क्यों चला रवीन्द्र नाथ टैगौर और गाँधी जी का लम्बा ‘शास्त्रार्थ’
महात्मा गाँधी ने 1934 में प्रसिद्ध गायक दिलीप राय से बातचीत करते हुए कहा-
जीवन समस्त कलाओं से श्रेष्ठ है। मैं तो मानता हूं कि जो अच्छी तरह जीना चाहता है, वही सच्चा कलाकार है। उत्तम जीवन की भूमिका के बिना कला किसप्रकार चित्रित की जा सकती है। कला के मूल्य का आधार है जीवन को उन्नत बनाता। जीवन ही कला है।
जब गाँधी जी नन्दलाल बोस से मिले
गाँधी जी से सबसे क़रीब माने जाने वाले कलाकार नन्दलाल बोस से जुड़ा एक क़िस्सा है। दक्षिण अफ्रीका से आने के तत्काल बाद ही गाँधीजी शान्तिनिकेतन जाने लगे थे। तब वहाँ स्थित कला भवन के लोगों से और संगीतकारों से परिचय हुआ था। पर जब वे वर्धा में रह रहे थे तब का यह क़िस्सा है।
जब नन्दलाल बोस उनसे मिलने पहुँचे तो गाँधीजी के पास एक लोटा रखा था। नन्द बाबू की नज़रें उसी पर टिक गयीं क्योंकि वह कुछ ख़ास था। उस पर पीपल का एक पत्ता उकेरा गया था। गाँधीजी ने इस चीज़ को नोटिस किया। उन्हें लगा कि इतना बड़ा कलाकार कहीं इस अदने लोटे को भद्दा न मान रहा हो। सो गाँधीजी ने पूछ ही लिया, ‘क्या लोटा अच्छा नहीं है? मुझे यह एक स्थानीय ठठेरे ने दिया है। इसमें उसकी कलाकारी भी है और प्रेम भी। मेरे लिए यह सुन्दर भी और उपयोगी भी। साथ ही इससे प्रेम भाव जुड़ा है, इसीलिए मैं इसे साथ रखता हूँ।‘
बोस बाबू के लिए लोटे से भी ज़्यादा सुन्दर यह व्याख्या थी जिसमें कला, शिल्प, सौन्दर्य, जीवन से उसका जुड़ाव और उपयोगिता सब कुछ साफ़-साफ़ बताया गया था। इस बड़े कलाकार के लिए गाँधीजी का मुरीद बन जाने के लिए यह परिभाषा पर्याप्त थी और ऐसा अनुभव अकेले नन्दलाल बोस का न था।
‘हिन्द स्वराज’ जीवन, कला और सौन्दर्य के बुनियादी सूत्र भी सामने लाती है
गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका में शुद्ध रोजगार के लिए गये थे। हिन्दुस्तानियों के प्रति होने वाले अन्याय के प्रत्यक्ष अनुभव के बाद उन्होंने वहाँ कैसी और कितनी बड़ी लड़ाई लड़ी इसका ज़िक्र करने की नहीं है। पर छोटी-छोटी बातों से शुरू हुआ उनका प्रयोग सत्याग्रह के व्यावहारिक अहिंसक हथियार के रूप में वहीं सामने आया।
गाँधी जी की लड़ाई वहाँ लम्बी चली और इसके साथ गाँधी जी बदलते गये, उनकी सोच बदलती गयी और लगभग दो दशक के दक्षिण अफ्रीकी अनुभव के बाद जब वे भारत चलने लगे तो सारे अनुभव और सोच के नवनीत के रूप में ‘हिन्द स्वराज‘ सामने आया जो उन्होंने वापसी वाले जहाज़ में बैठ कर लिखी थी।
पश्चिम की शैतानी सभ्यता का विकल्प देने की सोच वाली अपनी इस किताब में गाँधी जी बहुत बाद तक कोई बदलाव करने को तैयार नहीं थे। गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका की अपनी लड़ाई मुख्य रूप से हिन्दुस्तानियों के लिए लड़ी और कई दूसरे प्रयोग भी किये जिनका विस्तार इस किताब में माना जा सकता है। यही किताब गाँधी जी की विकास की अवधारणा के साथ जीवन, कला और सौन्दर्य के बारे में उनकी राय के बुनियादी सूत्र भी सामने लाती है।
