चंपारण सत्याग्रह के इतिहास में पीर मुहम्मद मूनिस एक छूटा हुआ नाम है
अकसर ऐसा होता है कि जो इतिहास रचता है, उसका इतिहास में नाम नहीं होता, लेकिन जो इतिहास रचता है और इतिहास लिखता भी है, उसका नाम इतिहास में छूट जाए, ऐसा शायद ही होता है। किसी देश की आजादी के साठ साल के बाद भी ऐसा होना महज संयोग नहीं, यह विडंबना है, जो बताती है कि समाज में इतिहास और वर्तमान के बीच सरोकार का पुल आज भी कितना टूटा हुआ है।
चंपारण सत्याग्रह के इतिहास में पीर मुहम्मद मूनिस ऐसा ही ‘छूटा हुआ’ नाम है। अंग्रेज शासकों के दस्तावेज़ कहते है कि पीर मुहम्मद अपने ‘संदेहास्पद साहित्य’ के जरिए, चंपारण जैसे बिहार के पीड़ित क्षेत्र से देश-दुनिया को अवगत कराने वाला और ‘मि. गांधी’ को चंपारण आने के लिए प्रेरित करने वाला पहला ‘ख़तरनाक’ और ‘बदमाश’ पत्रकार था ।
मूनिस का जन्म 1882 में हुआ था वह 67 वर्षों तक निरंतर संघर्षरत रहे। हिंदी, आजादी, सामाजिक सरोकारों और साहित्य के लिए जीवनपर्यंत लड़ने वाले इस शख्स का नाम आज न साहित्य, न पत्रकारिता और न ही गांधी के चंपारण संघर्ष के साथी के रूप में दर्ज होता है। बिहार की आधुनिक पत्रकारिता में तो हिंदी व आजादी के लिए खासतौर से अभियानी पत्रकारिता के लिए मर मिटने वाला यह आदमी, बिहारी हिंदी पत्रकारिता और इतिहास का छूटा हुआ नाम है।
शोध अध्ययन और किताबों के फुटनोटों में अधिक-से-अधिक एक लाइन लिखकर, मूनिस को दफ़ना दिया जाता है। ‘ अब तो लोग स्वराज मिल जाने के उल्लास में स्वराज की नींव के रोड़ों को ही भूल गए हैं। आज मूनिसजी आँखों से ओझल हो गए, पर हिंदी माता की आँखों में चिरकाल तक बसे रहेंगे। आजादी के बरसों बरस हिंदी के यशस्वी पत्रकार को भूलने का अर्थ अपनी समृद्ध परंपरा को भूलना है।
निलहों किसानों की ख़बर ‘ब्रेक‘ करने वाले पत्रकार पीर मुहम्मद मूनिस
वह ‘बदमाश’ था, क्योंकि उसने अपनी निर्भीक लेखनी में चंपारण में हो रहे निलहों के अमानुषिक अत्याचारों की ख़बरें हिंदी में सबसे पहले ‘ब्रेक’ की थीं। उसने सबसे पहले ‘प्रताप‘ के जरिए देश-दुनिया को उन अत्याचारों को आँखों देखा हाल सुनाया था, वह भी महात्मा गांधी के चंपारण आगमन के तीन-चार साल पहले।
अंग्रेज शासकों के दस्तावेज़ कहते है, वह ख़तरनाक था, क्योंकि उसने निलहों के अत्याचारों के खिलाफ चंपारण की पीड़ित जनता में प्रचंड विद्रोह की ज्वाला धधकाई और जब महात्मा गांधी आए तो उनका आगमन उस ज्वाला में घी की आहुति साबित हुआ। इसके गवाह हैं, प्रतापी गणेश शंकर विद्यार्थी के संपादकत्व में कानपुर से प्रकाशित ‘प्रताप’ में छपे दर्जनों लेख, जिनके माध्यम से पीर मुहम्मद ने आततायी गोरों के भीषण कुकृत्यों भंडाफोड़ किया था।
बकौल पीर मुहम्मद मूनिस, “मैं इतना बदनाम हूँ कि यदि कोई किसी के ऊपर यह दरख्वास्त दे दे कि अमुक आदमी मूनिस का दोस्त और मददगार है, तो वह बेचारा नौकरी से बरतरफ़ कर दिया जाए। अभी हाल ही की बात है, अंशु समद नाम का एक आदमी राज में नौकर था। अफसरों से किसी ने यह कह दिया कि वह मूनिस जी का हामी और मददगार है। बस, इसी पर बेचारा बेक़सूर नौकरी से हटा दिया गया।”
