जतरा भगत : आजादी के गांधीवादी योद्धा
भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता के समान, इस देश के स्वतंत्रता संग्राम के भी विविध स्वरूप रहे हैं। भारत के वनीय क्षेत्रों में अनेक जनजातीय समुदाय दुर्गम स्थलों, वनों एवं शैलीय पर्वतों में निवास करते रहे हैं, और वर्तमान में भी निवास करते हैं।
भारत की स्वतंत्रता की आकांक्षा इन सभी समुदायों के हृदय में भी प्रबल रूप से विद्यमान थी। इन समुदायों ने ग्रामीण क्षेत्रों में निवास करते हुए भी स्वतंत्रता के लिए जागरूकता उत्पन्न की, संघर्ष किया और बलिदान दिए।
कौन थे जतरा भगत
जतरा भगत एक जनजातीय समूह के व्यक्ति का नाम है। उनका जन्म ओराँव जनजातीय समुदाय में हुआ था। वह झारखंड के गुमला जिले के एक लघु ग्रामीण क्षेत्र ‘नवाटोली’ में जन्मे थे। 1888 में जन्मे जतरा भगत का जीवन वृत्तांत अद्वितीय है। लगभग 25 वर्ष की आयु में जतरा भगत का व्यक्तित्व विशिष्ट था।
जतरा भगत की वाणी में प्रभावशाली गुण था। अहिंसा उनके लिए सर्वोच्च नैतिक मूल्य बन गई थी, उनके उपदेशों में प्राकृतिक पर्यावरण का महत्त्व और संरक्षण केंद्रीय विषय बन चुके थे।वह नियमित रूप से अपने पूर्वज क्रांतिकारी बिरसा मुंडा का उल्लेख करते थे। इस प्रकार सदाचार, अहिंसा के समर्थन तथा अंधविश्वास और कुप्रथाओं का विरोध करते-करते जतरा भगत की स्वतंत्रता की चेतना भी अब विकसित होने लगी थी। उराँव जनजाति के लोग अब उन्हें ‘जतरा बाबा’ या ‘टाना बाबा‘ के सम्मानजनक शब्दों से संबोधित करने लगे थे।
जतरा भगत ने अपने समुदाय में आजादी की अलख जगाया
उन्होंने अपने समुदाय के मध्य स्वतंत्रता की अभिलाषा उत्पन्न की। टाना भगत का यह सामाजिक एवं राष्ट्रीय आंदोलन टाना भक्तों के आंदोलन के नाम से प्रचलित हुआ। इस आंदोलन का उद्भव उन उत्पीड़नों से हुआ, जो तत्कालीन भारत के प्रत्येक ग्रामीण क्षेत्र की वास्तविकता बन चुके थे— व्यापारियों, जागीरदारों एवं ब्रिटिश शासन द्वारा किए गए अत्याचार।
जतरा बाबा के आंदोलन ने सर्वप्रथम उन व्यापारियों के विरुद्ध विरोध प्रदर्शित किया, जो उनकी भूमि पर अधिकार जमा रहे थे एवं उन्हें ऋणग्रस्त बनाकर दयनीय परिस्थितियों में धकेल रहे थे। व्यापारियों के प्रति टाना आंदोलन की विरोधी गतिविधियों का अवलोकन कर अंग्रेज अधिकारियों ने सतर्कता अपनाई। उन्हें आशंका हुई कि यह विद्रोह जागीरदारों एवं तत्पश्चात शासन तक विस्तारित हो सकता है।
आंदोलन को दमित करने के प्रयास आरंभ हुए। टाना आंदोलन के समर्थकों को गिरफ्तार किया गया। उन्हें यातनाएँ दी गईं एवं अंततः शांति भंग करने तथा जनसमूह को उकसाने के आरोप में जतरा भगत को 1914 में बंदी बना लिया गया। एक वर्ष के कारावास के पश्चात उन्हें इस शर्त पर मुक्त किया गया कि वे न तो कोई सामाजिक कार्य करेंगे और न ही टाना आंदोलन के नेतृत्वकर्ता के रूप में अपनी भूमिका का निर्वहन करेंगे।
जतरा भगत जेल से मुक्त हुए। उन्होंने शांतिपूर्वक निर्धारित शर्तों का अनुपालन किया। उन्होंने आंदोलन का परित्याग किया, उपदेश देना समाप्त कर दिया तथा अत्याचारियों के कृत्यों का अवलोकन करते रहे। वह कृषक से श्रमिक में परिवर्तित हो गए और अत्यंत साधारण जीवन व्यतीत करते रहे।
गांधीजी में जतरा भगत की छवि लोगों ने देखी
जतरा भगत के उपदेशों के प्रमुख तत्व थे—अहिंसा, सदाचरण, जीवप्रेम, कुरीतियों से मुक्त समाज और स्वतंत्रता की चेतना। ये तत्व उराँव स्त्री-पुरुषों के दिलों में बस चुके थे। इसलिए, जब 1921-22 में महात्मा गांधी के उपदेशों की गूँज उनके कानों में पड़ी, तो उन्हें गांधीजी में जतरा भगत की छवि दिखाई देने लगी।
बड़ी संख्या में टाना भगत कांग्रेस में शामिल हो गए। आंदोलन का अहिंसात्मक स्वरूप प्रबल हुआ और अब इसका नेतृत्व सिदो भगत कर रहे थे। यह आंदोलन पूरी तरह अहिंसक था, और उराँव समाज गांधीजी के पीछे चल पड़ा। उन्होंने खादी धारण कर ली और जीवन को सरल व हिंसामुक्त बना लिया। अब, टाना भगत के आदर्शों के अनुसार, इस आंदोलन को सच्चा स्वरूप मिल गया।
