ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध उलगुलान करने वाले सुरेन्द्र साए
सुरेन्द्र साए भारत के अग्रणी स्वाधीनता संग्राम सेनानी थे। 1857 के विद्रोह के 30 वर्ष पूर्व ही उन्होने ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध ‘उलगुलान’ (आन्दोलन) आरम्भ किया था। उनका सम्पूर्ण जीवनकाल 75 वर्ष का था जिसमें से 36 बर्ष का समय उन्होने कारागार में बिताया था।
सबलपुर जिला उड़ीसा में स्थित है। पहले वह मध्य-प्रात: का भाग था। सबलपुर का राज्य डलहौजी की अपहरण नीति का शिकार हो गया था। इतिहासकार सुरेन्द्रनाथ सेन के अनुसार सबलपुर का राज्य-परिवार अधिक सम्पन्न नहीं था।
1826 में अंग्रेजों ने सबलपुर पर अधिकार कर लिया। उन्होंने रानी मोहन कुमारी को सबलपुर की राजगद्दी पर बैठा दिया। सुरेन्द्र साए भी राज्य के प्रत्याशी थे, क्योंकि वह वहाँ के पहले राजा मधुकर साई के वशंज थे। सुरेन्द्र साए ने इस अन्याय के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
अंग्रेजों ने घबराकर रानी मोहन कुमारी को राजगद्दी से उतार दिया और उनके स्थान पर नारायण सिंह को राजगद्दी पर बैठा दिया। सुरेन्द्र साए इससे सतुष्ट नहीं हुए और वह अग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे। 1839 में उन्होंने रामपुर के शासक की हत्या कर दी, क्योंकि वह अग्रेजों का समर्थक था। उस अपराध के कारण उन्हें आजीवन कारावास की सजा मिली।
क्रांति के समय सुरेन्द्र साए उसी अपराध की सजा हजारीबाग के बंदीगृह में काट रहे थे। सबलपुर के शासक नारायणसिंह के कोई पुत्र नहीं था। डलहौजी की नीति के अनुसार सबलपुर को अंग्रेजी राज्य में मिला लिया गया।
राज्य-कर, भूमि-विवाद और राज्य अपहरण नीति के कारण हुआ सबलपुर विद्रोह
1857 में सिपाहियों ने हजारीबाग में विद्रोह कर दिया और समस्य वदियों को कारागृह से छुड़ा लिया। सुरेन्द्र साए , उनके भाई उद्धवतसिंह तथा पुत्र मित्र भानु बंदीगृह से निकलकर सबलपुर पहुँचे। उन्होंने पुराने किले पर अपना अधिकार कर लिया और विद्रोह का झंडा खड़ा कर दिया।
सबलपुर में विद्रोह की ज्वाला बहुत तीव्र थी। सबलपुर के बहुत से जमीदार अंग्रेजों की कर नीति से असतुष्ट थे। उन्होंने राज्य-कर को व्यर्थ में ही एक चौथाई हिस्सा बढ़ा दिया था।
इसके अतिरिक्त उन्होंने भूमि सम्बंधी विवाद का निर्णय करने के लिए कुछ अधिकारी नियुक्त किये थे। वे इसे अन्याय-पूर्ण समझते थे।लेकिन अग्रेज इस नीति में फेर-बदल करने को तैयार नहीं थे।
अंग्रेज अधिकारी भ्रष्ट थे, रिश्वत लेते थे, जिससे जनता त्रस्त थी। अग्रेज अधिकारी नजर लेने में विश्वास रखते थे और किसान भूखे मर रहे थे। सबलपुर के ब्राह्मण रांची के अग्रेज अधिकारियों से मिले और अपनी दुदर्शा का वर्णन किया, परंतु कोई भी हल नहीं निकता।
1845 में भूमि-कर का पुनर्मूल्याकन किया गया। राज्य सरकार ने भूमि-कर और अधिक बढ़ा दिया।
1857 के विद्रोह में सबलपुर का नेतृत्व किया सुरेन्द्र साए ने
हजारीबाग के कारागृह से मुक्त होने के उपरांत सुरेन्द्र साए ने सबलपुर में जमींदारों तथा जनता की सहायता से समानान्तर सरकार की स्थापना की।
सुरेन्द्र साए एवं उनके क्रांतिकारी साथियों ने एक सभा बुलाई। वे हिंसा द्वारा भी अग्रेजों को सबलपुर से निकालकर अपना राज्य स्थापित करना चाहते थे। सर रिचर्ड टैम्पल को सबलपुर के डिप्टी कमिश्नर को पत्र लिखा कि अग्रेज अधिकारी सुरेन्द्र साए को पकड़ने में असमर्थ हैं तथा समस्त क्षेत्र में अराजकता फैली हुई है।
सबलपुर के प्रमुख जमीदारों ने अपने-अपने किलो को अच्छी प्रकार से सुरक्षित कर लिया। क्रांतिकारी ने तीन-तीन, चार-चार मील की दूरी पर सैनिक चौकियों की स्थापना कर ली।
क्रांतिकारियों को दंड देने के लिए जो भी सैनिक टुकड़ियाँ आती थी उनको घने जंगलों में घेर लिया जाता है जिससे उनकी भयंकर क्षति होती थी। दिसम्बर के मध्य तक कलकत्ता और बम्बई के मध्य संचार साधनों को पूरी तरह नष्ट कर दिया गया।
