राजा राव तुलाराम: स्वतंत्रता संग्राम के महानायक
राव तुलाराम के नेतृत्व में अहीरवाल के लोगों ने 1857 की क्रांति में उत्साह और वीरता के साथ अंग्रेज़ों का विरोध किया। ‘अहीरवाल’ का अर्थ है ‘अहीरों का आवास स्थल’। अहीर मुख्यतः किसान और योद्धा वर्ग के लोग थे, जो रेवाड़ी और नारनौल क्षेत्रों में बड़ी संख्या में निवास करते थे। इस क्षेत्र को ‘अहीरवाल’ नाम इसी कारण से दिया गया। सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रेवाड़ी था। रोहतक, हिसार, और पानीपत में इनकी संख्या बहुत कम थी।
कौन थे राव तुलाराम
राव तुलाराम का जन्म 1825 में रेवाड़ी के रामपुरा गाँव में हुआ। उनके पिता का नाम पूरन सिंह था। वे रेवाड़ी के राव-परिवार के वंशज थे। मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने उनके परिवार को 20 लाख रुपये वार्षिक आय की जागीर प्रदान की थी। रेवाड़ी के निवासियों ने 1803 में अंग्रेज़ों के खिलाफ मराठों का समर्थन किया।
जब अंग्रेज़ों ने यहाँ अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया, तो राव परिवार की जागीर छीन ली गई। इस घटना से राव परिवार का सम्मान गहरे तक आहत हुआ, और उनके मन में अंग्रेज़ों के प्रति घोर असंतोष उत्पन्न हो गया।1839 में पिता की मृत्यु के बाद राव तुलाराम ने जागीर की ज़िम्मेदारी संभाली। उनके हृदय में अंग्रेज़ों के प्रति गुस्सा पहले से ही था। जब 10 मई 1857 को स्वतंत्रता संग्राम का आरंभ हुआ, तो उन्होंने इसे पूरे जोश के साथ स्वीकार किया और क्रांति में सक्रिय हो गए।
17 मई, 1857 को राव तुलाराम और उनके भाई गोपालदेव लगभग चार-पाँच सौ सहयोगियों के साथ रेवाड़ी पहुँचे।
उन्होंने वहाँ अंग्रेज़ों द्वारा नियुक्त थानेदार और तहसीलदार को पदच्युत कर दिया तथा सभी राजकीय भवनों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। दिल्ली के बादशाह बहादुर शाह ज़फर के समर्थन से, राव तुलाराम को रेवाड़ी परगना का राजा घोषित किया गया। उनके राज्य में रेवाड़ी के अलावा मौरा और शाहजहाँपुर क्षेत्र भी शामिल थे। उनके अधिकार क्षेत्र में लगभग 361 गाँव आते थे।
राव तुलाराम ने रामपुरा को अपने राज्य का मुख्य केंद्र बनाया और अपने छोटे भाई गोपालदेव को सेनापति नियुक्त किया।
राव तुलाराम और बहादुरशाह ज़फर का सहयोग
राजा राव तुलाराम के समर्पण और देशभक्ति से बहादुरशाह ज़फर अत्यधिक प्रभावित हुए। ज़फर ने राव तुलाराम को रेवाड़ी, मौरा, और शाहजहाँपुर का राजा बनने की पुष्टि दी। तुलाराम ने बहादुरशाह ज़फर से स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व करने का अनुरोध किया, जिसे ज़फर ने स्वीकार किया।
हालाँकि, धन की कमी के कारण परिस्थितियाँ चुनौतीपूर्ण हो गईं। खजाने में धन की अनुपलब्धता से सैनिकों को वेतन नहीं मिल रहा था, जिससे सेना में अराजकता फैल गई। आर्थिक तंगी के कारण सैनिक लूटपाट करने लगे। ऐसी विकट स्थिति में राव तुलाराम ने अपनी दूरदर्शिता और राष्ट्रप्रेम का परिचय दिया।
राव तुलाराम ने सेनापति वरन खाँ के माध्यम से बहादुरशाह ज़फर को 45,000 रुपये भेजे। यह धनराशि तुरंत सैनिकों के बीच बाँट दी गई, जिससे सेना को संकट से उबरने में सहायता मिली।
अंग्रेज़ों ने दिल्ली के पास पहाड़ियों पर कब्जा कर लिया था, और उनकी सेना निरंतर दिल्ली के क्रांतिकारियों से युद्ध कर रही थी। राव तुलाराम ने क्रांतिकारी सेना को खाद्य सामग्री और अन्य आवश्यक वस्तुएँ भिजवाईं।
दिल्ली में उस समय गंधक की भारी कमी हो गई थी, जो बारूद बनाने के लिए आवश्यक थी। बहादुरशाह ज़फर ने राव तुलाराम से गंधक की व्यवस्था करने का अनुरोध किया, जिसे उन्होंने सफलतापूर्वक पूरा किया। साथ ही, उन्होंने अफीम और अन्य सामग्री भी जुटाकर युद्ध प्रयासों को मज़बूत किया।
