मणिपुर में स्वतंत्रता का शंखनाद करने वाला अमर ‘शहीद-जदोनाङ कबुई
एक व्यक्ति जिसने अंग्रेजों से मुकाबला करने के लिए 500 की सेना बनाई, हाइपो जादोनांग को लेखकों और इतिहासकारों ने काफी हद तक नजरअंदाज कर दिया है। वर्तमान मणिपुर के रोंगमेई नागा नेता, हाईपो जादोनांग एक आध्यात्मिक नेता, सामाजिक सुधारवादी और राजनीतिक नेता थे, जिन्होंने 20वीं सदी के शुरुआती दशकों के दौरान नागा लोगों को ब्रिटिश औपनिवेशिक भूमिका के चंगुल से मुक्त कराने की मांग की थी।
कौन थे जदोनाङ कबुई
दोनाङ का जन्म 1905 में मणिपुर के पश्चिमी जिले तलिग के बन गांव में कई जन-जाति के रोङमई कबीले में हुआ था। बचपन में ही उसके पिता की मृत्यु हो गई थी। माता तबोल्यु ने उसका पालन पोषण किया।
बचपन में जंदोनाङ चार-पांच दिन तक सोता रहता था। वह जागने पर अपनी मां से कहता था कि उसकी स्वप्न में भगवान से बातें होती हैं। कबीले में बालक जदोनाङ को महू (पुजारी व वैद्य) कहा जाने लगा। उसकी ख्याति फैलने लगी।
जदोनाङ ने कबुई जन जाति में प्रचलित अंधविश्वासों, रूढ़ियों तथा परम्पराओं का विरोध आरंभ कर दिया। शुरु मे लोगों ने जदोनाङ का विरोध किया किन्तु धीरे-धीरे उसके अनुयायियों की संख्या बढ़ने लगी और उसके धार्मिक सुधार लोकप्रिय होने लगे।
कबुई जाति के जेमी, लिङमै और रोडमै तीन कबीले थे किन्तु इन तीनों में एकता का अभाव था, वे आपस में ‘लड़ते रहते थे। जदोनाङ ने कबुई जन-जाति में एकता स्थापित करने का प्रयास आरंभ किया। तीनों कबीलों के नामों के पहले अक्षरों को मिलाकर जलिङरोड शब्द बनाया। कच्चा नागा कहलाने वाली कई जन-जाति के कबीले जलिङरोड नाम से जदोनाङ के नेतृत्व में एक हो गए। एकता के साथ उनके आपसी लड़ाई-झगड़ों का अंत हो गया।
जब मणिपुर ब्रिटिश सम्राज्य में शामिल हुआ
1891 ई. में मणिपुर ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया गया था। उसके बाद मणिपुर के महाराजा के अधिकार सीमित कर दिए गए। अंग्रेजों की नीति ‘बांटो और राज करो’ थी इसलिए मणिपुर के मैदान के लोगों से पर्तव की जन जातियों में फूट डालने के लिए पर्वतीय क्षेत्र का प्रशासन अंग्रेजों ने अपने हाथ में ले लिया।
पर्वतीय क्षेत्र का प्रशासन भारतीय प्रशानिक सेवा के अंग्रेज अधिकारी को सौंप दिया गया यह अफसर मणिपुर राज्य दरबार का अध्यक्ष भी होता था। ब्रिटिश शासन का तर्क था कि जन-जातियां महाराज के शासन से अंग्रेज शासन में कहीं अधिक सुखी हैं। किन्तु वास्तविकता यह थी कि इस प्रशासनिक व्यवस्था में किसी-न-किसी जन जाति ने ब्रिटिशराज के विरुद्ध संघर्ष किया और एक वर्ष भी ऐसा नहीं निकला जब कोई घटना नहीं हुई हो इन जनजातियों से ब्रिटिश सत्ता प्रति वर्ष लिया जाने वाला गृहकर भी कई साल तक वसूल नहीं कर पाई।
समय-समय पर इन जन जातियों को अपने नियंत्रण में रखने के लिए अंग्रेजों को बल प्रयोग करना पड़ा। प्रथम विश्वयुद्ध के आरंभ होने पर अंग्रेजों ने मणिपुर की जन जातियों के लोगों की ‘लेबर कोर’ ( मजदूर सेना) के लिए जबरदस्ती भरती शुरू की।