सुरेन्द्र साए एंव उनके साथियों ने डाकघरों को जला दिया तथा कलकत्ता और सबलपुर के संचार साधनों को भी काट दिया। समस्त क्षेत्र में घना जंगल था तथा दुगर्म पहाड़िया थी। घने जंगलों में युद्ध होता रहा, परंतु अग्रेजी सेना प्रमुख क्रांतिकारियों को पकड़ने में असमर्थ रही।
9 जनवरी 1858 को सुरेन्द्र साए के भाई छवील साए की युद्धभूमि में मृत्यु हो गई। क्रातिकारियों ने पहाड़ी दर्रों पर अपना अधिकार कर रखा था। झारघाटी के दर्रे पर सुरेन्द्र साए के दूसरे भाई उद्द्त सिंह का अधिकार था। अग्रेज इस गिरी-पथ को खोखला करना चाहते थे, परंतु उनके सब प्रयत्न व्यर्थ रहे।
एक स्थान पर पहाड़ियों के ऊपर, घने जंगल के मध्य, लगभग डेढ़ हजार क्रांतिकारी एकत्र थे। अग्रेजों ने उन पर धावा बोल दिया परंतु सफलता नहीं मिली। 14 फरवरी 1858 को सिंहचोरा के दर्रे पर युद्ध में कैप्टन गूडब्रिज की मृत्यु हो गई। अगले दिन वारलों ने उसी पहाड़ी दर्रे पर एकत्रित क्रांतिकारियों पर आक्रमण किया, परंतु उनकी शक्ति को देखकर वह विस्मित रह गया।
विप्लवकारियों ने जंगलों से घिरी हुई दो पहाड़ियों के बीच के सकीर्ण दर्रे पर अपना अधिकार कर रखा था। उन्होंने पहाड़ियों के बीच में सकुचित मार्ग पर 7 फुट ऊंचा और 30 फुट लम्बा पत्थर फेंक रखा था। उन्होंने जंगल को काटकर लकड़ी इकट्ठी कर रखी थी, जिससे इस मार्ग पर तुरंत आग लगायी जा सके।
सबलपुर की जनक्रांति को दबाने के लिए अंग्रेज अधिकारी बेहद उत्सुक थे। 11 मार्च, 1858 को उन्होंने एक नियम लागू किया, जिसके अनुसार सबलपुर में कोई भी व्यक्ति किसी प्रकार का हथियार नहीं रख सकता था। उन्हें आशा थी कि इस प्रकार वे विद्रोह का दमन करने में सफल होगे।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
और अन्त सुरेन्द्र साए का
अग्रेज अधिकारी सुरेन्द्र साए को पकड़ने में अब तक असफल रहे थे। सबलपुर के जंगलों में क्रांति की ज्वाला धधकती रही। 1859 के घोषणा पत्र के अनुसार अग्रेज आत्मसमर्पण करने पर क्रांतिकारियों को क्षमा करने के लिए तैयार थे। सुरेन्द्र साए ने उस समय भी आत्म-समर्पण नहीं किया।
1861 में मेजर इम्पे सबलपुर के अधिकारी बनकर आये। वह क्रांतिकारियों से समझौता करने के पक्ष में थे। उन्होंने कहा कि समस्त क्रांतिकारियों को क्षमा कर दिया जाएगा तथा उनकी जब्त संपत्ति वापस कर दी जाएगी, परंतु सुरेन्द्र साई एंव उनके पुत्र भानु एवं भाई उद्धवत सिंह को माफी नहीं दी जा सकती।
बहुत से क्रांतिकारियों ने आत्म-समपर्ण करना अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा कि जब तक सबलपुर में सुरेन्द्र साई के राज्य की स्थापना नहीं होगी तब तक वह आत्म-समपर्ण नहीं करेंगे।
कमल सिंह सुरेन्द्र सई के साथी थे। वह सबलपुर के डिप्टी कमिश्नर को विद्रोहपूर्ण पत्र लिखकर भेजते रहते थे। वह गांवो को जला देते थे अथवा लूट लेते थे। जो भी गाँव प्रधान जमींदार अग्रेजों का साथ देता था, उसकी हत्या कर दी जती थी। चारो ओर अशांति थी। जो क्रांतिकारी अग्रेजों की अथवा उनके समर्थकों की हत्या करते थे, उन्हें पकड़वाने में ग्रामवासी अग्रेजों की सहायता नहीं करते थे।
अंत में, 23 जनवरी 1864 को सबलपुर के डिप्टी कमिश्नर सुरेन्द्र साई एंव उनके क्रांतिकारी सहयोगियों को पकड़ने में सफल हुए। सुरेन्द्र साई पर न्यायालय में मुकदमा चलाया गया परंतु कोई भी अपराध सिद्ध नहीं हो सका।
अंग्रेज उन्हें रामपुर ले गये। अग्रेजों ने अन्यायपूर्ण ढंग से सुरेन्द्र साई को कारागृह में ही अंधा कर दिया और वही पर चुपचाप मार डाला।
संदर्भ
उषा चन्द्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद,प्रकाशन विभाग, सूचना और प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार,1986, पेज 89-93
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में