राजा राव तुलाराम और उनके वीर सहयोगी
राजा राव तुलाराम के सहयोगी भी स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय योद्धा थे। उनमें से कृष्णसिंह, रेवाड़ी के पास स्थित नागल गाँव के निवासी थे। वे बहादुर और अदम्य साहस वाले व्यक्ति थे। मात्र 20 वर्ष की आयु में वे नौकरी की तलाश में मेरठ गए और वहाँ कोतवाल नियुक्त हुए।
1857 की क्रांति के आरंभ से ही उनकी सहानुभूति क्रांतिकारियों के साथ थी। 3 जून को अंग्रेज़ अधिकारियों ने उन गाँवों को दंडित करने का निर्णय लिया, जिन्होंने क्रांति के दौरान विद्रोहियों की मदद की थी। कृष्णसिंह ने गाँववासियों पर आक्रमण करने में जानबूझकर देर की, जिससे ग्रामीण भागने में सफल हो गए। अंग्रेज़ सेनापति इस हरकत से अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसने खाली गाँवों में आग लगाकर अपनी प्रतिशोध की भावना को शांत किया।
कृष्णसिंह मेरठ से भागकर राव तुलाराम के पास रेवाड़ी पहुँच गए। राजा राव तुलाराम ने उनकी बहादुरी और सूझबूझ को देखते हुए उन्हें अपनी अश्वारोही सेना का सेनापति नियुक्त किया। कृष्णसिंह ने राव तुलाराम के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ कई लड़ाइयाँ लड़ीं और वीरगति को प्राप्त हुए।
राजा राव तुलाराम के छोटे भाई गोपालदेव उनकी सेना में सेनापति थे। वे न केवल बहादुर बल्कि अद्भुत रणनीतिकार भी थे। गोपालदेव ने अपने भाई के साथ मिलकर अंग्रेज़ों का डटकर विरोध किया। क्रांति के प्रतिशोध स्वरूप अंग्रेज़ों ने उनकी सारी संपत्ति और जमीन-जायदाद जब्त कर ली। इसके बावजूद, उन्होंने अपने साहस और निष्ठा से क्रांति में अमूल्य योगदान दिया।
राजा राव तुलाराम की रणनीति और अंग्रेज़ों से संघर्ष
1857 में हरियाणा के अधिकांश क्षेत्र अंग्रेज़ों के आधिपत्य से मुक्त हो गए। परंतु यह स्वतंत्रता स्थायी नहीं रही। धीरे-धीरे अंग्रेज़ों ने हिसार, पानीपत, और रोहतक जैसे क्षेत्रों पर पुनः कब्जा कर लिया।
जब अंग्रेज़ सैनिक रेवाड़ी की ओर बढ़े, तो राजा राव तुलाराम ने अपनी व्यवहारकुशलता से समझ लिया कि रामपुरा के कच्चे मिट्टी के किले की सुरक्षा असंभव है। दिल्ली का पतन हो चुका था, और वहाँ से किसी भी प्रकार की सहायता की उम्मीद नहीं थी। ऐसे में अंग्रेज़ों का सामना करना आत्मघात साबित हो सकता था।
ब्रिगेडियर जनरल शॉवर्स के रेवाड़ी पहुँचने से पहले ही राव तुलाराम ने रामपुरा का किला खाली कर दिया। जब अंग्रेज़ों की सेना वहाँ पहुँची, तो उन्हें केवल कुछ तोपें और बंदूकें मिलीं। शॉवर्स ने किले पर कब्जा कर लिया और राव तुलाराम को संदेश भेजा:
“यदि आप आत्मसमर्पण कर देंगे, तो आपके साथ न्याय किया जाएगा।” राव तुलाराम एक सच्चे वीर सेनानी थे। उन्होंने आत्मसमर्पण करने का विचार तक नहीं किया और बदला लेने की योजना में लग गए।
ब्रिगेडियर शॉवर्स एक सप्ताह तक रेवाड़ी में रुका। इसके बाद वह झज्जर की ओर बढ़ गया। इस बीच, राव तुलाराम ने अपनी सेना को पुनः संगठित करने और क्रांति को जारी रखने की तैयारी शुरू कर दी।
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
राव तुलाराम और नारनौल का युद्ध: संघर्ष और बलिदान
ब्रिगेडियर जनरल शॉवर्स, विपुल धनराशि, प्रमुख क्रांतिकारियों और युद्ध सामग्री को लेकर दिल्ली पहुँचे। उनका मुख्य उद्देश्य रेवाड़ी में राव तुलाराम को पकड़ना था, लेकिन इसमें वह असफल रहे। वह रेवाड़ी के कृष्णसिंह, झज्जर के अबूसमद खाँ और मुहम्मद अज़ीम बट्टू को भी बंदी बनाने में विफल रहे। ये सभी हरियाणा के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख नेता थे।