प्रारंभ में कूकी जन-जाति ने विद्रोह किया जो बाद में पूरे जनजातीय क्षेत्र में फैल गया। इन दिनों मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र में अंग्रेजों का दबदबा खत्म हो गया। कबुई जाति पर कूकी विद्रोहियों ने पुराने बैर के कारण अनेक अत्याचार किए। ब्रिटिश सरकार कबुई लोगों को कूकी अत्याचारों से बचाने में असफल रही। कूकी लोगों ने उनकी उपजाऊ भूमि भी छीन ली। कबुई लोगों का ब्रिटिश प्रशासन से विश्वास उठ गया।
जनजातियों की दशा महाराजा के शासन से भी अंग्रेज राज में ज्यादा खराब थी। कोई भी अंग्रेज अधिकारी जब इन क्षेत्रों का दौरा करता तो उस क्षेत्र के लोगों को बेगार में सामान उठाना पड़ता। यदि कोई मना करता तो उसको कोड़े लगाए जाते थे। उनके लिए मुफ्त भोजन व आवास की व्यवस्था करनी पड़ती थी। अंग्रेज अधिकारी के सामने आते ही जन जातीय व्यक्ति को सवारी से उतरना, टोपी उतारना व छाता बंद करना जरूरी था।
इस प्रकार की अपमानजनक स्थिति थी। पूर्वाचल की जन-जातियों में स्वतंत्रता एवं समानता की परम्परा रही है, जो आज भी पाई जाती है। भूमि पर उनका सामूहिक अधिकार था और आज भी है। गृह कर जैसी प्रथा उनके लिए नई थी। नागाओं में एक विश्वास वर्षों से प्रचलित था कि एक मसीहा का जन्म होगा जो हजारों वर्ष तक चलनेवाले नागा राज की स्थापना करेगा।
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जदोनाङ ने अंग्रेजों के दमन के विरोध किया
जदोनाङ ने अंग्रेजों के दमन के विरोध में आन्दोलन आरंभ कर दिया। राजनीतिक आंदोलन से पूर्व उसने 1927 में धार्मिक आन्दोलन आरंभ किया था। कबुई जन जाति में प्रचलित अनेक देवताओं की पूजा, कट्टर नियमों तथा अंधविश्वासों के विरोध में जदोनाङ ने संघर्ष छेड़ दिया।
1914 से ईसाई मिशनरियों ने कबुई जन जाति को ईसाई बनाने का अभियान छेड़ दिया था। जदोनाङ ने ईसाईकरण को रोकने के लिए अपने परम्परागत धर्म में सुधार आवश्यक समझ कर धार्मिक सुधार आरंभ किए जिससे ईसाईकरण को रोका जा सके। जब तक उसकी महू के रूप में पर्याप्त ख्याति फैल चुकी थी। लोगों ने प्राचीन विश्वास और भविष्यवाणी के आधार पर यह भी समझ लिया था कि नागाराज स्थापित करने वाला मसीहा जदोनाङ के रूप में अवतार ले चुका है।
जदोनाङ समाधि की स्थिति में लोगों का उपचार और नागा राज की भविष्यवाणी करता था। उसके उपचार के चमत्कारों तथा भविष्यवाणियों की सच्चाई के कारण लोगों में नागाराज की स्थापना का विश्वास भी मजबूत हो रहा था।
जदोनाङ ने हराका नामक एक नया धर्म स्थापित
जदोनाङ ने हराका नामक एक नया धर्म स्थापित किया। भगवान का मंदिर बनवाया। इससे पहले नागा लोग मंदिर नहीं बनाते थे। कई देवताओं के स्थान पर रागवाङ की पूजा आरंभ करवाई। गाँव-गाँव में बने इन मंदिरों में उसके द्वारा रचित भजन गाए जाने व प्रार्थनाएं की जाने लगीं। उसने कई तरह के नाच भी प्रचलित किए। भजन, कीर्तन, नाच, गान इस धर्म के प्रमुख अंग थे।
