गुमनाम क्रांतिकारी नरेंद्र मोहन सेन, जिनसे कांपते थे अंग्रेज
अगस्त का महीना भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस महीने में अनगिनत क्रांतिवीरों ने अपने अद्वितीय साहस और बलिदान से देश को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। इनमें से कुछ क्रांतिवीरों के नाम आज भी सम्मान के साथ याद किए जाते हैं, लेकिन कई ऐसे भी थे जो गुमनामी के अंधेरे में खो गए।
इस गुमनामी का एक बड़ा कारण यह था कि इन क्रांतिकारियों ने कभी भी अपने कार्य को व्यापार के रूप में नहीं देखा। उनका मानना था कि उन्होंने देश सेवा की है, न कि कोई व्यापारिक सौदा। इसीलिए, जब आजादी के बाद सरकार ने क्रांतिकारियों के लिए पेंशन और मुआवजे की व्यवस्था की, तो कई क्रांतिकारियों ने इसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने उसूलों और आदर्शों के साथ समझौता नहीं किया और इसलिए वह सरकारी सूचियों में अपना नाम दर्ज करवाने से दूर रहे। यही कारण है कि इतिहास में उनके योगदान का समुचित उल्लेख नहीं हो पाया, और वह धीरे-धीरे भुला दिए गए।
कौन थे नरेंद्र मोहन सेन
नरेंद्र मोहन सेन, जिन्हें इतिहास में कई लोग नहीं जानते, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक ऐसे महान क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपना जीवन देश के लिए समर्पित कर दिया। उनका जन्म 13 अगस्त 1887 को अविभाजित बंगाल के जलपाईगुड़ी में हुआ था। उनके जीवन के प्रारंभिक समय में ही उन्हें विख्यात क्रांतिकारी और “अनुशीलन समिति” के नेता पुलिन बिहारी दास का सानिध्य प्राप्त हुआ, जिससे उनके मन में देशभक्ति का बीज अंकुरित हुआ।
अनुशीलन समिति एक गुप्त क्रांतिकारी संगठन था, जिसका गठन स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बंगाल में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने के लिए हुआ था। इस समिति का उद्देश्य बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय के “वन्दे मातरम्” के संदेश का अनुसरण करना और देश को स्वतंत्रता दिलाना था। नरेंद्र मोहन सेन ने इस संगठन के विचारों से प्रेरित होकर अपने जीवन का मार्ग बदल दिया।
हालांकि नरेंद्र का प्रारंभिक सपना एक डॉक्टर बनने का था, उन्होंने ढाका मेडिकल स्कूल में द्वितीय वर्ष की पढ़ाई छोड़ दी और देश की स्वतंत्रता के लिए अनुशीलन समिति में सम्मिलित हो गए। उनका यह निर्णय उनकी देशभक्ति और त्याग का प्रतीक था।
नरेंद्र मोहन सेन ने अपने जीवन का अंतिम समय एक संन्यासी के रूप में वाराणसी में बिताया, जहां उन्होंने अपने क्रांतिकारी जीवन की गुमनामी में रहकर सेवा की।
अनुशीलन समिति का विस्तार किया नरेन्द्र मोहन सेन
नरेंद्र मोहन सेन का जीवन साहस और क्रांतिकारी भावना का प्रतीक था। उनके साहसपूर्ण व्यवहार और कठिन कार्यों में सदैव अग्रणी रहने की वजह से उन्हें अनुशीलन समिति में एक प्रमुख स्थान मिला। उनका घर क्रांतिकारियों का अड्डा बन गया था, जहां वह स्वतंत्रता संग्राम की योजनाएँ बनाते और क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते थे।
1909 में जब अंग्रेज़ सरकार ने अनुशीलन समिति को ग़ैर क़ानूनी घोषित कर दिया, तो क्रांतिकारियों के सामने चुनौतियाँ और बढ़ गईं। कई सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया और उन पर “ढाका षड़यंत्र केस” के नाम से मुकदमा चलाया गया। इस दमनचक्र में कई लोगों को सजाएँ दी गईं, लेकिन नरेंद्र मोहन सेन पुलिस के हाथ नहीं आए। वह गुप्त रूप से समिति की गतिविधियों का संचालन करते रहे और 1910 में समिति का पूरा भार उनके कंधों पर आ गया।
नरेंद्र मोहन सेन ने अनुशीलन समिति का विस्तार असम, मुंबई, बिहार, उत्तर प्रदेश, और पंजाब तक किया। उन्होंने समिति की कार्यशैली को पुनः निर्देशित करने की आवश्यकता महसूस की और आम जनता, विशेष रूप से मेहनतकशों, मजदूरों और किसानों से संपर्क करने पर जोर दिया। हालांकि, सरकार द्वारा उठाए गए नए दमनकारी कदमों के कारण इस दिशा में बहुत अधिक सफलता नहीं मिल सकी। इसके बावजूद, उन्होंने नवयुवकों को संगठित कर, उन्हें मानसिक और शारीरिक रूप से शक्तिशाली बनाने का कार्य जारी रखा, ताकि वह अंग्रेजों का डटकर मुकाबला कर सकें।
