जब गांधीजी दक्षिण अफ़ीका से 24 साल बाद भारत पहुंचे
गांधीजी 1893 में दक्षिण अफ्रीका गए थे। उस समय वो 24 साल के थे, लेकिन जब भारत लौटे तो 45 साल के अनुभवी वकील बन चुके थे। कहते हैं कि वो गांधी बनकर गए थे और महात्मा बनकर लौटे। 9 जनवरी 1915 की सुबह जैसे ही गांधीजी अपोलो बंदरगाह पर उतरे, उनका गर्मजोशी से स्वागत किया। मोहनदास करमचंद गांधी पर उस दिन देश के 25 करोड़ लोगों की निगाहें थीं और वो इसलिए, क्योंकि अफ्रीका में रहते हुए उन्होंने जो लड़ाई लड़ी, उसी ने भारतीयों को भी उम्मीद दी कि यही नेता हमें आजादी दिला सकता है।
रामचंद्र गुहा, ने पेग्विन प्रकाशन से प्रकाशित गांधी दक्षिण अफ़ीका से भारत आगमन और गोलमेज सम्मेलन तक(1914-31) किताब में औपनिवेशिक भारत में महात्मा गांधी के संघर्षों को दर्ज किया। उनकी किताब का एक छोटा सा अंश-
गांधीजी जब बम्बई के समुद्र तट पर उतरे,महानतम साम्राज्य के सबसे बड़े उपनिवेश में एक केंद्रीय शख्सियत बन गए
जनवरी 1915 में जब मोहनदास करमचंद गांधी बम्बई के समुद्र तट पर उतरे, तो उस समय वह पैंतालीस साल के हो चुके थे और काफी समय से अपने देश से बाहर थे। गांधी गुजरात के दो छोटे-छोटे रजवाड़ों में पले-बढ़े थे जो ब्रिटिश भारत में आकर ले रहे सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तनों से अछूता था। उन्होंने लंदन में कानून की पढ़ाई की थी और बंबई और राजकोट के अदालतों में असफल होने के बाद दक्षिण अफ्रीका चले गए थे जहां उन्होंने आन्दोलनकारी और सामाजिक कार्यकर्ता बनने से पहले अपना एक सफल कानूनी पेशा स्थापित किया था।
दो दशक जो गांधीजी ने अप्रवासी भारतीयों के बीच बिताए थे, उनके बौद्धिक और नैतिक विकास के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण साबित हुए। अपने वतन से बाहर रहकर वह भारत की भाषाई और धार्मिक विविधता को समझने में कामयाब हो पाए। दक्षिण अफ्रीका में ही उन्होंने अतिवादिता की हद तक सादगी का जीवन अपनाया जिसमें उन्होंने अलग-अलग प्रकार के भोजनों और इलाजों के माध्यम पर प्रयोग किए। वहीं उन्होंने पहले-पहल अहिंसक प्रतिरोध के तरीके के बारे में सोचा और उसका प्रयोग किया जिसे बाद में सत्याग्रह के नाम से जाना गया।
दक्षिण अफ्रीका में गांधी के बिताए साल उनके लिए जाती तौर पर महत्वपूर्ण थे, लेकिन भारत में बिताए उसके बाद के साल ज्यादा ऐतिहासिक महत्व के हैं। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने भारतीय अप्रवासियों का नेतृत्व किया जिसमें कुल मिलाकर 1,50,000 लोग ही थे। लेकिन अपनी मातृभूमि में कदम रखने के बाद यहं के तीस करोड़ लोगों के नेतृत्व करने का प्रयास किया। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने सिर्फ शहरों और जिला मुख्यालयों में काम किया था जहां भारतीय समुदाय के लोग रहते थे लेकिन भारत में उन्होंने हर हिस्से में अपने विचारों का फैलाव किया। उस देश में वह अप्रवासियों के एक छोटे से हिस्से का नेतृत्व कर रहे थे जबकि अपनी मातृभूमि में वह दुनिया के महानतम साम्राज्य के सबसे बड़े उपनिवेश में एक केंद्रीय शख्सियत बन गए।
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गांधीजी ने शहर केंद्रित औपनिवेशिक विरोध को समाज के निचले तबके तक ले जाने का काम किया
दक्षिण अफ्रीका से लौटने के बाद जिस हिंदुस्तान में गांधीजी ने 1915 में कदम रखा था वो अब राजनीतिक रूप से किसी भी तरह से शांत नहीं रह गया था। 1885 में स्थापित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उदारवादी धड़ा जो अंग्रेजों को विनम्रता और आदरपूर्वक भारतीयों को ज्यादा अधिकार देने के लिए आवेदन किया करता था। जबकि उस समय कांग्रेस में एक अतिवादी गुट था जो भारत को राजनीतिक और आर्थिक आज़ादी दिलाने के लिए सड़कों पर उग्र प्रदर्शन सड़कों पर उग्र प्रदर्शन और ब्रिटिश कपड़ों की होली जनाने का हिमायती थी।
