मौलाना अबुल कलाम आज़ाद: एक आधुनिकतावादी, पत्रकार और चाय के रसिक
अबुल कलाम आज़ाद का जन्म 1888 में मक्का शहर में हुआ। उनका असल नाम मुहिउद्दीन अहमद था मगर उनके पिता मौलाना सैयद मुहम्मद ख़ैरुद्दीन बिन अहमद उन्हें फ़िरोज़ बख़्त के नाम से पुकारते थे। अबुल कलाम आज़ाद की माता आलिया बिंत-ए-मुहम्मद का संबन्ध एक शिक्षित परिवार से था। आज़ाद के नाना मदीना के एक प्रतिष्ठित विद्वान थे जिनकी प्रसिद्धी दूर-दूर तक थी। अपने पिता से आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद आज़ाद मिश्र की प्रसिद्ध शिक्षा संस्थान जामिया अज़हर चले गए जहाँ उन्होंने प्राच्य शिक्षा प्राप्त की।
अरब से प्रवास करके हिंदुस्तान आए तो कलकत्ता को अपनी कर्मभूमि बनाया। यहीं से उन्होंने अपनी पत्रकारिता और राजनीतिक जीवन का आरंभ किया।
मौलाना आज़ाद सर सैयद अहमद खान के आधुनिकतावादी लेखन से प्रेरित थे। किशोरावस्था में ही वे एक सक्रिय पत्रकार बन गए और कलकत्ता स्थित उर्दू अख़बार अल-हिलाल का प्रकाशन शुरू किया।
अल-हिलाल और अल-बलाग़: पत्रकारिता में आज़ाद का योगदान
अबुल कलाम आज़ाद ने 1915 में कोलकाता से उर्दू साप्ताहिक अल-बलाग़ का प्रकाशन भी प्रारंभ किया, जो अल-हिलाल का कार्य आगे बढ़ाने का प्रयास था। अल-हिलाल को 1914 में ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था। एक कुशल पत्रकार के रूप में आज़ाद ने अपने अख़बार के ज़रिए एक मज़बूत ब्रिटिश-विरोधी रुख अपनाया।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ लिखते हुए उन्होंने धर्म, प्राचीन इतिहास और विचारों के परस्पर संबंधों के प्रतिनिधि उदाहरणों का उपयोग कर जनता को जागरूक करने का प्रयास किया। अख़बार ने विदेशी शासकों के अन्याय के प्रति सहिष्णुता और उदासीनता से होने वाले नुकसान के बारे में जागरूकता बढ़ाने का भी प्रयास किया।
मौलाना आज़ाद ने अख़बार के माध्यम से एकता और सांप्रदायिक सद्भाव के महत्व पर ज़ोर दिया, साथ ही यह भी स्पष्ट किया कि आज़ादी के लिए समाज के सभी वर्गों का एक साथ काम करना आवश्यक है। अल-बलाग़ को भी 1916 में ब्रिटिश सरकार ने प्रतिबंधित कर दिया और मौलाना आज़ाद को भारत रक्षा नियमों के तहत रांची से निष्कासित कर दिया गया। उनकी पत्रकारिता ने लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक करने और भारत में ब्रिटिश शासन की सच्चाई से अवगत कराने में अहम भूमिका निभाई।
पत्रकारिता के क्षेत्र में मौलाना ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। ‘नैरंगे-आलम’ के बाद उन्होंने 1901 में अस्सबाह का प्रकाशन किया, जिसका पहला सम्पादकीय ईद शीर्षक से लिखा गया, क्योंकि यह ईदुल-फितर के दिन प्रकाशित हुआ था। इस सम्पादकीय को अन्य अखबारों ने भी छापा, जिसमें लाहौर से प्रकाशित पैसा अखबार प्रमुख था। यह पत्र भी केवल 3-4 महीने ही चल सका।