1925 में चाईबासा (राँची) में गांधीजी से टाना भगतों की भेंट हुई थी। गांधीजी इस आंदोलन और जतरा भगत के कार्यों से बेहद प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि उराँव भाई-बहन बच्चों की तरह सरल और दृढ़निश्चयी हैं। भगतों के हाथों में खादी और चरखा देखकर मुझे अत्यंत खुशी हुई है। उन्होंने शाकाहार को भी अपना लिया है, जो अत्यंत प्रशंसनीय है।
‘भारत छोड़ो आंदोलन‘ (1942) में भी टाना भगतों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जतरा भगत की स्वतंत्रता चेतना उनके समय तक सीमित नहीं रही। टाना आंदोलन आजादी की लड़ाई में एक परंपरा बन गया, जिसमें उराँव जनजाति के पुनर्जागरण के विभिन्न पक्ष उद्घाटित होते रहे। यह आंदोलन 1914 से स्वतंत्रता प्राप्ति तक जारी रहा।
लीठो नायक नामक एक उराँव युवती
क्रांतिकारी विचारधारा कभी पूर्णतः समाप्त नहीं होती। यह अत्याचारों के प्रभाव से अवश्य दमित हो जाती है, परंतु स्वतंत्रता की चेतना की प्रबल शक्ति उसे शीघ्र ही पुनर्जीवित कर देती है। यह क्रांतिकारी भावना पुनः उद्भूत हुई, जब जतरा भगत का देहावसान हो गया।
लीठो नायक नामक एक उराँव युवती ने इस आंदोलन को पुनरुत्थान प्रदान किया। लीठो पर जतरा भगत का गहन प्रभाव था। उनकी मृत्यु के उपरांत वह असामान्य व्यवहार प्रदर्शित करने लगी, ऐसा प्रतीत होता था कि जतरा भगत की आत्मा लीठो के शरीर में प्रविष्ट हो गई हो।
वह गृह-गृह जाकर उपदेश प्रदान करने लगी। मांसाहार और मद्यपान का विरोध करने लगी। मद्यनिषेध के लिए उसने जनजातीय महिलाओं का समूह संगठित किया और उन्हें मद्यनिषेध हेतु प्रेरित किया। लीठो की इन गतिविधियों को देखकर उराँव जनजातीय समुदाय में उसका सम्मान वृद्धिगत हुआ। उन्हें प्रतीत होने लगा कि जतरा भगत का ही लीठो के रूप में पुनर्जन्म हुआ है।
तत्पश्चात्, टाना आंदोलन पुनः सक्रिय हो गया। लोग इससे संबद्ध होने लगे। जतरा बाबा का आशीर्वाद इन सभी को प्राप्त होने लगा। भगतों की संख्या अप्रत्याशित रूप से वृद्धिगत हुई। शोषकों का दमनचक्र और अधिक तीव्र हो गया। लीठो को भी गिरफ्तार कर लिया गया।
कोई भी आंदोलन जो सत्य, अहिंसा और जनहित के मुद्दों पर आधारित हो, उसे जड़ से उखाड़ फेंकना आसान नहीं होता। यही हाल जतरा भगत के आंदोलन का भी था। इसकी जड़ें बहुत गहरी थीं। समाज-सुधार, सदाचरण और अन्याय के प्रति विद्रोह इसके प्रमुख मूल्य थे। ये मूल्य जन-जन के हृदय में बस चुके थे, इसलिए किसी भी सत्ता के लिए इसे समाप्त कर पाना असंभव था।
भीखू भगत ने टाना आंदोलन को अलख को जलाए रखा
टाना आंदोलन की यह यात्रा निरंतर आगे बढ़ती रही। जतरा बाबा के बताए रास्ते पर चलकर उराँव समुदाय का पुनर्जागरण एक बार फिर से हुआ। इस बार इस जागरण के मुखिया थे भीखू भगत, जिन्होंने जतरा भगत की शिक्षाओं को और भी व्यापक स्वरूप देकर आंदोलन को मजबूत आधार दिया।
भीखू भगत जतरा भगत के सच्चे अनुयायी सिद्ध हुए। उन्होंने मांसाहार और शराब को उराँव समाज में वर्जित कर दिया, रीति-रिवाजों का कड़ाई से पालन करवाया, और स्वच्छता अभियानों को आगे बढ़ाया। स्नान, पूजा और सांस्कृतिक त्योहारों की सुंदर परंपरा स्थापित कर, भीखू भगत ने उराँव जनजाति को एक स्वच्छ और पवित्र परिवेश प्रदान किया।
हालाँकि, कई युवा उराँव इस वैष्णवी सामाजिक आंदोलन से असंतुष्ट थे। उन्हें लगा कि इससे उनकी सामाजिक और आध्यात्मिक उन्नति तो हो सकती है, लेकिन उनकी आर्थिक प्रगति और शोषण से मुक्ति कैसे मिलेगी? इस प्रकार की सोच रखने वाले युवकों ने 1918 में एक अलग दल का गठन किया, जो सशक्त क्रांति का समर्थक था। इस विद्रोह के दौरान लोगों के बीच साल वृक्ष की डालें बाँटी जाती थीं। अंग्रेजों की तोप और बंदूकों से लैस सेना के सामने यह सशस्त्र विद्रोह लंबे समय तक नहीं टिक सका। कई जनजातीय लोग मारे गए और कई को फाँसी दी गई।
संदर्भ
श्रीप्रकाश मणि त्रिपाठी, आजादी के अरण्य सेनानी, प्रभात प्रकाशन
रंजना चितले, जनजातीय योद्धा, स्वाभिमान और स्वाधीनता का संघर्ष, प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में