इतिहासकार बी. आर. नन्दा द्वारा सम्पादित भारतीय सांस्कृतिक सम्बन्ध परिषद् के विशेषांक, जो गाँधी जी की 125वीं जयन्ती पर निकला था, में ए.जे. परेल द्वारा लिखे एक ज़बरदस्त आलेख में यह बात क़ायदे से स्थापित की गयी है कि गाँधी जी की नैतिकता और सौन्दर्य-बोध पर किस तरह तब के दिग्गजों, टालस्टाय, रस्किन और बाद में रवीन्द्रनाथ जैसों का कितना गहरा असर है।
जब रवीन्द्र नाथ टैगौर और गाँधी जी का लम्बा ‘शास्त्रार्थ‘ चला
रवि बाबू के साथ तो गाँधी जी का लम्बा ‘शास्त्रार्थ‘ चला, 1920-21 से लेकर 1925 तक। तीन दौर की बातचीत को कोई सन्दर्भ से काट कर और सिर्फ़ तब के लोगों की व्याख्या के आधार पर देखे तो लगेगा कि यह दो महापुरुषों की ‘लड़ाई‘ है। लेकिन यही गाँधी जी जब रवि बाबू के न रहने पर शान्तिनिकेतन आए तो बड़े मज़े से स्वीकार किया-
मैंने गुरुदेव और अपने बीच विरोध की स्थिति को पकड़ने की प्रवृत्ति अपनायी थी।परन्तु, अन्त में इस सुखद निष्कर्ष पर पहुँचा कि हमारे बीच कोई विरोध ही नहीं है।
रवि बाबू की सौन्दर्य-दृष्टि और प्रकृति-प्रेम इस बहस के केन्द्र में रहा जो मूलतः गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन की बहस से निकला था। कहीं न कहीं शान्तिनिकेतन के अन्दर भी इस सवाल पर बँटवारा था लेकिन प्रकृति का सौन्दर्य, पक्षियों का गान बनाम ग़रीब की रोटी और भूखे भजन न होइ गोपाला जैसे मुद्दे ही ऊपर आए।
तब दुनिया भर में यह बहस अलग-अलग तरह से चल रही थी जिसके अगुआ टालस्टाय थे जबकि दूसरा पक्ष नीत्शे और ऑस्कर वाइल्ड की अगुआई वाला था। दिलचस्प है कि गाँधी जी जब इंग्लैण्ड में पढ़ाई कर रहे थे तब वाइल्ड की धूम थी और आगे हम देखते हैं कि गाँधी जी जब सिर्फ़ कला के लिए कला की बात की आलोचना करते हैं तो सबसे प्रबल उदाहरण के तौर पर वाइल्ड का ही नाम लेते हैं।
यह अलग बात है कि वाइल्ड ही नहीं कला के बारे में अलग राय या गाँधी जी से मतभेद रखने वाले रवि बाबू भी उतनी ही मज़बूती से मैदान में जमे हुए हैं जितने गाँधी जी। जैसा परेल बताते हैं-
गाँधी जी ने ‘हिन्द स्वराज‘ के साथ जिन किताबों को पढ़ने का सुझाव दिया है उनमें टालस्टाय की किताब ‘व्हाट इज़ आर्ट‘ और रस्किन की किताब ‘ए ज्वाय फॉरएवर‘ भी है।
अब खालिस कला और सौन्दर्य-बोध पर लिखी इन किताबों का हिन्द स्वराज के बुनियादी तर्क से क्या जुड़ाव है यह समझने की ज़रूरत है। गाँधीजी ने टालस्टाय की किताब का गुजराती अनुवाद भी कराया था।
5 दिसम्बर 1927 के अपने पत्र में वे अपनी बहू सुशीला (जो दक्षिण अफ्रीका के काम-काज को सँभालने के लिए मणिलाल के साथ वहीं रहती थीं) को सूचना देते हैं कि टालस्टाय की किताब ‘व्हाट इज़ आर्ट‘ का अनुवाद हो गया है। सुशीला ने कला पर कोई टिप्पणी की थी। इसलिए गाँधीजी लिखते हैं कि यह किताब तो तुम्हें ज़रूर पढ़नी चाहिए और अगर वहाँ उपलब्ध न हो तो मुझे लिखना।