सामाजिक और धार्मिक कार्यों के द्वारा वह जलिङरोड नागाओं में एकता स्थापित करने में सफल हो गया। जदोनाङ पहला व्यक्ति था जिसको नागा जातियों ने एक महान नेता के रूप में स्वीकार किया। उत्तर पूर्वाचल की जन जातियों में ऐसे विराट व्यक्तित्व वाला व्यक्ति न तो हुआ था और न ही था।
कुछ ही समय में उसका नया धर्म लोकप्रिय हो गया और उसके अनुयायी भी बढ़ते चले गए। नागा जाति के अतिरिक्त अन्य जातियां और धर्म के लोग उसके भक्त बन गए। उसको कबुई जाति के गाँवों से मिथुन (एक प्रकार की भैंस) और अनेक तरह की वस्तुएं भेंट दी जाने लगीं। कुछ लोग सच्ची श्रद्धा तो कुछ पशुधन तथा फसल की रक्षा के लिए या भय के कारण तो कुछ लोग शरण पाने के लिए भेंट देने लगे। विभिन्न कारणों से जदोनाङ की लोकप्रियता दिन प्रतिदिन बढ़ने लगी। अंग्रेज अधिकारी कबुई ईसाईकरण रुकने तथा उनके संगठित होने से सशंकित हो गए।
जदोनाङ महात्मा गांधी से थे प्रभावित
1925 से 27 ई. के दौरान जदोनाङ कच्चा नागा जन जाति में राजनैतिक प्रेतना उत्पन्न करने में सफल हो गया। उसका उद्देश्य अंग्रेजों को निकालकर नागा राज की स्थापना था। उसको महात्मा गांधी और कांग्रेस पार्टी के स्वतंत्रता आन्दोलन से भी प्रेरणा मिली थी। गांधी जी व स्वतंत्रता संग्राम से संबंधित जदोनाङ के लिखे गीत कबुई लोग आज भी गाते हैं।
राजनैतिक क्षेत्र में जदोनाड ने सबसे पहले शोषण का विरोध किया था। उसने अंग्रेजों के द्वारा लगाया गृह कर, बेगार और अफसरों के मुफ्त भोजन आवास की प्रथा का विरोध किया। इससे ब्रिटिश सरकार बौखला उठी।जदोनाङ को किसी श्रद्धालु ने एक टट्टू भेंट किया था। 1927 ई. में एक दिन बूध नाम के अंग्रेज अधिकारी के सामने पड़ने पर जदोनाङ न अपने टट्टू से उतरा और न टोपी ही उतारी। बूध जयोनाङ से पहले से चिढ़ा हुआ था। उसको बहाना मिल गया।
इस अभद्र व्यवहार के लिए उसने जदोनाङ को बंदी बना लिया किन्तु जनता की भावनाओं को देखते हुए बूध ने उसको एक हफ्ते बाद छोड़ दिया। इस घटना से जदोनाड की लोकप्रियता और बढ़ गई।
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जदोनाङ ने नागा राज की स्थापना की
इस घटना के तुरन्त बाद ही जदोनाङ ने नागा राज की स्थापना और अंग्रेजों को नागा क्षेत्र से बाहर निकालने की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने 1929 ई. में लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा की थी परन्तु उससे दो वर्ष पूर्व नागा स्वतंत्रता सेनानी जदोनाङ ने पूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी।
जदोनाङ ने सशस्त्र क्रांति के लिए अपनी चचेरी बहन गाइडिल्यु की देखरेख में सजातीय लोगों को प्रशिक्षण देना शुरू किया। 1927 में ही गांधी जी सिलचर आने वाले थे। जदोनाङ ने दो सौ जलिङरोड युवक-युवतियों को महात्मा जी के स्वागत समारोह में नृत्य-गान प्रस्तुत करने के लिए तैयार किया। इस अवसर पर गाया जाने वाला गीत जदोनाड ने स्वयं बनाया था जिसमें गांधी जी से जलिङरोड स्वाधीनता संग्राम का नेतृत्व करने का अनुरोध किया गया था।