पीर मुहम्मद सिर्फ कलम के सिपाही नहीं, बल्कि कलम के सत्याग्रही भी थे, क्योंकि उन्होंने चंपारण की पीड़ा और संघर्ष के बारे में सिर्फ लिखा नहीं, बल्कि वह उस लड़ाई में शामिल हुए। चंपारण सत्याग्रह के इतिहास के उपलब्ध, लेकिन अनछुए पन्ने इसके साक्षी हैं।
सत्याग्रही पीर मुहम्मद मूनिस बिहार में चंपारण की धरती से शुरुआती अभियानी पत्रकारिता के जन्मदाता थे।चंपारण के किसान नेता शेख़ गुलाब आदि के सुझाव पर राजकुमार शुक्ल और पीर मुहम्मद मूनिस लखनऊ गए तथा गांधीजी से चंपारण चलने का आग्रह किया। लखनऊ पहुँचने के बाद राजकुमार शुक्ल ने पीर मुहम्मद मूनिस से गांधीजी के नाम पत्र लिखवाया।
राजकुमार शुक्ल ने पीर मुहम्मद मूनिस से गांधीजी के नाम पत्र लिखवाया था
पंडित राजकुमार शुक्ल द्वारा पीर मुहम्मद मूनिस से लिखवाए गए इस पत्र के उत्तर में महात्मा गांधी ने लिखा, “7 मार्च, 1917 को कलकत्ता जाएँगे” और पूछा कि कहाँ मिल सकेंगे ?
पोस्ट ऑफिस की गलती से यह चिट्ठी शुक्ल जी को सात मार्च के बाद मिली, पर उन्हें पता चल गया था कि महात्माजी दिल्ली वापस चले गए। वह चंपारण लौट आए और यहाँ से उन्होंने पुनः लिखा। महात्माजी ने 16 मार्च, 1917 को पत्र भेजा, “जहाँ तक शीघ्र हो सकेगा, मैं चंपारण आने की चेष्टा करूँगा”
दूसरे पत्र में पीर मुहम्मद मूनिस, ने महात्मा जी के पास 23 मार्च, 1917 को भेजा, जिसमें चंपारण के सम्बन्ध में बहुत बातों और घटनाओं का उल्लेख किया। महात्मा गांधी ने पूछा किस रास्ते से पहुँच सकते हैं और यह भी जानना चाहा कि यदि वह तीन दिनों तक चंपारण में ठहरेंगे, तो जो कुछ देखने की आवश्यकता थी, वह सब देख सकेंगे अथवा नहीं, साथ ही महात्माजी ने अप्रैल में वहाँ पहुँच जाने को लिखा ।
यह पत्र अभी पहुँचा भी नहीं था कि 30 अप्रैल, 1917 को उन्होंने शुक्लजी को तार दिया, ‘मैं कलकत्ता जा रहा हूँ और वहाँ भूपेंद्र नाथ बसु के मकान पर ठहरूँगा । वहाँ आकर मिलें।” इस तार के पाते ही शुक्ल कलकत्ता चले गए और वहां महात्मा गांधीजी से मिले। उनके साथ पटना साथ लौटे । महात्मा गांधी पटना से मुजफ्फरपुर होते हुए बेतिया पहुँचे। उन्होंने चंपारण के किसानों की कई कहानियाँ सुनीं।
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पीर मुहम्मद मूनिस, प्रताप के संवाददाता थे
23 अप्रैल, 1917 को पाँच बजे शाम महात्माजी पीर मुहम्मद मूनिस से मिलने के लिए पैदल गए।ऐसा माना जाता है कि किसी पत्रकार के घर पर गांधी की इकलौती यात्रा थी।
मूनिस ‘प्रताप’ के संवाददाता थे और चंपारण में निलहों के अत्याचार को लेकर उन्होंने अनेक लेख लिखे थे, चिट्ठियाँ छपवाई थीं। कानपुर के हिंदी साप्ताहिक ‘प्रताप’ में उसके प्रकाशन के शुरू से ही वह पीड़ित प्रजा की दुःखी गाथा नियमित रूप से देशवासियों को सुनाने लगे।
