद्दारों ने आज ही के रोज़ उन्हें शहीद किया था ।
लखनऊ के घसियारी मंडी में हम उस जगह गए हैं, जहाँ 1857 में सबसे लंबा डेरा डंका शाह ने डाला था । मैं चिनहट में वहां भी गया हूँ,जहाँ अंग्रेजों को उन्होंने हराया था । बेलीगारद में वह जगह भी देखी है, जहाँ दुनिया मे सबसे पहले यूनियन जैक को ज़मींदोज़ किया गया था,दो महीने अंग्रेज इन दीवारों में क़ैद कर दिए गए थे ।
एक बात और,जब वह चलते थे, तो उनसे आगे आगे लोबान के धुएँ के बीच नक्कारे चलते थे,जिनकी आवाज़ से अहमदुल्लाह शाह की धमक सुनी जाती थी,तभी उन्हें कोई डंका शाह,तो कोई नक्कार शाह कहता था,मगर वह हमेशा अंग्रेजों के लिए तिलिस्म की तरह रहे ,हारे तो अपने दोस्त से,जिसपर बेपनाह भरोसा था।
आज उनकी शहादत का दिन है । हम उनकी मजार पर लोदीपुर गांव,जो शाहजहाँपुर में हैं, वहाँ भी गए हैं । बस अफसोस लगता है कि उन्हें याद करते वक़्त हमारे पास वक़्त कम हो जाता है । गंगा जमुनी तहज़ीब की बहुत बुलन्द इमारत थे वह,इस तहज़ीब को ताउम्र जिया और यही तहज़ीब पर वह शहीद भी हुए,आज उनको कृतज्ञ राष्ट्र की तरफ से नमन।
संदर्भ
1.द हिस्ट्री आंफ द इण्डियन म्यूटिनी: वाल्यूम -1, 2, चार्ल्स बांल, पब्लिशर: संग-ए-मील पब्लिकेशन, लहौर, पाकिस्तान, 2005,
2.स्वतंत्रता संग्राम के सैनिक-जिला फैज़ाबाद संक्षिप्त परिचय, संपादक: ठाकुर प्रसाद सिंह, प्रकाशक: सूचना विभाग, उत्तर प्रदेश, लखनऊ
3.स्वतंत्रता संग्राम के सौ वर्ष: रमानाव मेहरोत्रा, प्रकाशक: स्वतंत्रता सेनानी स्मारक प्रकाशन, फ़ैजाबाद, संस्करण: 1978,
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में