इसी समय मौलाना की पहली रचना एलाने हक (सत्य की घोषणा) प्रकाशित हुई, जिसमें उन्होंने चंद्र दर्शन के बारे में अपने पिता के एक फतवे पर आपत्ति करने वालों को जवाब दिया था। इसके बाद मौलाना ने मख़जन (लाहौर), अहसानुल-अखबार (कलकत्ता), मुरक़क्क़ये-आलम (हरदोई) जैसी पत्रिकाओं में लेख लिखे।
मुंशी नौबत राय नज़र लखनऊ से खदंगे-नज़र निकालते थे। मौलाना ने उनसे कहा कि यदि वे पत्रिका के लेखों की संख्या बढ़ाएं तो वे सम्पादन के लिए तैयार हैं। इस प्रकार यह कार्य उन्हें सौंपा गया, और वे इसमें लेख लिखने के साथ-साथ अपनी काव्य रचनाएं भी प्रकाशित करते रहे। एक लेख एक्सरेज़ शीर्षक से लिखा तो मौलाना शिबली ने उनसे अल् नदवा के लिए हर महीने ऐसा लेख लिखने का आग्रह किया।
जब कंधार से पैदल चलकर मौलाना आज़ाद से मिलने पहुंचा था एक व्यक्ति
रांची में नज़रबंदी के दिनों की एक रोचक घटना मौलाना ने तरजुमानुल-कुरान में इस तरह लिखी है:
“संभवतः दिसंबर 1918 की बात है, जब मैं रांची में नज़रबंद था। इशा (रात) की नमाज़ के बाद मस्जिद से बाहर निकला तो मुझे महसूस हुआ कि कोई मेरे पीछे आ रहा है। मैंने मुड़कर देखा तो एक व्यक्ति कंबल ओढ़े खड़ा था।
“आप मुझसे कुछ कहना चाहते हैं?” मैंने पूछा।
“हां, जनाब, मैं बहुत दूर से आया हूं।”
“कहां से?”
“सीमा पार से।”
“यहां कब पहुंचे?”
“आज शाम को। मैं बहुत गरीब आदमी हूं। कंधार से पैदल चलते हुए क्वेटा पहुंचा, जहां अपने देश के कुछ व्यापारी मिले जिन्होंने मुझे नौकर रख लिया और आगरा पहुंचा दिया। आगरा से यहां तक मैं फिर पैदल ही आया हूं।”
“अफसोस, तुमने इतनी तकलीफ क्यों उठाई?”
“इसलिए कि कुरान मजीद के कुछ अंश समझ सकूं। मैंने अलहिलाल और अलबलाग़ का एक-एक शब्द पढ़ा है।”
यह व्यक्ति कुछ दिनों तक ठहरा और फिर अचानक बिना बताये लौट गया। जाते वक्त उसने मुझसे मुलाकात इसलिए नहीं की ताकि मैं उसे वापसी के खर्च के लिए रुपये न दे दूं। वह मुझ पर इसका भार नहीं डालना चाहता था। नि:संदेह, वापसी में भी उसने अधिकतर रास्ता पैदल ही तय किया होगा। मुझे उसका नाम याद नहीं है और यह भी नहीं पता कि वह अब जीवित है या नहीं। अगर मेरी स्मरण शक्ति में त्रुटि न होती, तो मैं यह पुस्तक उसी के नाम समर्पित करता।
चाय के रसिक थे, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद
मौलाना अबुल कलाम आज़ाद चाय के रसिक थे। उनकी इस रुचि का पता हमें उनके उन ख़तों से चलता है, जो उन्होंने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ़्तारी के बाद जेल से लिखे थे। ये ख़त आज़ाद ने अपने दोस्त नवाब सद्र यार ज़ंग को अहमदनगर जेल से लिखे, और 1946 में गुबार-ए-ख़ातिर नामक किताब में प्रकाशित हुए। अगस्त 1942 से सितंबर 1943 तक, लगभग एक वर्ष के अंतराल में लिखे गए ये पत्र एक राष्ट्रवादी नेता की रोज़मर्रा की ज़िंदगी से हमें परिचित कराते हैं।
