नवाब वलीदाद ख़ान, जिन्होंने अंग्रेजों के पसीने छुड़ा दिए
मालागढ़ के नवाब वलीदादख़ान क्रांति के उग्रतम नेताओं में से एक थे। वह दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह जफ़र के सम्बन्धी थे। मिट्टी के क़िले और कुछ तोपों के सहारे ही वह अंग्रेजों के विरुद्ध 1857 के विद्रोह में उठ खड़े हुए थे। वलीदाद ख़ान के विद्रोहियों का साथ देने के निर्णय को पागलपन की संज्ञा दी जाती है। देश प्रेम के मतवाले वीर सर्वदा ही पागलपन की सीमा तक मरने और मारने के लिए आतुर हो उठते है। नवाब भी उनसे अलग नहीं थे।
कौन थे नवाब वलीदाद ख़ान?
वर्तमान उत्तरप्रदेश के बुलंदशहर तहसील से लगभग छह किमी दूर अगौता के गांव मालागढ़ का ऐतिहासिक क़िला बगीचों से घिरा हुआ है। यहीं पर नवाब वलीदाद ख़ान का जन्म हुआ था।
1857 के समय उनका मालागढ़ रियात में शासन था, मुगल दरबार से उन्हें खास दर्जा हासिल था। बहादुर शाह जफ़र ने उन्हें बुलंदशहर, अलीगढ़ और एतराफ की सूबेदारी सौंप रखी थी।
वलीदाद ख़ान के अंग्रेजों के प्रति आक्रोश के कुछ व्यक्तिगत कारण भी थे। उनका अपने परिवार से संपत्ति-संबंधी झगड़ा चल रहा था। सर डेविड आक्टरलोनी के समय दिल्ली के प्रत्येक रैजिडेंट तथा गर्वनर जनरल के सम्मुख मुक़दमा पेश किया गया। उनके न्यायालय में मुक़दमा बार-बार आरंभ होता था तथा बार-बार समाप्त भी हो जाता था। 1855 तक भी कोई अंतिम निर्णय नहीं सका।
नवाब वलीदाद खां के ह्दय में अंग्रेजों के प्रति आक्रोश उमड़ता रहा और जैसे ही देश में क्रांति की लहर उठी वह उनसे बदला लेने के लिए आतुर हो उठे।
मालागढ़ का क़िला वलीदाद ख़ान के कार्य का प्रमुख केन्द्र था। यह किला बुलन्दशहर से चार मील उत्तर की ओर स्थित था तथा ग्रांड ट्रक रोड से केवल 900 गज दूर था। इसी किले से वलीदाद ख़ान ने रण हुंकार लगायी और अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए। अपने थोड़े से साधनों के आधार पर ही अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ाई प्रारंभ कर दी थी। इस विद्रोह में उनका साथ दिया चौधरी ज़बरदस्त ख़ान ने।
देश के आज़ादी के लिए फांसी का फंदा चूमने वाले, नवाब नूर समद ख़ान
अंग्रेज बार-बार पराजित होते रहे, नवाब वलीदाद ख़ान से
ग्रांड ट्रक रोड के उत्तरी सिरे पर हापुड़ से नौ मिल दूर, गुलावटी की सैनिक चौकी पर नवाब वलीदाद ख़ान अधिकार था। मालागढ़ का किला ग्रांड ट्रक रोड के बिल्कुल समीप था। वलीदाद ख़ान ने अंग्रेजों की आगरा और मेरठ के बीच की संचार व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया था। वह सड़क पर से आने-जाने वाली क्रांतिकारी टुकड़ियों को अपनी सेना में भरती कर लेते थे।
वलीदाद ख़ान ने अलीगढ़ के समीप खुर्जा पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया था। नवाब और अंग्रेजों की सेना की कई बार मुठभेड़ हुई। 29 जुलाई तथा 10 सितंबर को उनका अंग्रेजों की सेना से गुलावटी के निकट युद्ध हुआ। बहादुर वलीदाद खां को पराजित करने में अंग्रेज सेना असमर्थ रही। वह बार-बार आक्रमण करते रहे परन्तु कोई परिणाम नहीं निकला।
वलीदाद ख़ान का सम्पर्क बहादुर ख़ान और नाना धुधूपंतजैसे अग्रगण्य क्रांतिकारी नेताओं से भी था। 21 अक्टूबर को वह बरेली पहुंचे। ख़ान बहादुर ने उनका स्वागत किया तथा चार-सौ रुपये भेंट स्वरूप दिये।