नरेंद्र मोहन सेन और उनके साथी क्रांतिकारी बम बनाने, शस्त्र-प्रशिक्षण देने, और अंग्रेज़ अधिकारियों को निशाना बनाने जैसी गुप्त योजनाओं में भी शामिल थे। वह उन भारतीय अधिकारियों का भी वध करने में नहीं चूकते थे जिन्हें वे ‘अंग्रेजों का पिट्ठू’ और ‘हिन्दुस्तान का गद्दार’ समझते थे।
1923 में अनुशीलन समिति ने उत्तर भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों को पुनर्गठित करने के लिए जोगेश चटर्जी को नियुक्त किया। उनकी आत्मकथा में हम पढ़ते हैं:
अनुशीलन समिति की एक शाखा के रूप में एक अन्य पार्टी का गठन पूर्वी बंगाल के तिप्पेराह जिले के ब्राह्नानबारिया उपखंड के भोलाचांग गांव में हुआ। प्रतुल गांगुली, नरेंद्र मोहन सेन, सचिंद्र नाथ सान्याल की उपस्थिति में, जिन्हें अमूल्य मुखर्जी मैमनसिंग से लेकर आए थे, हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया गया।
बाद में सितंबर 1928 में इसका नाम बदलकर हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन (एचएसआरए) कर दिया गया।
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“बारीसाल षड़यंत्र केस” में नरेन्द्र मोहन सेन हुए गिरफ्तार
1913 में “बारीसाल षड़यंत्र केस” में नरेन्द्र मोहन सेन गिरफ़्तार कर लिए गए, लेकिन पुलिस उन्हें सजा नहीं दिला पाई। लेकिन पुलिस उन्हें सजा नहीं दिला पाई।
1913 का बारिसल षडयंत्र केस ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों द्वारा 44 बंगालियों के खिलाफ मुकदमा चलाया गया था, जिन पर राज के खिलाफ विद्रोह को उकसाने की योजना बनाने का आरोप लगाया गया था इसमें त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती और प्रतुल चंद्र गांगुली प्रमुख थे।
1913 में, ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों ने एक महत्वपूर्ण मुकदमा चलाया जिसे बारिसल षड्यंत्र केस के रूप में जाना जाता है। इस मुकदमे में 44 बंगालियों पर मुकदमा चलाया गया, जिन पर भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह भड़काने की साजिश रचने का आरोप था।
इस मामले में शामिल उल्लेखनीय हस्तियों में त्रैलोक्यनाथ चक्रवर्ती और प्रतुल चंद्र गांगुली शामिल थे। यह मुकदमा बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि यह व्यापक स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा था जो 1947 में ब्रिटिशों के जाने तक पूरे भारत में फैल गया था।
जून 1913 में कलकत्ता में 44 अभियुक्तों के खिलाफ मुकदमा शुरू हुआ। क्राउन अभियोक्ता ने साक्ष्य प्रस्तुत करते हुए बताया कि किस तरह षड्यंत्रकारियों ने बंगाल को विभिन्न जिलों में विभाजित करके देशद्रोही विचारों का प्रसार किया था। अनुशीलन समिति ने बैठकों और धार्मिक समारोहों के माध्यम से छात्रों और अविवाहित युवाओं को लक्षित किया, जिससे अकेले बारिसल जिले में ही पर्याप्त सदस्यता आधार प्राप्त हुआ।
जनवरी 1914 में, फैसला सुनाया गया। मूल 44 अभियुक्तों में से 32 को या तो बरी कर दिया गया, उन्हें क्षमादान दे दिया गया, या उनके खिलाफ़ आरोप वापस ले लिए गए। शेष 12 व्यक्तियों ने ब्रिटिश राजघराने के खिलाफ़ साजिश रचने का दोष स्वीकार किया। उनमें से एक प्रतुल चंद्रा भी था, जिसे पाँच अन्य लोगों के साथ अंडमान द्वीप पर निर्वासन की लंबी सजा मिली, जो 10 से 12 साल तक की थी। शेष सात दोषियों को दो से सात साल की निर्वासन की सजा दी गई।
लेकिन नरेंद्र मोहन सेन अनवरत क्रांति की अलख जगाए रहे। जिसके चलते द्वितीय विश्वयुद्ध के दिनों में भी नरेन्द्र मोहन जेल से बाहर नहीं रह पाए। पहले उन्हें नजरबंद किया गया उसके बाद गिरफ़्तारी और भारत तथा बर्मा की जेलों में बंद रहने का क्रम चलता रहा। देश आजाद हो जाने के बाद जीवन के उत्तरार्ध में नरेन्द्र मोहन सेन ने संन्यास ले लिया और वाराणसी आकर रहने लगे। यहीं 23 जनवरी 1963 को उनका निधन हो गया।
(नोट-नरेंद्र मोहन सेन की कोई भी तस्वीर उपलब्ध नहीं है)
संदर्भ
Niranjan Sen,Bengal’s Forgotten Warriors,People’s Publishing House
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में