मुस्लिम स्त्री शिक्षा की अलख जगाने वालीं बेगम रुकैया सखावत हुसैन
औपनिवेशिक दौर में भारतीय समाज में कमोबेश हर जातीय-धार्मिक समुदाय में महिलाओं के शिक्षा की एक जैसी ही स्थिति थी। 19वीं सदी का आरंभ वह देशकाल है, जिससे गुज़रने पर पता चलता है कि उस दौर में तमाम अंर्तविरोधों के बाद भी स्त्रियों में पढ़ने-लिखने की गहरी चाह थी।
कई महिलाओं के आत्मस्वीकृति और आत्मकथाओं के माध्यम से यह बात उभर कर सामने आते है कि कुछ महिलाएं अपनी पारिवारिक जिम्मेदारीयों का निर्वाह करते हुए समय चुराकर पढ़ना-लिखना सीख रही थीं। कुछ महिलाएं पति या भाई के सहयोग से पढ़ना-लिखना सीख रही थी तो कई महिलाओं की इच्छा होने के बाद भी कोई विकल्प मौजूद नहीं था।
कई महिलाएं अपनी शिक्षित होने की उपलब्धि को छुपाती भी थी क्योंकि बहुसंख्यक परिवार में यह मान्यता प्रचलित थी कि पढ़ी-लिखी लड़कियाँ अपने विवाह के बाद विधवा हो जाती हैं या अक्षरों की जानकारी महिलाओं को कुटिल बना देता हैं। इन स्थितियों में भी महिलाओं की पढ़ने-लिखने की इच्छा और शिक्षा के लिए उनका संघर्ष यह बताता हैं कि शिक्षा उनके लिए खुद को अभिव्यक्त करने का वह माध्यम भर ही नहीं था जो उनको सामाजिक भूमिका निभाने में या यथास्थिति से मुक्त करा सकती थी।
किंतु, विपरीत हालात में ही समाज में कुछ विरले कार्य हुए है जिसमें भविष्य के नये बीज अंकुरित होते है। उस दौर में तमाम मानवतावादी प्रयासों और मिशनरियों के सहयोग के बाद भी महिलाओं के पढ़ने-लिखने की चाह सामाजिक मान-मर्यादा के सामने धक्के खा रहा था। महिलाओं के साथ सामाजिक स्थिति कुछ इस तरह की थीं कि प्राय: महिलाएं ही महिलाओं को शिक्षा न मिले इस तरह के प्रतिबंधों को समर्थन देती थी। इसका कारण यह भी था कि उनका अस्तित्व भी इस यथास्थिति को बरकरार रखने पर ही टिका हुआ था। इस स्थिति में महिलाओं के पास कोई विकल्प इच्छा रहते हुए भी मौजूद नहीं था।
वह या तो अपने इच्छाशक्ति परिवार के उदार पुरुष या उन जीवनसाथी के इच्छा पर निर्भर थी जो स्वयं पढ़े-लिखे होने के कारण अनपढ़-अशिक्षित जीवनसाथी नहीं चाहते थे। उन्नीसवीं सदी के मध्य आते-आते स्थितियों में बड़ा परिवर्तन दिखना शुरु हुआ जब कुछ आर्थिक सुविधाएं दी जाने लगी और बड़ी संख्या में महिलाओं के लिए स्कूल खुलने शुरू हुए। इनमें से कई तो स्वयं महिलाओं ने घर में ही कुछ लड़कियों के साथ शुरू किया जो आगे चलकर लड़कियों के लिए शिक्षा का बड़े केंद्र बनकर उभरे।
बेगम रुकैया सखावत हुसैन ने जब मुस्लिम लड़कियों को शिक्षित करने के लिए स्कूल खोला, तब तक वह शिक्षित होने की ताकत को समझ चुकी थी। वह स्वयं को शिक्षित करने के लिए कई संघर्षों से गुज़री थीं। मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा की भागीदारी इसलिए भी सीमित थीं क्योंकि छोटी उम्र से ही उन्हें पर्दे में रखा जाता था। इस स्थिति में कुछ महिलाओं का शिक्षित होना एक अपवाद ही रहा होगा।