नाना साहब 25 मार्च 1855 को बरेली पहुँचे। उनके वहां पहुँचने के उपरांत क्रांति के अग्रगण्य नेता बरेली में एकत्रित हुए। नाना साहब ने वलीदाद ख़ान के पुत्र इस्माइल ख़ान को फ़तहगढ़ जीतने का कार्य सुपुर्द किया तथा फिरोजशाह ने निचले दोआब में युद्ध का भार संभाला। मालागढ़ के निकटवर्ती स्थानों के प्रमुख क्रांतिकारी नेता वलीदाद ख़ान के साथ थे।
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अंग्रेजी तोपों की गोलाबारी के सम्मुख क्रांतिकारी सेना बिखर गई
24 सितबर 1857 को मेरठ के कमिश्नर ने एक पत्र में लिखा – हमें भय है कि वलीदाद ख़ान अपनी स्थिति को मज़बूत कर रहा है। नवाब के निमंत्रण पर झांसी की बिग्रेड भी बुलंदशहर पहुँच गई थी। वलीदाद ख़ान और उसके सहयोगी मालागढ़ की रक्षा करने के लिए कृत सकंल्प थे।
24 सितबर 1857 को बुलंदशहर में वलीदाद ख़ान और अंग्रेजों की सेना में घमासान युद्ध हुआ था। अंग्रेज़ तोपों की गोलाबारी के सम्मुख क्रांतिकारी सेना तितर-बितर हो गई। अग्रेजों की अश्वारोही सेना ने उनका पीछा किया और 9वीं पलटन के पैदल सेनानी आगे बढ़े।
गलियों के अंदर, घरों के ऊपर से उन पर निरंतर गोलाबारी हो रही थी जिसके कारण उन्हें बहुत क्षति हुई। क्रांतिकारी सेना को शहर के बाहर रहना पड़ा।
क्रांतिकारी सेना अंग्रेज सेनाधिकारियों पर बार-बार आक्रमण कर रही थी। क्रांतिकारियों की योजना के अनुसार सेना पर आक्रमण करने के बजाय सैन्य अधिकारियों पर आक्रमण करना अधिक लाभप्रद था। क्रांतिकारियों की इस नीति के कारण अग्रेजों के बहुत से सेनाधिकारी घायल हुए।
क्रांतिकारी अंग्रेजों की शस्त्रों से सुसज्जित सेना के समझ अधिक समय तक नहीं टिक सके। उन पर अंग्रेज सैनिक निरंतर गोलीबारी करते रहे। क्रांतिकारियों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। क्रांतिकारियों ने भी ब्रिटिश सेना का काफी नुकसान किया। पराजित होकर वलीदाद ख़ान को अपने साथियों के साथ भागना पड़ा।
अंग्रेजों ने गुस्से में वलीदाद खान का क़िला धवस्त कर दिया
अंत में, अंग्रेज़ सेना विजयी हुई और 29 सितंबर को मालागढ़ के क़िले के अंदर पहुँची। वलीदाद ख़ान और उनके साथी क़िले को छोड़कर जा चुके थे।
अग्रेजों ने तुरंत क़िले को तहस-नहस कर दिया। परन्तु अग्रेजों को भी बलिदान देना पड़ा। एक बारूद की सुरंग फट जाने से लैफ्टिनेंट होम की मृत्यु हो गई। यह वही लैफ्टिनेंट होम था जिसने दिल्ली के कश्मीरी गेट का विध्वंस किया था। लैफ्टिनेंट होम ने मालागढ़ के क़िले की तोपों की अच्छी तरह नाकाबंदी की थी और सुरंग लगाकर कर क़िले को उड़ाने का प्रयास भी किया। गोलों की मार से क़िले की दीवारें हिल उठी और देखते-देखते क़िला खण्डहर बन गया।
वलीदाद ख़ान मालागढ़ छोड़कर रुहेलखण्ड चले गये। परंतु वह अंग्रेजों से निरंतर लड़ते रहे। वलीदाद ख़ान अंत में कहाँ गए तथा उनकी मृत्यु कहाँ हुई, इस बारे में दस्तावेज़ चुप हैं , किन्तु यह बात निर्विवाद है कि उनका अंग्रेजों से संघर्ष आजीवन चलता रहा।
संदर्भ
उषा चंद्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, सूचना एंव प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली, 1986, पेज 35-37
नोट- इकबाल मोहम्मद खां की पुस्तक, ‘ए टेल ऑफ सिटी’ में इस क़िले की बुलंदियों तथा खुर्जा के पीले क़िले का ज़िक्र है।
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