एक तरफ जहां कांग्रेस जाति और धार्मिक विश्वास से इतर सभी भारतीयों की नुमाइंदगी की बात करती थी, तो दूसरी तरफ 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना खासकर इस उपमहाद्वीप के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक वर्ग के हितों की सुरक्षा के लिए हुई थी। देश में कुछ छोटे लेकिन बहुत ही सक्रिय क्रांतिकारियों के समूह भी थे जो बमबारी और हत्याकांड के द्वारा अंग्रेजों को डराकर इस मुल्क से निकाल बाहर करना चाहते थे। यह राजनीतिक समूह और प्रवृत्तियां आवश्यक रूप से शहरी और मध्यमवर्गीय चरित्र की थीं।
भारत के गांवों में उनकी कोई जड़ें नहीं थीं। 1915 में भारत लौटने के बाद गांधी ने इस शहर केंद्रित और संभ्रांतों के वर्चस्व वाले अंग्रेज़ी राज के विपक्ष को समाज के निचले तबके तक ले जाने का काम किया और उसे एक जनांदोलन में तब्दील कर दिया। वह इसे लेकर देश के अंदुरुनी ग्रामीण हिस्सों तक ले गए जिसमें करोड़ों किसान, श्रमिक, शिल्पी और महिलाओं को बढ़चढ़कर अपनी हिस्सेदारी ली। गांधी ने जिन तकनीकों का इस्तेमाल किया, जो यात्राएं की और इस परिवर्तन को अंजाम देने के लिए किन मित्रताओं और संबंधों को आकार दिया, वह इस कथानक के अहम हिस्से हैं। जाहिर है, भारत के सबसे मशहूर देशभक्त की जीवनी आवश्यक रूप से उस देश की तत्कालीन, सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक दल यानी कांग्रेस का भी इतिहास है। साथ ही, यह अपने आप में देश की आज़ादी के आन्दोलन का भी इतिहास है।
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केवल आजादी दिलाना ही गांधी का एकमात्र उद्देश्य नहीं था
ब्रिटिश आधिपत्य से भारत को आजादी दिलाना ही गांधी का एकमात्र उद्देश्य नहीं था। उनका दूसरा उद्देश्य भारत के धार्मिक समूहों के बीच समांजस्य स्थापित करना भी था जो अक्सर एक दूसरे से लड़ने रहते थे। उनके अपने हिंदू धर्म में छूआछूत की घृणित प्रथा को खत्म करना उनका तीसरा उदेश्य था। उनका चौथा लक्ष्य था भारत के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता और भारतीयों के लिए नैतिक स्वाभिमान को जागृत करना। ये सारे अभियान गांधी ने साथ-साथ चलाए थे। ये सारे उनके लिए समान महत्व के विषय थे।
1933 में उन्होंने अपने एक नज़दीकी मित्र को लिखा कि मेरा जीवन एक अविभाज्य इकाई है…मैं स्वंय को पूरी तरह सिर्फ अछूतोद्धार के लिए यह कहकर समर्पित नहीं कर सकता कि हिंदू-मुस्लिम एकता या स्वराज्य को नज़रअंदाज़ कर दिया जाए। ये सारी बातें एक दूसरे से गुथी हुई है और एक दूसरे पर निर्भर हैं । आप मेरे जीवन में मुझे कभी एक बात पर जोर देते हुए पाएंगे, जबकि दूसरे समय किसी दूसरे मुद्दे पर। लेकिन एक पियानो-वादक की तरह है यह सब जो कभी एक तार को छूता है तो कभी दूसरे को।
गांधी के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं था जब तक कि वह धार्मिक सौहार्द्र, जाति और लैंगिक समानता और हरेक भारतीय के जीवन में स्वाभिमान के विकास के साथ नहींआती। अन्य देशभक्तों ने राष्ट्रीय स्वतंत्रता की महत्ता को दर्शाने के लिए हिंदू शब्द स्वराज का इस्तेमाल किया था, जबकि गांधी ने भारतीयों को इसके सही या कहें कि मूल अर्थ से अवगत करवाया, स्व-राज यानी स्व-शासन या अपना शासन।
संदर्भ
रामचंद्र गुहा, गांधी दक्षिण अफ़ीका से भारत आगमन और गोलमेज सम्मेलन तक(1914-31), पेग्विन प्रकाशन, 2021
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में