कौन थी बेगम रुकैया सखावत हुसैन
ऐसे माहौल में मुस्लिम महिलाओं के लिए बेगम रुकैया एक ऐसी उम्मीद का नाम हैं जिसे आसानी से भुलाया नहीं जा सकता है। बेगम रुकैया, उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में के बंगाली मुस्लिम समाज में महिलाओं के विरुद्ध चल रहे परंपराओं और नियम-क़ायदों की कड़ी निंदा की। इस देशकाल में हिंदू महिलाओं की तुलना में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति बहुत बेहतर नहीं थी। जिसकी सटीक जानकारी कई महिलाओं के आत्मकथाओं से मिलती हैं।
इन स्थितियों में बेगम रुकैया सखावत हुसैन औपनिवेशिक बंगाल में मुस्लिम समाज कि महिलाओं के लिए पितृसत्तात्मक समाज की आलोचना की प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में नज़र आती हैं। जिन्होंने मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा के माध्यम से अपने अधिकारों और जिम्मेदारियों के प्रति जागृत करने का प्रयास किया।
9 दिसंबर 1880 में रंगपुर जिले के (जो अब बांग्लादेश में है) पेराबाउड में एक ज़मींदार परिवार में बेगम रुकैया का जन्म हुआ था। पिता ज़हीरुद्दीन अबू अली हैदर साबेर जो अरबी,फारसी, पश्तो, उर्दू और अंग्रेजी के अच्छी जानकारी रखते थे, एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे। चार पत्नियों,नौ बेटों और छह बेटियों के उनके परिवार में स्त्रियों को पर्दे के नियम का कड़ाई से पालन करना होता था। रुकैया, पिता ज़हीरुद्दीन अबू अली हैदर साबेर की पहली पत्नी राहतउन्निसां साबेर चौधरानी के दो बेटे और तीन बेटियों में दूसरे स्थान पर थी।
रुकैया के परिवार के उनके खुद के ब्यौरे के मुताबिक, “उनके परिवार में स्त्रियों को अच्छा खाना, अच्छा पहनना, गहने-ज़ेवर खरीदने और पहनने की आज़ादी थीं पर घर के चारदीवारी के अंदर।“[1]
अपने बचपन की घटनाओं के बारे में रुकैया लिखती है कि –“उनके घर पर कोई व्यक्ति मिलने के लिए आ जाता तब छोटी बालिकाओं को भी दौड़ाकर छुप जाना पड़ता था, कभी रसोई में, कभी बड़ी टोकरी के पीछे, कभी बिस्तर के नीचे, भले ही आने वाला आगंतुक स्त्री ही क्यों न हो?”[2]
वह इसलिए क्योंकि परिवार की महिलाओं और लड़कियों को पर्दे नियमों को सख्ती से पालन करने की हिदायत थी। यह मान्यता थी कि पर्दे नियम-कायदों के उल्लंघन से परिवार की इज़्ज़त डूब जायेगी।
भाई ने बहन को छिप-छिप कर पढ़ाया
उस दौर में मुस्लिम परिवार में लड़कियों को पढ़ाने की कोई व्यवस्था नहीं थी, लड़कियों को पढ़ाने पर काफी विरोध का सामना करना पड़ता था। छोटी उम्र की लड़कियाँ अपने-अपने भाईयों के साथ किसी बड़े उम्र के उस्ताद से पवित्र कुरान पढ़ सकती थीं और बड़ी उम्र की लड़कियाँ दादी-नानियों से पढ़ती थीं जिनके पास साहित्यिक कौशल के सीमित कोष थे। रुकैया के पिता बेटियों को शिक्षा देने के पक्ष में थे, परंतु समाज की बंदिशे उनके साथ थी। इसलिए अपनी बेटियों को पढ़ाने की कोई योजना उनके पास नहीं थीं। हैदर साबेर ने अपने बेटों को पढ़ाई की पूरी व्यवस्था कर रखी थी। रुकैया की बहनें,अपने बड़े भाई से पढ़ा करती थी।
