फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के नज़र में प्रेमचंद
शिवकुमार मिश्र द्वारा सम्पादित अंग्रेजी पुस्तक ‘आवर कंटम्परोरी प्रेमचन्द’ के लिए यह टिप्पणी फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने विशेष तौर पर भेजी थी।
इसका स्थायी महत्त्व है, चूँकि प्रेमचन्द के बाद की पीढ़ी के एक मूर्धन्य लेखक की अग्रगामी चेतना इस वक्तव्य में सुस्पष्ट रूप में ध्वनित होती है। राष्ट्रीय संस्कृति में ऐसा कौन-सा उपादान है जिसकी रक्षा में प्रेमचन्द पथ-प्रदर्शक का काम करते हैं? प्रेमचन्द का स्वयं का योगदान किन दृष्टियों से मूल्यवान है ? ऐसे सवालों से उलझने में फैज के विचार हमें रोशनी देते हैं।
लेखक का दायित्व होता है, वह राष्ट्रीय संस्कृति का संरक्षण करे
इससे पहले कि हम किसी चीज़ की हिफ़ाज़त करना सीखें या उसकी कोशिश करें, यह पहचान करना जरूरी है कि वह कौन-सी चीज़ है, जिसकी हिफ़ाज़त की जानी चाहिए। वर्गों में बँटे हुए हमारे-जैसे समाज में संस्कृति भी वर्गीय तरतीब के हिसाब से बँटी होती है और इस बँटे हुए ढाँचे की उन बुनियादी चीज़ों को ढूँढ़ना और परिभाषित करना किसी लेखक या सामाजिक सिद्धान्तकार का दायित्व है, जो राष्ट्रीय संस्कृति की हिफ़ाज़त या संरक्षण के लिए आवश्यक हैं।
साम्राज्यवादी शासन के लम्बे दौर में हुए पारम्परिक सांस्कृतिक मूल्यों, जड़ों और रीति-रिवाज़ों के विध्वंस के चलते तीसरी दुनिया के ज़्यादातर देशों में यह समस्या और भी पेचीदा हो गई है। विदेशी आधिपत्य के दौर में हमारी राष्ट्रीय संस्कृति के निर्धारण की समस्या के ऊपर ज़्यादा फ़ौरी महत्त्व के सामाजिक और राजनीतिक सवालों का ग्रहण लग गया था और तीसरी दुनिया के देश आज़ादी हासिल करने के बाद ही इसकी खोज के सफ़र पर संजीदगी से निकल पाए ।
यह एक वजह है, जिसके चलते प्रेमचन्द का लेखन आज भी इतना प्रासंगिक है। वह हिन्दी और उर्दू कथा-साहित्य के उन प्रभावशाली आरम्भिक लेखकों में से थे, जिन्होंने पाठक के सामने उसके सामाजिक संगठन की अस्थि संरचना को उजागर किया और इस तरह उसे अपनी राष्ट्रीय संस्कृति की देहयष्टि, यानी राष्ट्र की बहुसंख्यक जनता की जीवन-पद्धति के प्रति जागरूक बनाया।
हिन्दी और उर्दू में पौराणिक कथा, रोमांस और परीकथाओं के रूप में कथा-लेखन अथवा किस्सागोई की परम्परा पहले से ही चली आ रही थी, लेकिन हम आधुनिक अर्थ में कथा – साहित्य को 19वीं सदी की एक खोज मान सकते हैं। इसकी शुरुआत के पीछे एक ओर ब्रिटिश स्कूल तालीम, तो दूसरी ओर एक शहरी मध्यवर्ग का उदय जैसे कारक विद्यमान थे।
जिस दौर में साहित्य का संक्रमण सामन्ती प्रभुओं के आस्वाद और साहित्यिक रुझान से मध्यवर्ग की रुचियों और साहित्यिक रुझानों की ओर हो रहा था, उस समय पूरा साहित्य या तो इस वर्ग के सम्मुख उपस्थित नई सामाजिक समस्याओं में मुब्तिला था या फिर रोमानी फन्तासियोंवाली वर्णनात्मकता में तत्कालीन कथाकारों के प्रयोजनों और उद्देश्यों के दायरे में न तो ग्रामीण और शहरी क्षेत्र के विराट सुविधाविहीन अवाम का कोई वजूद था, और न ही अपने स्थानीय जीवन की संस्कृति का।
सामाजिक जीवन से भी ज़्यादा साहित्य में जनता के बहुमत को अँगूठा दिखाते हुए एक वर्ग के वर्चस्व की जगह दूसरे वर्ग का वर्चस्व कायम हो गया था ।
‘सामाजिक यथार्थवाद‘ के लेखक थे प्रेमचंद
प्रेमचन्द और उनके समकालीनों के साथ ही, जिनमें से पंडित सुदर्शन जैसे लोग स्मरणीय हैं, अमीर लोगों के बैठकखानों के ऐश्वर्य और सिविल लाइन्स की रौशनियों से बाहर निकलकर साहित्य गाँवों की चौपालों के फीकेपन और कस्बों की गलियों के धुँधलके तक पहुँच पाया।