शॉवर्स के आक्रमण ने क्रांतिकारियों को मजबूर किया कि वे अपने स्थान छोड़कर राजस्थान चले जाएँ। राव तुलाराम भी उनके साथ थे। उन्हें जोधपुर के लश्कर की सहायता मिली, और इस सहयोग से उन्होंने अंग्रेज़ों के साथ युद्ध जारी रखने का निर्णय किया।
राव तुलाराम ने अपने सहयोगियों के साथ रेवाड़ी पर पुनः अधिकार कर लिया। रामपुरा के किले पर स्वदेशी झंडा फहराया गया। हालाँकि, उन्होंने रेवाड़ी को अपना सैन्य केंद्र बनाए रखना उपयुक्त नहीं समझा और नारनौल का किला चुना, जो सामरिक दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण और सुदृढ़ था।
रेवाड़ी पर राव तुलाराम की विजय से अंग्रेज़ अधिकारी चिंतित हो उठे। उन्होंने एक सैन्य पलटन, तोपों और युद्ध सामग्री के साथ, कर्नल जेरार्ड के नेतृत्व में रेवाड़ी भेजी।
नारनौल की लड़ाई: वीरता और बलिदान
10 नवंबर, 1857 को अंग्रेज़ी सेना दिल्ली से चली और तीन दिन बाद रेवाड़ी पहुँची। उन्होंने रामपुरा के किले पर कब्जा कर लिया और महेंद्रगढ़ होते हुए नारनौल की ओर बढ़े। नारनौल तक पहुँचने में अंग्रेज़ी सेना को रेतीली ज़मीन और कठिन मार्गों के कारण कठिनाइयों का सामना करना पड़ा।
जब अंग्रेज़ी सेना नारनौल के पास एक गाँव में आराम कर रही थी, राव तुलाराम की क्रांतिकारी सेना ने उन पर धावा बोल दिया। शुरुआती हमले में अंग्रेज़ी सेना तितर-बितर हो गई। हालाँकि, यह विजय स्थायी नहीं रही। अंग्रेज़ी सेना ने अपनी भारी तोपों से जवाबी हमला किया, जिसका सामना भारतीय सैनिक नहीं कर सके।
युद्ध के दौरान कर्नल जेरार्ड को गोली लगी और उनकी वहीं मृत्यु हो गई। इससे अंग्रेज़ी सेना अस्थायी रूप से हतोत्साहित हुई।
राव तुलाराम की सेना ने अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर लड़ाई लड़ी। परंतु अंग्रेज़ों की तोपों और बेहतर संसाधनों के आगे वे टिक नहीं सके।सेनापति कृष्णसिंह और रामलाल वीरगति को प्राप्त हुए। भारतीय सेना निराश होकर पीछे हट गई और बिखर गई।नारनौल में पराजय के बाद, हरियाणा और उत्तर भारत के कई हिस्सों में स्वतंत्रता संग्राम का अंत हो गया। अंग्रेज़ों ने पुनः इन क्षेत्रों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
राव तुलाराम: नारनौल की पराजय के बाद का जीवन
नारनौल की पराजय के उपरांत, राजा राव तुलाराम राजस्थान चले गए। इस दौरान, 1 नवंबर 1858 को रानी विक्टोरिया ने एक घोषणा पत्र जारी किया। इसमें यह वादा किया गया था कि जो क्रांतिकारी आत्मसमर्पण करेंगे, उनके सभी अपराध माफ कर दिए जाएंगे।
हालाँकि, अंग्रेज़ अधिकारियों ने राव तुलाराम को खतरनाक अपराधी मानते हुए उनसे किसी भी प्रकार की रियायत देने से इनकार कर दिया। रानी विक्टोरिया के घोषणा पत्र के बावजूद, अंग्रेज़ राव तुलाराम के साथ कोई सहानुभूति दिखाने को तैयार नहीं थे।
1862 में, राव तुलाराम ने भारत छोड़ दिया और ईरान चले गए। वहाँ से वे अफगानिस्तान पहुँचे। जीवन के इस अंतिम दौर में भी वे स्वतंत्रता संग्राम के प्रति समर्पित रहे। 19 सितंबर 1863 को, मात्र 38 वर्ष की अल्पायु में, काबुल में उनकी मृत्यु हो गई।
राजा राव तुलाराम ने देश से दूर अपने प्राण त्याग दिए, लेकिन उनका जीवन और बलिदान देशवासियों के लिए प्रेरणा का अनंत स्रोत बनकर जीवित रहेगा। उनकी वीरता और देशभक्ति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक स्वर्णिम अध्याय है।
संदर्भ
उषा चंद्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, प्रकाशन विभाग
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में