बेगम रुकैया द्वारा पेश उनके खुद के ब्यौरे के अनुसार, वह खुशकिस्मत थीं कि स्कूल नहीं जाने के बाद भी, उन्हें बड़े भाई इब्राहिम साबेर ने पढ़ने-लिखने में उनकी रूचि देकर उनमें शिक्षा के प्रति दिलचस्पी बढ़ाई।[3]
इब्राहिम साबेर, अपने पिता ज़हीरुद्दीन साबेर के विचारों के विपरीत थे। उन्होंने कलकता के सेंट जेवीयर कालेज से अपनी पढ़ाई की थी और सर सैयद अहमद के विचारों से प्रभावित थे और हालांकि मुस्लिम महिलाओं के पढ़ने-लिखने के पक्ष में थे (सर सैयद अहमद मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के पक्ष में नहीं थे)। बाद के दिनों में इब्राहिम साबेर अंग्रेजी हूकूमत में सरकारी अधिकारी भी हुए। इब्राहिम साबेर ने अपनी बहनों को पढ़ने-लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।
रुकैया अपनी आत्मकथा ‘मोतीचूर’ में लिखती है कि उनके पिता बांग्ला और अग्रेंजी सिखने के पक्ष में नहीं थे। उस दौर में उर्दू भद्र मुसलमानों की जबान हुआ करती थी और बांग्ला आमलोगों की बोल-चाल की भाषा थी। बांग्ला बोलने और पढ़ने में उर्दू जबान के लोगों को कोफ़्त महसूस होती थी। यही स्थिति अंग्रेजी भाषा के साथ भी थी। इस माहौल में इब्राहिम साबेर ने अपनी बहनों को अंग्रेजी के प्रारंभिक पाठ पिता से छुपाकर पढ़ाना शुरू किया। इसके लिए इब्राहिम साबेर और उनकी बहन रात होने का इंतजार करती थी, रात के भोजन के बाद जब उनके पिता सोने के लिए चले जाते, तब वो अपनी बहन और बड़े भाई से रात के सन्नाटे में, मोमबत्ती की रोशनी में अंग्रेजी पढ़ना सिखती थी।
रुकैया की बड़ी बहन करीमुन्निसां में लिखने-पढ़ने की इतनी अधिक इच्छा थी कि उसने अपने आप ही बांग्ला भाषा तालीम ली और उसे सीखने में रुकैया की सहायता की। करीमुन्निसां अधिक खुशकिस्मत नहीं रही। जब घरवालों को पता चला था कि करीमुन्निसां ने अंग्रेजी पढ़ना सीख लिया है, तब उन्हें शादी तय होने तक नानी के सतर्क निरीक्षण में रख दिया गया था।
करीमुन्निसां की शादी चौदह साल के उम्र में अब्दुल हाफिस गजनवी से हुई। रूकैया बचपन में अपनी बहन करीमुन्निसां के बेहद करीब थी। करीमुन्निसां के घरेलू जीवन पर रुकैया ने कई कविताएं भी लिखी जो घरेलू जीवन की समस्याओं को अभिव्यक्त करती है।
सैयद सखावत हुसैन से शादी के बाद रुकैया को पढ़ने का मौका मिला