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गाँधीजी टालस्टाय के लेखन से प्रभावित थे
टालस्टाय के लिए कला जीवन का अभिन्न हिस्सा है, उसकी शर्त है। वे जीवन से स्वतन्त्र कला की बात को ख़ारिज करते थे और मानते थे कि अगर रचयिता अपनी रचना के ज़रिये दर्शक, पाठक, श्रोता के अन्दर तक अपनी भावना को पहुँचा सकता है तो यही उसकी सफलता है।
टालस्टाय यह भी कहते हैं कि आज की कला इस तत्त्व को दूर करती जा रही है जो ग़लत है। इसके लिए वे क़ीमत, कलाकार के शारीरिक और व्यावसायिक शोषण, कलाकारों को देवता की श्रेणी देना, सौन्दर्य को नैतिकता से ज़्यादा वज़न देना और नकली राष्ट्रवाद के लिए कला के उपयोग को ज़िम्मेवार मानते हैं।
उनको कला की सार्थकता हिंसा कम कराने, स्वराज का अनुभव अपने अन्दर करने और सत्य का अनुभव करने में लगती है। हम आगे देखेंगे कि ये बातें किस हद तक गाँधीजी की कला और समाज के रिश्ते सम्बन्धी दृष्टि को तय करने में भूमिका निभाती हैं।
रस्किन श्रम के सही उपयोग से दुनिया की हर ज़रूरत पूरी होने वाले दर्शन को मानते थे। उनको लगता था कि ऐसा करने से बुनियादी ज़रूरतों के साथ विलासिता, स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी विश्राम और ज़रूरी फुर्सत भर का काम भी चल सकता है। साथ ही वे मानते थे कि श्रम के साथ सिर्फ़ शारीरिक ज़रूरतें ही नहीं भावनात्मक ज़रूरतें भी पूरी होनी चाहिए और यह सब हासिल करने के लिए पहली ज़रूरत श्रम का सम्मान करने की है।
‘हिन्द स्वराज‘ भी श्रम वाले इसी नजरिये को लेकर आगे बढ़ता है और शरीर श्रम को गाँधीजी अपने बुनियादी जीवन सूत्रों में शामिल करते हैं।
हिन्दुस्तान की अपनी तीन दशक से ज़्यादा की लड़ाई का मुख्य स्वर राजनीतिक रखते हुए भी गाँधीजी दक्षिण अफ्रीका की तुलना में यहाँ काफ़ी सारे दूसरे प्रयोग भी करते रहे। उन सबके पीछे एक व्यापक और बड़ी दृष्टि दिखती है जिसके संकेत ‘हिन्द स्वराज‘ में भरे पड़े हैँ।
गाँधीजी को ये प्रयोग करने की बेचैनी थी तभी उन्होंने चम्पारण के अपने पहले राजनीतिक प्रयोग के साथ ही स्वास्थ्य, शिक्षा और ग्रामीण ज्ञान तथा कौशल को लेकर कई प्रयोग किये।
फिर बाद के लम्बे राजनीतिक नेतृत्व के दौरान उन्होंने क्या-क्या किया यह गिनवाना सम्भव नहीं है लेकिन यह कोई भी बता सकता है कि हिन्दुस्तान में बिताये आख़िरी तीस-तैंतीस सालों में गाँधीजी राजनीति करते और आज़ादी की लड़ाई लड़ते हुए भी काफ़ी सारे मोर्चों पर काम करते रहे जिनका परिणाम बहुत साफ़ दिखता है और यही चौतरफ़ा परिणाम उन्हें राष्ट्रपिता की उपाधि दिलाता है।
इसमें आर्थिक विकास का ही नहीं पूरे विकास और समाज संचालन का एक वैकल्पिक स्वरूप दिखता है। इसमें गाँव केन्द्रित विकास के साथ ग्रामीण समाज की बुराइयों (छुआछूत, परदा प्रथा, अन्धविश्वास, शराब और नशामुक्ति, साम्प्रदायिक भेदभाव) से लड़ाइयों की मुहिम चलती है।
संदर्भ.
अरविंद मोहन, गांधी और कला सेतु प्रकाशन , 2021
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में