अकबर की रोचक पटना यात्रा की कहानी
शेरशाह के शासन में सुलेमान कर्रानी बिहार का सूबेदार था। सूरी वंश के पतन के पश्चात् उसने बंगाल में अपनी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली थी । उसने 1568 में अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली और मुगलों के विरुद्ध कोई कार्यवाही नहीं की। लेकिन 1572 में उसने बिना इज़ाजत लिए उड़ीसा जीत लिया, यद्यपि इससे अकबर रुष्ट हुआ लेकिन उसने उस समय कोई हस्तक्षेप नहीं किया। 1572 में सुलेमान की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र दाऊद खाँ बंगाल का शासक बना। उसने अपने पिता की नीति बदल दी और अपनी स्वतन्त्रता घोषित कर दी। इस समय अकबर सूरत में घेरा डाले था।
दाऊद खाँ को सबक सिखाने अकबर पहली बार पटना आया था
मुगल बादशाह अकबर 1574 में अफगान सरदार दाऊद खान को पराजित करने के लिए पटना आया था। अकबर के राज्य सचिव और आइन-ए-अकबरी के लेखक अबुल फ़ज़ल ने पटना को कागज, पत्थर और काँच उद्योगों के एक समृद्ध केंद्र के रूप में संदर्भित किया है।
जब शहंशाह अकबर विद्रोहियों को सज़ा देने और पटना किला (पटना सिटी स्थित जालान किला हाउस इसी किले का एक हिस्सा है) पर फ़तह हासिल करने पटना पहुँचा, तेज़ मूसलाधार बारिश हो रही थी । पटना के क़िले का निर्माण यद्यपि शेरशाह ने करवाया था लेकिन वह इसमें एक दिन भी नहीं रह सका था। उसे शीघ्र ही दिल्ली के लिए प्रस्थान करना पड़ा था और उसने सुलेमान कर्रानी को बिहार का गवर्नर नियुक्त किया। सुलेमान इस क़िले में आधिकारिक हैसियत से 1572 तक रहा।
सूरी साम्राज्य के पतन के बाद काफी शक्तिशाली और सम्पन्न होने के बावजूद सुलेमान ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। उसने मुगलों के साथ दोस्ताना सम्बन्ध रखा। लेकिन उसके बाद उसके उत्तराधिकारी दाऊद खान ने विद्रोही तेवर अपना लिया। अकबर को नाराज़ करने के साथ-साथ उसने अपने कई ताक़तवर समर्थकों को भी अलग-थलग कर दिया।
मुनीम ख़ान के असफलता के बाद अकबर ने संभाला मोर्चा
दाऊद को नियंत्रित करने के लिए अकबर ने पहले मुनीम ख़ान को पटना भेजा। मुनीम ख़ान इसमें सफल नहीं हो सका। तब अकबर को स्वयं पटना आना पड़ा। बरसात का मौसम अपने चरम पर था। ऐसे में अकबर नदी मार्ग से होते हुए पटना आकर एक बड़े मैदान (गोलघर के समीप) के सामने उतरा। अकबर की सेना, रथ, तोपें और हथियार वगैरह सड़क मार्ग से पहुँचीं। अकबर अपने चहेते हाथी बाल सुन्दर और समन को अलग-अलग विशाल नावों में अपने साथ लेता आया था। उनके साथ दो हथनियाँ भी थीं ।
उस दिन को याद करते हुए अकबर के वज़ीर अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है, ‘आश्चर्यजनक दृश्य । विभिन्न प्रकार की कई नावें, आकाश में ऊँचे उठे हुए मस्तूल, नदी की तेज़ धारा, हवा की तेज़ रफ़्तार बारिश की आवाज़, बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की चमक, सब मिलकर अजीब नज़ारा पेश कर रहे थे।’
चौसा और मनेर होते हुए नावों का बेड़ा पटना पहुँचा था। पटना क़िले को फ़तह करने के लिए यह जरूरी था कि हाजीपुर के किले को पहले जीत लिया जाय।
अबुल फजल ने लिखा है,
‘हाजीपुर का किला पटना के सामने गंगा के उस पार था। दो शहरों के बीच क़रीब दो कोस चौड़ी तेज़ बहाव वाली गंगा थी। अगले दिन अकबर ने ख़ान आलम के नेतृत्व में अली आलम शाही, सैयद शम्स बोखारी, उसकी औलादों और राजा गजपति को प्रचुर मात्रा में ऊँटों, हथियारों के साथ उस पार भेजा । युद्ध शुरू हुआ। अकबर स्वयं ऐसी जगह पर चला गया जहाँ से हाजीपुर स्पष्ट दिख रहा था। पटना क़िले से भेजी जा रही मदद को भी बीच में ही क़ब्ज़े में कर लिया जा रहा था। क़िले का पतन तय हो गया था।’
अपनी पराजय देख रात के अँधेरे का फ़ायदा उठा दाऊद ख़ान नदी मार्ग से मोकामा होते हुए बंगाल भाग गया। जब अकबर को उसके भागने की ख़बर मिली तो उसने उसका पीछा करना चाहा। लेकिन मुनीम ख़ान के कहने पर वह ठहर गया। रात बीती, अगली सुबह 9 अगस्त, 1574 को पश्चिम दरवाज़ा होते हुए शहंशाह अकबर ने अपने लाव लश्कर के साथ पटना में प्रवेश किया।
इस मौक़े की याद में पश्चिम दरवाज़े को नया नाम दिया गया- दिल्ली दरवाज़ा। अकबर 20 अगस्त तक पटना में रहा।
अकबर पहला और आखिरी मुग़ल बादशाह था जो पटना आया था। मुनीम खाँ ने दाऊद खाँ के विरुद्ध अभियान जारी रखा और राजधानी टाँडा पर अधिकार कर लिया। दाऊद खाँ उड़ीसा भाग गया। मुनीम खाँ उसका पीछा करते हुए उड़ीसा गया और तुकाराम के युद्ध में निर्णायक विजय प्राप्त की। इस प्रकार बिहार, बंगाल और उड़ीसा पर मुगलों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
1575 में मुनीम खाँ की 80 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। इसके बाद दाऊद खाँ के नेतृत्व में अफगानों ने पुनः विद्रोह करके बंगाल-बिहार में संकट पैदा कर दिया। अन्त में 1576 में राजमहल के निकट युद्ध में अफगान पूर्ण रूप से पराजित हुए और उनके प्रमुख नेता मारे गए।
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संदर्भ
अरुण सिंह, पटना खोया हुआ शहर, वाणी प्रकाशन,2019
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में