बेगम रुकैया की शादी 1896 में कर दी गई जब वो सिर्फ सोलह वर्ष की थी और वह बेगम रुकैया सखावत हुसैन हो गई। रुकैया के पति सैयद सखावत हुसैन विधुर थे और पहली पत्नी से उन्हें एक बेटी थी। सखावत हुसैन ने पश्चिम में पढ़ाई की थी और वह स्वयं तरक्की पसंद, उदार ख्याल एवं जहीन इंसान थे। वह बिहार में भागलपुर जिले अंग्रेज सरकार के बड़े ओहदे पर कार्यरत थे। अपनी नौजवान पत्नी रुकैया को सहचर के रूप में देखते थे।
उन्होंने देखा कि रुकैया के भीतर पढ़ने-लिखने की गहरी इच्छा है, उन्होंने शादी के तुरंत बाद रुकैया को अंग्रेजी की शिक्षा देना शुरू कर दिया था और रुकैया से बंगला भाषा सीखाना शुरु किया। पढ़ाई-लिखाई और तरक्कीपसंद माहौल ने रुकैया के अंदर महिलाओं और खासतौर से मुसलमान महिलाओं को बराबरी का हक दिलाने के लिए संघर्ष की जमीन तैयार कर दी।
रुकैया का विवाहित जीवन अधिक समय तक नहीं चला, उम्र के साथ सखावत हुसैन का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा और पत्नी के समर्पण भाव से सेवा करने के बाद भी कोई लाभ नहीं हुआ। 1909 में रुकैया के 29 वर्ष में ही सखावत हुसैन दिवंगत हो गये।
सखावत हुसैन जानते थे कि रुकैया मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा के लिए कुछ करना चाहती थी, इसलिए उन्होंने उनके लिए दस हज़ार रुपये छोड़ गये। 13 वर्ष के विवाहित जीवन में प्रारंभ में ही दो बच्चों के मौत के बाद भी उदासी और अकेलेपन के माहौल में रुकैया ने अपने जीवन पर नियंत्रण रखा और पति के छोड़े गये धन से उनके नाम पर एक स्कूल शुरू करने का निश्चय किया। जो सखावत मैमोरियल गर्ल्स स्कूल के नाम से भागलपुर में शुरु हुआ।
सौतेली बेटी और दामाद के संपत्ति विवाद से तंग आकर उन्होंने पति का घर छोड़ दिया और कलकत्ता में अलीउल्लाह गली में छोटे से घर में केवल ग्यारह छात्राओं के साथ एक स्कूल शुरु किया, जो बाद में सर्कुलर रोड में स्थांतरित हुआ। मुस्लिम महिलाओं के लिए स्कूल का संचालन बेगम रुकैया के जीवन का निर्णायक मोड़ था।
मुस्लिम महिलाओं को शिक्षित करने का रुकैया का प्रयास
मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के लिए स्कूल खोलने का बेगम रुकैया का यह प्रयास औपनिवेशिक भारत का पहला प्रयास नहीं था। परंतु, बेगम रुकैया जिस सुव्यवस्थित योजना और साहसिक प्रयासों से इस स्कूल का संचालन कर रही थीं, वह बेगम रुकैया को महिला शिक्षा के क्षेत्र में आगे के पंक्ति में खड़ा कर देता है। खासकर जब वहां उर्दू के साथ-साथ पर्सियन, अरबी, बंगाली और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जा रही थी। जबकि शिक्षण का माध्यम उर्दू था।
बेगम रुकैया इस्लामी संप्रदाय के कट्टरपंथी भावनाओं के प्रति पूरी तरह संवेदनशील थीं फिर भी मुसलमान लड़कियों को शिक्षा देने के कारण उन्हें समाज के एक वर्ग से आलोचना को बराबर झेलना पड़ा। मुस्लिम लड़कियों के लिए शिक्षा के अभियान पर उनके ऊपर ईसाईपरस्त और अंग्रेजपरस्त होने की आलोचना का शिकार होना पड़ा, लेकिन उनका स्कूल चलता रहा।
