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महात्मा गांधी के प्रिय संगीतकार पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर

महात्मा गांधी के प्रिय भजन ‘रघुपति राघव राजाराम...’ के पहले कंपोज़र और मौलिक गायक विष्णु दिगंबर पलुस्कर ही थे।

संगीत हमारे जीवन का अभिन्न अंग है। यह केवल मनोरंजन का साधन ही नहीं है, बल्कि अपने धार्मिक और सांस्कृतिक पहलुओं के माध्यम से हमारी नसों में गहराई से समाया हुआ है। भारतीय संगीत के स्वर सर्वप्रथम सामवेद के मंत्रों में मुखरित हुए थे, जिन्हें उद्गातागण यज्ञ-यागों और दैविक प्रार्थनाओं के अवसर पर गाते थे।

समय के साथ जैसे-जैसे परिवर्तन हुआ, एक दौर ऐसा आया जब शास्त्रीय संगीत केवल महंगा मनोरंजन बनकर रह गया और भोग-विलास की छत्रछाया में पलने लगा। 19वीं सदी के अंत तक भारतीय संगीत का भविष्य अनिश्चित दिखने लगा। इसी दौरान, संगीत-जगत में एक ऐसा नक्षत्र प्रकट हुआ जो भावी पीढ़ियों के संगीत साधकों के लिए प्रेरणा और प्रकाश का स्रोत बन गया।

यह विभूति पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर थे, जिनके व्यक्तित्व में असाधारण गुणों का संगम था। वे उत्कृष्ट संगीतकार, कुशल शिक्षक और संगीत-जगत के ध्येयवादी व्यक्तित्व थे। इन्हीं गुणों और उनके योगदान के कारण उन्हें “संगीत उद्धारक” कहा गया।

पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर
पंडित विष्णु दिगंबर पलुस्कर

कौन थे, विष्णु दिगंबर पलुस्कर

पंडित पलुस्कर का जन्म 1872 में महाराष्ट्र के तत्कालीन कुरुंदवाड़ राज्य में श्रावण पूर्णिमा के दिन हुआ था। उनके पिता कुरुंदवाड़ के प्रसिद्ध कीर्तनकार थे और उन्हें राजदरबार में सम्मान प्राप्त था। बालक विष्णु का बचपन राजा की कोठी में ही बीता क्योंकि वे राजपुत्र के समवयस्क थे।

एक बार दत्त जयंती के उत्सव में पटाखे चलाते समय उनका चेहरा जल गया, जिससे उनकी आँखों की रोशनी क्षीण हो गई। इसके बाद उनकी संगीत शिक्षा मिरज राज्य के राजगायक श्री बालकृष्ण बुवा इचलकरंजीकर के संरक्षण में शुरू हुई। वहाँ मिरज दरबार ने उनकी हर सुविधा का ध्यान रखा, और विष्णु दिगंबर नियमित रियाज़ और कठोर अनुशासन के कारण एक प्रवीण गायक बने। लेकिन दरबार का आश्रय लेने या धनी-मानियों के मनोरंजन के लिए गाने के बजाय, उन्होंने संगीत के लिए एक ऊँचे उद्देश्य को चुना।

पलुस्कर जी को विद्यार्थी जीवन से ही यह कटु अनुभव हुआ कि समाज में संगीत जैसी महान विद्या और संगीतकारों को सम्मानजनक स्थान नहीं मिलता। उस समय शास्त्रीय संगीत समझने वाले लोग बहुत कम थे। जब कोई प्रवासी गायक किसी नए शहर में पहुँचता, तो उसे तानपूरा लेकर घर-घर भटकना पड़ता था।


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धनी-मानी लोगों की इच्छा होती तो वे जलसा आयोजित कर देते, लेकिन गायक को बस थोड़ा पैसा मिल पाता, सम्मान नहीं। आम धारणा थी कि संगीतज्ञ व्यसनी होते हैं, जिससे पलुस्कर जी को गहरी ठेस पहुँची। मिरज से सतारा, पूना, और बम्बई होते हुए वे बड़ौदा पहुँचे, जहाँ उन्हें अपनी योजनाओं को मूर्त रूप देने के लिए उपयुक्त वातावरण मिला।