ये ख़त अकसर सुबह-सुबह चाय की चुस्कियाँ लेते हुए लिखे गए थे, इसलिए उनमें गाहे-बगाहे चाय का ज़िक्र भी आता है। अपनी पसंदीदा चाय के बारे में बताते हुए आज़ाद 17 दिसंबर 1942 के एक ख़त में लिखते हैं, “एक मुद्दत से जिस चीनी चाय का आदी हूँ वह व्हाइट जैस्मिन कहलाती है, यानी ‘यास्मीन-ए-सफ़ेद’ या यूं कहें ‘गोरी चमेली’… इसकी खुशबू जितनी मुलायम है, उतना ही इसका कैफ़ (नशा) तेज़ है।” वे यह भी जोड़ते हैं कि वे “अफ़सर्दगियों (उदासी) का इलाज चाय के गरम प्यालों से करते हैं और स्याही ख़त्म होने पर कभी-कभी कलम को भी चाय के फिंजान में डुबो देते हैं और कहते हैं कि, ‘आज कलम को भी एक घूंट पिला दिया’।”
आज़ाद एक पत्र में बताते हैं कि वे चाय के लिए रूसी फ़िंजान का इस्तेमाल करते हैं। 27 अगस्त 1942 के पत्र में वे इसकी ख़ूबियों का वर्णन करते हुए कहते हैं, “ये (रूसी फिंजान) चाय की सामान्य प्यालियों से बहुत छोटे होते हैं। अगर बेसब्री से पिया जाए तो दो घूंट में ही खत्म हो जाए। लेकिन ख़ुदा न ख़ास्ता मैं ऐसा बेसब्र क्यों होने लगा? मैं पुराने जुरआ-कशाने-कुहन-मश्क (पारंपरिक पीने वालों) की तरह धीरे-धीरे और छोटे-छोटे घूंट लेकर चाय पीता हूं।”
अपने चाय के अनुभवों का विस्तार से वर्णन करते हुए, 3 अगस्त 1942 के एक पत्र में आज़ाद लिखते हैं:
“मैंने चाय की लताफ़त (मुलायमियत) और शीरीनी (मिठास) को तंबाकू की तुर्शी (कसैलापन) और तल्ख़ी (कड़वाहट) से मिलाकर एक मिश्रित कैफ़ (नशा) पैदा करने की कोशिश की है। मैं चाय के पहले घूंट के साथ ही सिगरेट सुलगा लेता हूँ, फिर इस खास विधि को कुछ इस तरह बनाता हूँ कि थोड़े-थोड़े अंतराल पर चाय का एक घूंट और सिगरेट का एक कश लेता रहता हूँ। इस प्रकार हर कड़ी चाय के घूंट और सिगरेट के कश के बाहमी इम्तिजाज (मेल) से मिलकर धीरे-धीरे ढलती जाती है, और क्रम लंबा खिंचता चला जाता है। यह संयोग इतना सटीक होता है कि जब फ़िंजान का आखिरी घूंट लिया जाता है, तभी सिगरेट भी अपने अंतिम खिंचाव तक पहुँच जाती है।”
मौलाना आज़ाद कहते हैं कि वे चाय को “सिर्फ़ चाय के लिए” पीते हैं, जबकि “दूसरे दूध और शक्कर के लिए” पीते हैं। वे विस्तार से बताते हैं कि चाय कैसे चीन से रूस, तुर्किस्तान, और ईरान के रास्ते इंग्लैंड तक पहुँची। भारत में चाय में दूध मिलाने की परंपरा उन्हें बिल्कुल पसंद नहीं थी, और इसका दोष वे अंग्रेज़ों को देते थे। आज़ाद के शब्दों में:
“सत्रहवीं सदी में जब अंग्रेज़ इससे (चाय से) परिचित हुए, तो न जाने उन्हें क्या सूझा, उन्होंने दूध मिलाने की बिदअत (नई परंपरा) शुरू कर दी। और चूंकि हिंदुस्तान में चाय का प्रचलन उन्हीं के माध्यम से हुआ, यह नई परंपरा यहाँ भी फैल गई। धीरे-धीरे यह हाल हो गया कि लोग चाय में दूध डालने की जगह दूध में चाय डालने लगे… लोग चाय का एक प्रकार का तरल हलवा बनाते हैं, खाने की जगह पीते हैं और खुश होते हैं कि हमने चाय पी ली। इन नासमझों से कौन कहे: हाय, कमबख़्त, तूने पी ही नहीं!”
संदर्भ
अर्श मलसियानी, आधुनिक भारत के निर्मता, मौलाना अबुल कलाम आजाद,प्रकाशन विभाग
कृष्ण गोपाल, आजाद की कहानी, ओरियंट ब्लैकस्वान,2022
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में