उनके स्कूल के संचालन में शिक्षित मुसलमान उनकी मदद के लिए आगे आये जिससे बेगम रुकैया के स्कूल का कार्य मिशनरी भावना से जारी रखा। उनके स्कूल में मध्यवर्गीय और अमीर मुसलमान परिवारों की लड़कियाँ भी पढ़ती रही। स्त्री शिक्षा पर बैगम रुकैया के विचारों ने इस्लामी संस्कृति को खतरे में डाल देगी उनकी इस तकरीर ने लोगों पर अनुकूल व उत्साहपूर्वक प्रभाव छोड़ा था। बाद के दिनों में उनका स्कूल जूनियर स्कूल बना और उनकी छात्राएं दसवीं की परीक्षा में भी बैठी। उनका यह स्कूल सखावत मैमोरियल गवर्नमेंट गर्ल्स स्कूल के नाम से लार्ड सिन्हा रोड पर, कलकत्ता में आज भी चल रहा है।
रुकैया सखावत हुसैन : जिन्होंने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा का ख्वाब दिखाया
मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा के लिए रुकैया ने कट्टरपंथी कठोरतम नियमों से परहेज़ नहीं किया
औपनिवेशिक भारत में महिआओं के शिक्षा का इतिहास हिंदू और मुस्लिम महिलाओं के लिए एक ही तरह का रहा है। उसमें मूलभूत अंतर बस इतना ही था कि हिंदू महिलाओं के लिए स्कूल पहले शुरू हो चुके थे। परंतु, उनकी समस्याएं, उनके अवरोध और उनका विमर्श एक ही तरह का था।
रुकैया इन तमाम विसंगतियों से अवगत थी। इसलिए वो इस्लामी संप्रदाय की कट्टरपंथी भावनाओं के प्रति पूरी तरह संवेदनशील थी इसलिए लड़कियों को स्कूल लाने और वापस भेजने के दौरान कठोरतम नियमों का पालन उनकी देख-रेख में होता था। जब लड़कियां गर्मी में बंद बग्घी में बैठने के वजह से मिचली करने लगती या बेहोश होने लगती, तब नियमों में थोड़ा संसोधन किया जाता था और बंद जालों के जगह पर्दे लगा दिए जाते थे। स्कूल के अंदर भी लड़कियाँ पर्दे के नियम का कड़ाई से पालन करती थी। स्कूल के अंदर लड़कियों को अपने सर को ढंके रहना पड़ता था।[4]
उन्नसवी सदी के देशकाल में सर ढंकने वाले कपड़े शालीनता और आधुनिकता दोनों के ही प्रति सम्मान का एक ऐसा संकेत था जो उस दौर में दायरे में रहने वाली महिलाओं के लिए क्रांतिकारी कदम था। स्कूल को सही तरीके से चलाने के लिए यह बहुत ज़रूरी था कि स्कूल में भी नियमों का सख्ती से पालन हो। उनके स्कूल के पाठ्यक्रम में साक्षरता तथा हस्तकला, गृहविज्ञान और बागवानी जैसे व्यावसायिक विषयों पर अधिक जोर था। इनमें शारीरिक स्वास्थ्य पर प्रशिक्षण भी शामिल था।
लड़कियों के पाठ्यक्रम के शैक्षणिक कार्यक्रम रुकैया बेगम के लेखकीय रचनाओं से बिल्कुल मेल नहीं खाते थे। उन्होंने स्कूल के पाठयक्रम में उन नियमों से खुद को जोड़ कर रखा, जो महिलाओं को एक दायरे तक ही सीमित करते थे। वह इस्लामी संप्रदाय की कट्टरपंथी भावनाओं के टक्कर लेकर मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा के रास्ते को बंद नहीं करना चाहती थी।
मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के बारे अपने नज़रिये के बारे में वह लिखती हैं कि – हमारे मस्तिष्क में ज्ञान का प्रवेश न होना वैसा ही है जैसे हमारे शयनकक्ष में सूर्य का प्रवेश न कर पाना। जब हमारे पति पृथ्वी से सूर्य और सितारों की दूरी नापते है तब उनकी पत्नियाँ तकिये की लंबाई-चौड़ाई माप लेती है। [5]
बेगम रुकैया का मानना था शिक्षा मुस्लिम महिलाओं के लिए इसलिए आवश्यक है क्योंकि यह महिलाओं को सम्मानपूर्ण जीवन का रास्ता खोल सकता था। महिलाओं के शिक्षा के माध्यम से बेगम रुकैया उन स्थापित मान्यताओं को भी खारिज़ करना चाहती थीं कि शिक्षा महिलाओं के पारिवारिक जीवन में अनिश्चिता लाता हैं।
मसलन, शिक्षित महिलाओं के पति कि असमय मृत्यु हो जाती हैं या शिक्षित महिलाएं कुटिल और विवेकहीन होती है। इसलिए मुस्लिम महिलाओं के लिए अपने उदार विचारों को उन्होंने अपने कई लेखों में अभिव्यक्त किया और निजी और सार्वजनिक जीवन में महिलाओं के लिए मौजूद नियम-कायदों और पाबंदियों की आलोचना उन्होंने कलम के सहारे अपने लेखों के माध्यम से किया। रुकैया का मानना था कि मुस्लिम महिलाओं के शिक्षा के रास्ते में दो बड़ी बाधाएं हैं।
पहला, सख्त पर्दा कानून जो महिलाओं को घर से बाहर शिक्षा के अवसरों को सीमित कर देता है और दूसरा है कम उम्र में लड़कियों के शादी का रिवाज़।[6]
महिलाओं की शिक्षा के बारे में वह बताती हैं कि – मैं उस तरह की शिक्षा की बात कर रही जो महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से समान नागरिक के रूप में प्राप्त हो सके। महिलाओं को यह समझना होगा कि वह केवल अच्छे कपड़े और महंगे जेवरात के जरूरत के लिए नहीं है। [7]
हमारे देश में महिलाओं के लिए कुछ विशेष कार्य ही निर्धारित हैं उनका पूरा जीवन उनके पति के लिए समर्पित होने के लिए नहीं है। उन्हें अपने उत्कर्ष के लिए दूसरों पर अपनी निर्भरता खत्म करनी चाहिए। शिक्षा ही वह माध्यम है जो महिलाओं को आर्थिक रुप से आत्मनिर्भर बना सकता हैं। अगर महिलाएं शिक्षित होने के बाद पारिवारिक जीवन में जाती हैं, तो शिक्षा उनके अंदर आत्मसम्मान की भावना का विकास भी करता है।
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रुकैया बेगम कि बहुचर्चित रचना ‘सुलताना ड्रीम्स और अबरोधबासिनी’
महिलाओं के लिए सम्मानपूर्ण जीवन की कल्पना अपनी बहुचर्चित रचना ‘सुलताना ड्रीम्स’ (सुलताना का सपना,1908) में करती है। जो अंग्रेजी में लिखा गया था, जबकि रुकैया अधिकतर बांग्ला में लिखती थीं। इस रचना में रुकैया स्त्रियों के दुनिया की एक ऐसा रेखांचित्र खींचती हैं, जिसमें पुरुषों को उन्हीं बंधनों में जकड़कर रखा जाता था, जैसे जनाने में महिलाओं का जीवन रहा था।