प्रताप के प्रतापी संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी की प्रेरणा और प्रोत्साहन से वह बड़ी निर्भीकता के साथ आततायी गोरों के भीषण कुकृत्यों का भंडाफोड़ करते रहे।चंपारण में गांधी के आगमन के पहले पीर मुहम्मद मूनिस ‘प्रताप’ में चंपारण के अत्याचार को लेकर अनेक लेख लिख चुके थे, कुछ नाम से और कुछ छद्म नाम से।
रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादकत्व वाले ‘बालक’ में कहानियाँ भी लिखीं और ‘ज्ञान शक्ति’ जैसे पत्रों में देश प्रेम से ओतप्रोत कविताएँ भी । प्रताप के तो वे संवाददाता थे ही! सत्याग्रही पत्रकार मूनिस चंपारण में गांधीजी के आने के पहले और जाने के बाद निलहों के अत्याचार और चंपारण की प्रजा की कथा ‘प्रताप’ के माध्यम से सुनाते रहे।
बुद्ध और गांधी मानवता, प्रेम, एवं विश्वबन्धुत्व के प्रतीक है- राहुल सांकृत्यायन
बिहार में हिंदी पत्रकारिता के जन्मदाता भी थे पीर मुहम्मद मूनिस
पीर मुहम्मद मूनिस बिहार में अभियानी हिंदी पत्रकारिता के जन्मदाता थे । वह मूनिस ही थे, जिन्हें बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन का पंद्रहवाँ अध्यक्ष बनाया गया था।
इस फैसले पर इंडियन नेशन ने लिखा, ‘मुस्लिम स्कॉलर टू प्रेजाइड : बिहार वह मूनिस ही थे, जो मुसलमान थे और जिसमें यह माद्दा था कि हिंदी, उर्दू को मिला कर ‘हिंदुस्तानी’ नाम देने की वकालत कर सके। वह हिंदी-उर्दू विभाजन के खिलाफ़ थे। वह बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के संस्थापकों में से एक थे।‘
हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर मूनिस के विचार उनके लेख अब भी उपलब्ध हैं। लेखन, साहित्य और पत्रकारिता के मोर्चे पर सक्रिय मूनिस जनता की आवाज़ और दमन व उत्पीड़न को कलम से आवाज़ देते नज़र आते ही हैं, इसके साथ वह सशरीर उत्पीड़ितों के पक्ष में खड़े नज़र आते हैं।
बेतिया में नगरपालिका के हरिजन कर्मचारी हड़ताल का आह्वान करते हैं, तो मूनिस उन्हें संबोधित करते नज़र आते हैं। उसी वर्ष गन्ना किसानों के आंदोलन में सक्रिय होते हैं। वह चंपारण में कांग्रेस की स्थापना के साथ ही 1921 से जुड़े रहे। 1937 में कांग्रेस के टिकट पर चंपारण जिला परिषद के सदस्य चुने गए और बेतिया लोकल बोर्ड के अध्यक्ष बनाए गए।
1937 में उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और व्यक्तिगत सत्याग्रह में जेल गए। नमक आंदोलन के दौरान 1930 में पटना कैंप जेल में तीन महीने की सज़ा काटी।
मूनिस एक समर्पित सत्याग्रही, देशभक्त और एक स्वतंत्रता सेनानी के तौर याद किए जाने के ज़्यादा हक़दार थे।लेकिन चंपारण सत्याग्रह के इतिहास से वो लगभग ग़ायब कर दिए गए।
संदर्भ
अशोक कुमार सिन्हा, बिहार के पच्चीस महानायक,प्रभात प्रकाशन, 2021
रजी अहमद, महात्मा गांधी की स्वदेश वापसी के 100 वर्ष, प्रभात प्रकाशन, 2016
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में