पूर्वांचल के बीहड़ बनों में राष्ट्रीयता एवं स्वतंत्रता का शंखघोष करने वाले पहले व्यक्ति के रूप में जदोनाङ इतिहास में अमर रहेगा। उसने 1931 में अंग्रेज सरकार को कर देना बंद करवा दिया। ब्रिटिश सरकार के किसी भी आदेश को न मानने की घोषणा कर दी गई। ब्रिटिश सरकार ने इस जन आन्दोलन को दबाने के लिए कई क्षेत्र में सेना भेज दी।
काम्बीरेन गांव में मारे ‘गए चार मणिपुरी व्यापारियों की हत्या का अभियोग लगाकर उसे पकड़ने के आदेश जारी किए गए। जिस दिन ये हत्याएं की गई थीं उस दिन जदोनाङ काम्बीरेन में नहीं था। फिर भी कछार (असम) की भुवन पर्वत माला में तीर्थ यात्रा पर गए जदोनाङ को वहां के डिप्टी कमिश्नर ने बंदी बना लिया। जनता को आतंकित करने के लिए उसको हथकड़ियों, बेड़ियों और रस्सों से जकड़कर कबुई गांवों में और इम्फाल में घुमाया गया।
असम राइफल्स के सैनिकों ने गांव-गांव में उसके द्वारा स्थापित मंदिरों को तोड़-फोड़ दिया। उसके अनुयायियों को भी बंदी बनाया गया। गांवों को जलाकर राख कर दिया गया। चारों ओर हाहाकार मच गया। धान के भंडारों को जला दिया गया जिससे लोग भूख से मरने लगे। सामूहिक जुर्माना किया गया। अत्याचार और उत्पीड़न की कभी न भूली जाने वाली दुखान्त कहानी लिखी गई खड़ी फसलों को नष्ट कर दिया गया। इस दमनचक्र से स्त्रियां, बालिकाएं और बालक भी नहीं बच सके। जिन गांवों के लोगों ने सेना का सामना किया उन्हें कई दिन सैनिक घेरे में रखकर भूख-प्यास से मरने या आत्मसमर्पण के लिए विवश कर दिया गया।
ब्रिटिश सरकार ने नृशंसता से इस आन्दोलन को कुचलकर जन-जातियों को आंतकित कर दिया जिससे भविष्य में कोई सिर न उठा सके। इसके बाद जयोनाङ पर मुकदमा चलाया गया। मुकदमे की सरकारी पक्ष की ओर से पैरवी करने वाला वकील व न्यायाधीश अंग्रेज था। जदोनाङ की ओर से बचाव पक्ष में पैरवी के लिए किसी वकील को अदालत में पेश होने की अनुमति नहीं दी गई। जून 13, 1931 के दिन निरपराध जदोनाङ को चार व्यक्तियों की हत्या का जिम्मेदार ठहराकर मौत की सजा सुना दी।
29 अगस्त 1931 को 26 वर्षीय स्वतंत्रता सेनानी को प्रातः छः बजे इम्फाल जेल में फांसी पर लटका दिया गया। जदोनाङ की लाश को कई लोगों को सौंप कर यह आज्ञा दी गई कि इस लाश को काम्बीरेन ले जाएं। अपनी शिष्या गाइडिल्यु के हाथों में स्वतंत्रता की मशाल सौंप कर मातृभूमि का सपूत जदोनाङ संसार से कूच कर गया। जदोनाङ द्वारा रचित स्वतंत्रता प्रेम से परिपूर्ण गीत आज भी जलिङरोड (वर्तमान तमिंगलोड़ जिला, मणिपुर) क्षेत्र की ऊंची पर्वतमालाओं और बीहड़ वन प्रान्तर में गूंजते हैं।
संदर्भ
डा. जगमल सिंह, प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, मणिपुर विश्वविद्यालय, कांचीपुर, इम्फाल 795003
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में