रुकैया एक ऐसे महिला प्रधान देश की कल्पना करती हैं जिसमें देशभर पर महिलाएं शासन तथा समस्त सामाजिक मामलों को नियंत्रित करती हैं और पुरुषों को शिशुओं की देखभाल खाना बनाने और सब प्रकार के घरेलू कामकाज करने के लिए मर्दाना में रखा जाता है। इस रचना में रुकैया भारत में पुरुषों की सुविधा संपन्न स्थिति पर आक्रमण करती हैं।
रुकैया बेगम अपनी रचना अबरोधबासिनी में व्यंग्य के शैली में उन घटनाओं को अभिव्यक्त करती हैं जिसे उन्होंने खुद देखा और भोगा भी था। इस रचना में उन्होंने अपने बचपन में जनाना में घटने वाली उन घटनाओं को अभिव्यक्त किया जो महिलाओं को नियम कायदों में सीमाबद्ध करती थीं और महिलाओं के जीवन को कठिन बना देती थीं। बेगम रुकैया व्यंग्य शैली में मुस्लिम महिलओं के जीवन में पर्दे की बेबसी और पर्दे में महिलाओं की हकीकत को कलमबद्ध करती हैं।
इसकी भूमिका में वह लिखती हैं – कई ऐतिहासिक और आंखों देखी सच्ची घटना के आधार पर हंसने-रुलाने वाली अबरोधबासिनी रची गई। अबरोधबासिनी में बेगम रुकैया मुस्लिम महिलाओं के अवरोध पर्दा प्रथा की आलोचना व्यंग्य शैली में ही नहीं करती हैं। बल्कि इसमें वह हर चीज शामिल है जो महिलाओं के निजी और सार्वजनिक जिंदगी को किसी खास दायरे में कैद करती हैं। बेगम रुकैया इन अवरोधों को इसलिए समझ सकी और महसूस किया क्योंकि वह खुद इन अवरोधों के बीच रही और उससे जद्दोजहद भी करती रही थीं। मुस्लिम महिलाओं के निजी और सार्वजनिक जीवन की इन समस्याओं से अधिकांश लोग अनजान थे।
‘बुर्का लेख पर्दा व्यवस्था की जुड़ी हुई ऐसी वास्तविक घटनाओं का जिक्र करती हैं जिससे लोग अनजान थे। मुस्लिम महिलाओं के पर्दे पर पीड़ा पर उन्होंने सार्वजनिक रूप से काफी कुछ लिखा खासकर अपने स्कूल के शैक्षणिक संरचना में पर्दे पर सख्ती के कारण मुस्लिम लड़कियों के दिक्कतों पर।[10]
रुकैया बताती हैं कि मुस्लिम धार्मिक कानून कुरान और शरीयत में पर्दा प्रथा का कोई आधार नहीं है। ‘हमारी अवनति’ लेख में बेगम रुकैया बताती हैं कि हमें पुरुषों के आगे सिर झुकाकर और परेशान होने की जरूरत नहीं हैं क्योंकि पुरुष धर्म के नाम पर अनावश्यक रूप से हमारे मालिक बन बैठे है। सख्त धार्मिक बंधनों के कारण महिलाओं के दमन के रूप सामने आते हैं। सती इसका सबसे बड़ा सबूत है। धर्म से मेरा मतलब धर्म द्वारा लगाये गए सामाजिक नियंत्रण से है। [11]
सामाजिक मसलों पर बोलते हुए धर्म की चर्चा करना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि धर्म ने महिलाओं को गुलामी के जंजीरों में अधिक मजबूती से जकड़ने का काम किया हैं। पुरुष धर्म के नाम पर महिलाओं पर वर्चस्व स्थापित करते हैं। बैगम रुकैया ने मुस्लिम समुदाय में निर्धन बालिकाओं को नि:शुल्क शिक्षा प्रदान करने, उनके विवाह की व्यवस्था करने और मुस्लिम महिलाओं में आत्मचेतना विकसित करने के उद्देश्य से ‘अंजुमने ख़वातीने इस्लाम की नींव, कलकत्ता में डाली।रुकैया बेगम के तमाम लेखन महिलाओं के स्थिति में बदलाव लाना चाहता था।