बड़ौदा और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान

बड़ौदा पहुँचने पर उन्होंने न तो दरबार की दौड़ लगाई, न ही धनाढ्य शौकीनों के पीछे गए। उन्होंने राजपुरा मुहल्ले के प्रसिद्ध राम मंदिर में जाकर पुजारी से वहाँ पत्र सेवा के रूप में गायन करने की अनुमति मांगी। साथ ही, रोशनी और बैठक आदि के खर्च के लिए कुछ रुपये देने का प्रस्ताव किया पुजारी उनकी सरलता और निष्ठा से प्रभावित होकर इस व्यवस्था में उत्साहपूर्वक जुट गए।

उनके गायन ने शहर के संभ्रांत जनों को मोह लिया, और बात राजमाता जमनाबाई साहिबा तक पहुँची। उनके भजन और देव-पूजा में संगीत के महत्व के कारण वे पंडित पलुस्कर से इतनी प्रभावित हुईं कि उन्होंने उन्हें चार महीने तक दरबार में आमंत्रित किया।

बड़ौदा दरबार से मिले परिचय-पत्रों के माध्यम से पलुस्कर जी ने कई रियासतों में कार्यक्रम किए और उन्हें सम्मान और प्रतिष्ठा मिली।

इसी दौरान उनका संपर्क महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, और पंडित मदनमोहन मालवीय जैसे स्वतंत्रता संग्राम के नेताओं से हुआ। वे गांधी जी के प्रिय बने, और गांधी के प्रिय भजन “रघुपति राघव राजा राम…” को संगीतबद्ध करने और इसे सबसे पहले प्रस्तुत करने का श्रेय उन्हें ही जाता है। साथ ही, “वंदे मातरम” की मौलिक धुन भी उन्हीं का योगदान है।


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भारतीय संगीत का प्रसार और नई पीढ़ी का मार्गदर्शन

भारतीय संगीत के प्रति पलुस्कर जी का एक और महत्वपूर्ण योगदान यह था कि उन्होंने पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, पंडित विनायक राव पटवर्धन, प्रो. बी.आर. देवधर, पंडित नारायण राव व्यास, और पंडित वामन राव पाध्ये जैसे महान कलाकारों को प्रशिक्षित किया। इन्हीं कलाकारों ने भारतीय शास्त्रीय संगीत की परंपरा को आगे बढ़ाया और इसे विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित किया। प्रसिद्धि के शिखर पर पहुँचने के बावजूद, पंडित पलुस्कर ने अपने ध्येय को नहीं छोड़ा। वे आम जनता में शास्त्रीय संगीत के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से जुटे रहे।

सामान्य मध्यवर्गीय लोगों के लिए निजी जलसे आयोजित करना संभव नहीं था, इसलिए पंडित जी ने थियेटरों में मामूली टिकट के माध्यम से आम जनता के लिए संगीत कार्यक्रम आयोजित किए। पहला ऐसा सार्वजनिक जलसा उन्होंने 1899 में भावनगर में आयोजित किया, जो भारत में इस प्रकार का पहला कार्यक्रम था।

पंडित विष्णु दिगंबर का दूसरा महान कार्य था जनता के सांस्कृतिक जीवन में संगीत की पुनः प्रतिष्ठा। इसी उद्देश्य से उन्होंने 5 मई 1909 को लाहौर में गांधर्व महाविद्यालय की स्थापना की। थोड़े ही समय में इस विद्यालय में सभ्य और सुसंस्कृत घरों के बालक संगीत सीखने आने लगे, और संगीत शिक्षा का विस्तार हुआ।

अपने जीवन के उत्तरार्ध में पंडित पलुस्कर ने वैराग्य धारण कर लिया। वे कफनी ओढ़कर तुलसीकृत रामायण का संकीर्तन करने लगे। भक्ति पदों और रामायण की चौपाइयों को इतनी तन्मयता से गाते कि उनके कार्यक्रम में हज़ारों लोग भक्ति भाव से विभोर हो उठते। अपने अंतिम दिनों में पंडित जी रामायण, भजन, और “रघुपति राघव राजा राम” गाने में आत्मविभोर रहते थे। 21 अगस्त 1931 को उन्होंने अपनी इहलोक यात्रा समाप्त की और परलोक को प्रस्थान किया।

उन्होंने सिद्ध कर दिया कि संगीत मोक्ष प्राप्ति का साधन है, और उनके इस योगदान ने उनके जीवन को सार्थकता प्रदान की।


संदर्भ

Vimla Gupta, मानवता के प्रकाश-पुंज

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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