उन्हीं की उँगली पकड़कर हिन्दी-उर्दू का कथा-साहित्य सही मायनों में डी- क्लास हो पाया और उसने प्रगतिशील लेखक संघ, जिसके पहले अध्यक्ष प्रेमचन्द ही थे, द्वारा प्रचारित ‘सामाजिक यथार्थवाद’ की राह पकड़ी।
निस्सन्देह, यह सब कुछ संयोग नहीं था, बल्कि सामाजिक-राजनीतिक स्थितियों के साथ इनका सीधा सम्बन्ध था। इस सदी के शुरुआती दशकों में, और खासतौर से बीस के दशक में, राष्ट्रवादी आन्दोलन मध्यवर्ग के बैठकखानों की संवैधानिक बहसों तक सिमटा नहीं रह गया था और पहली बार सामान्य जनता का विराट तबका राजनीतिक संघर्ष में एक सक्रिय हिस्सेदार के तौर पर उभरकर आया था।
महात्मा गांधी का उदाहरण और उनके सन्देश, समाजवादी अक्तूबर क्रान्ति और मार्क्सवाद तथा समाजवाद की विचारधारा का आगमन, विश्वस्तरीय आर्थिक मन्दी और कामगार वर्ग के संगठनों का उदय – इन सबने तत्कालीन लेखन के रूप, अन्तर्वस्तु और भाषा-शैली में अनुकूल बदलाव लाने की दिशा में योगदान दिया और प्रेमचन्द के लेखन ने बाद के लेखकों को अपनी खोज में विविधता और परिष्कार लाने के लिए चरित्र, अनुभव और स्थितियों के आर्केटाइप मुहैया कराए।
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सामाजिक यथार्थ की प्रस्तुति को लेकर प्रेमचन्द प्रासंगिक है
अपने समय के सामाजिक यथार्थ की प्रस्तुति को लेकर प्रेमचन्द का जो उपागम और तरीका था, वह आज के लेखकों के लिए भी प्रासंगिक है। विचारधारात्मक स्तर पर वे आदर्शवादी थे और उनकी गांधीवादी दीक्षा ने सामाजिक अन्तर्विरोधों के समाधान के बारे में उनकी दृष्टि को कहीं-कहीं धुंधला कर दिया है; तब जबकि उन अन्तर्विरोधों से वे इतनी गहराई तक वाक़िफ़ थे।
यह आदर्शवादी समाधान था, हृदय परिवर्तन, जिसके चलते बाघ और बकरी एक घाट पर पानी पी सकते थे। स्वाभाविक रूप से अधिक वर्ग-चेतन और बेहतर राजनीतिक दीक्षा पाए हुए युवा प्रगतिशीलों ने इसे खारिज कर दिया, लेकिन प्रेमचन्द के पास एक चीज ऐसी थी, जो इनमें से कइयों के पास नहीं थी।
वह यह कि एक ग़रीब स्कूल शिक्षक होने के नाते उन्होंने अपमानित और उपेक्षित लोगों के दुर्भाग्य के बारे में एक अवलोकनकर्ता की तरह नहीं, भागीदार की तरह लिखा, सहानुभूति प्रकट करनेवाले बाहरी व्यक्ति की तरह नहीं, एक सहभोक्ता की तरह लिखा ।
इसीलिए उनकी कहानियाँ उतनी ही रूखी और सीधी-सादी हैं तथा उनकी भाषा उतनी ही सरल और बेबाक है, जितनी उनके चरित्रों की ज़िन्दगियाँ और सबसे बड़ी बात तो ये कि उनकी कृतियाँ अपनी ज़मीन और अपने लोगों के अनेक अभावों को लेकर अगाध करुणा और प्यार से आप्लावित हैं।
आज की दिग्भ्रमित सामाजिक और साहित्यिक दुनिया -अपनी पहचान की तलाश करती, सभी तरह के सामाजिक और नैतिक आदर्शों तथा प्रयत्नों की सिनिकल अस्वीकृति के चलते और अपनी मनोगत पीड़ाओं के उलझाव के चलते अपनी जनता से अलग-थलग पड़ी है।
अपनी कला की वास्तविक समस्याओं के बदले शैली – शिल्प की पहेलियों में मुब्तिला बहुतेरी युवा प्रतिभाएँ हैं – ऐसी सामाजिक – साहित्यिक दुनिया में प्रेमचन्द का कृतित्व संस्कृति, कला और यथार्थ के सच्चे परिप्रेक्ष्य की ओर ले जानेवाला एक अत्यन्त प्रासंगिक आमन्त्रण हैं ।
संदर्भ
मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, रेखा अवस्थी, प्रेमचंद,विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता, राजकमल प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में