बेगम रुकैया का विश्वास था कि महिलाएं समाज का आधा भाग हैं अत: यदि महिलाएं पीछे छूट गयी तो समाज प्रगति कैसे करेगा? पुरुष और स्त्री के हित एक समान है। दोनों के लिए जीवन का लक्ष्य भी समान है।
बेगम रुकैया का सार्वजनिक जीवन और उनका लेखन बहुत हद तक स्पष्ट करता है कि उन्होंने उन्नसवीं और बीसवीं सदी के राष्ट्रवाद आंदोलन के दौर में मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा के आधार पर एक जमीन तैयार करने की कोशिश की। मुस्लिम महिलाओं की अस्तित्व को नई पहचान देने की कोशिश की। मुस्लिम महिला समुदाय में उनका प्रयास ‘नारी-जागरण का था। लैंगिक आधार पर असमानता को उन्होंने अपनी राजनीति का विषय बनाया और अपना अधिकांश लेखन लैंगिक न्याय के पक्ष में किया। जिसके लिए वह अपने अंत तक संघर्ष करती रही। उनके जीवन का आखिरी अधूरा लेख का शीर्षक नारी अधिकार था, जिसे लिखने के लिए वह अपनी मौत को नहीं टाल सकीं।
रुकैया परिवार संस्था को खत्म करने की बात नहीं करती। परंतु, परिवार के पुर्नरचना के लिए स्त्री-पुरुष समानता और वैवाहिक साझेदारी को ज़रूरी मानती है। वह धर्म का का विरोध नहीं करती; परंतु धर्म जिस तरह महिलाओं के अधिकार और स्वतंत्रता को नियंत्रित करता हैं और महिलाओं के जीवन में अवरोध उत्पन्न करता हैं उसका पुरजोर विरोध करती है। वह पुरुषों से भी कहती हैं कि महिलाओं को समानता दें, उनके योगदान को स्वीकार करें और उनकी सहभागिता को बराबरी का महत्व दें। महिलाओं के लिए उनकी आवाज थीं- “जागो”!
संदर्भ
[1] मूल रूप से मोतीचूर के पहले खंड में प्रकाशित
[2] वही
[3] वही
[4] गेल मिनो, ’पर्दा प्रोग्रेस: द बीगिनिंग आंफ स्कूल एजुकेशन फांर इंडियन मुस्लिम विमेन्म इनडिविजुयल्स एंड आडियल्स इन मार्डन इंडिया, संपादन: जे.पी.शर्मा; कलकत्ता, फर्मा के.एल. मुखोपाध्याय,1982, पृष्ठ 76-97
[5] मूल अंग्रेजी में अनरीज़नेबल
[6] वही
[7] मूल अंग्रेजी में डल हैड(ठप्प दिमाग) से।
[8] रोशन जहां, इनसाइड सेक्ल्यूजन, पृष्ठ 53-3
[9] हमारी अवनति लेख का हिस्सा
[10] बेगम रुकैया पर उपलब्ध सामग्री के स्त्रोतों में शामिल हैं: इनसाइड सेक्लयूजन, अवरोधवासिनी: मूल रचनाकार बेगम रूकैया, अनुवाद व संपादन रोशन जहां(ढ़ांका, बांग्ला देश, बीआरसी प्रिटर्स, 1981)
[11] आवर डीग्रेडेशन(हमारी अवनति) का पैराग्राफ
[12] मूलरूप अंग्रेजी में “बेजेज़ आंफ स्लेवरी”(गुलामी के तगमे)। रुकैया की टिप्पणी: एक खास शम्स-उल-उलेमा(जकाउद्दीन) का कहना है, “नथनी असल में नाक में रस्सी डालने का ही एक संशोधित रूप है।”
[13] वीमेन्स कांन्फ्रेस में यह प्रस्ताव हुआ था कि महिलाओं को उनकी बेड़ियों से मुक्ति दिलाने के लिए मताधिकार उनका पहला राजनीतिक अधिकार का प्रयोग होगा।
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में