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अवध में 1857 की क्रांति के नायक राणा बेनी माधव सिह

अवध में राणा हुआ मरदाना।

पहली लड़ाई हुई बक्सर में, सिमरी के मंदाना।

हुआ से जाए पुरवा में जीता, तब लाट घबराना।

अवध में भाई, बहू और कुटुंब कबिला, सबका करो सलामा।

तुम तो गए मिटे गोरों से, हमको है भगवाना।

अवध में हाथ में माला, बगल सिरोही,

घोड़ा चले मस्ताना अवध में।

वनवाड़ा के लोकगीतों में आज भी 1857 की क्रांति के वीर योद्धा बेनी माधो सिंह की स्मृति अमिट है। राणा बेनी माधो सिंह किसी भी प्रलोभन के सम्मुख कभी नहीं झुके। वह जीवन के अंतिम क्षण तक अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ते रहे और अंततः लड़ाई के मैदान में ही वीरगति को प्राप्त हुए। अंग्रेज उन्हें अवध के तालुकदारों में ‘सबसे शक्तिशाली’ मानते थे।

कौन थे बेनी माधव सिंह

बेनी माधो सिंह के पूर्वजों का इतिहास बहुत प्राचीन है। यह इतिहास के प्रारंभिक काल में बैस नायक शालिवाहन से संबंधित था।

शंकरगढ़ के तालुकदार निःसंतान थे, इसलिए उन्होंने बेनी माधो सिंह को गोद ले लिया। वृद्धावस्था में भी बेनी माधो सिंह का व्यक्तित्व प्रभावशाली था। राजपूतों में बैसवाड़ा जाति के नायक माने जाते थे। उनके अधीन चार गढ़ थे। बेनी माधो सिंह का अपनी प्रजा के प्रति व्यवहार पितृवत था। उनकी प्रजा संतुष्ट और समृद्ध थी। शासन के दरबार में उनका प्रभाव था। नवाब वाजिद अली शाह ने उन्हें नाज़िम बनाया और ‘दिलेरजंग’ की उपाधि प्रदान की।

जिस समय बेनी माधो सिंह की स्थिति चरम सीमा पर थी, अंग्रेजों ने अपनी नई शासन-नीति के तहत उनसे 116 गांव छीन लिए। इस घटना से बेनी माधो सिंह को गहरा धक्का लगा और उनका मन अंग्रेजों के प्रति आक्रोश से भर उठा। क्रांति के आरंभ से ही उन्होंने उसमें उत्साहपूर्वक भाग लिया।

अवध के विद्रोह में  बेगम हजरत महल का साथ दिया बेनी माधव सिंह ने

बेगम हजरत महल और राणा बेनी माधव सिह
बेगम हजरत महल और राणा बेनी माधव सिह

मई 1858 के आसपास, बेनी माधो सिंह की सेना लखनऊ के निकट वनी क्षेत्र में एकत्रित थी। बेगम हजरत महल ने उन्हें आलमबाग के युद्ध में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था। हजरत महल ने समस्त जमींदारों से अंग्रेजों के विरुद्ध लड़ने का आह्वान किया और घोषणा की कि जो लोग राणा बेनी माधो सिंह की सहायता करेंगे तथा अपने 1,000 सैनिकों में से 50 सैनिक भेज देंगे, उनके पाँच वर्षों का आधा राज्य कर माफ कर दिया जाएगा।

राणा बेनी माधो सिंह अंग्रेजों का समूल नाश करने के लिए कृतसंकल्प थे। मई-जून 1858 में उन्होंने अंग्रेजों को बहराइच से बाहर निकाल दिया। उन्होंने लखनऊ में अंग्रेजों के विरुद्ध कई लड़ाइयों में भाग लिया। बेनीगाड़ के युद्ध में उन्होंने क्रांतिकारियों की सहायता की और वहाँ अपने 1,000 सवार भेजे।

ग्रांड ट्रंक रोड पर भी वे छापामार युद्ध करते थे। बेनी माधो सिंह छापामार युद्ध में विश्वास रखते थे। इस युद्ध पद्धति से उन्होंने अंग्रेजों को नाकों चने चबवा दिए थे।


भील आंदोलन के नायक मोतीलाल तेजावत


लखनऊ के पतन के उपरांत भी बेनी माधो सिंह ने पराजय स्वीकार नहीं की। उन्होंने दुगुने उत्साह के साथ क्रांति का संचालन अपने हाथ में ले लिया। लखनऊ के पतन के बाद भी प्रदेश के चौथाई हिस्से ने अपने हथियार नहीं डाले थे। जहाँ भी अंग्रेज अपने राजस्व अधिकारी या अन्य अधिकारियों को नियुक्त करते, बेनी माधो सिंह के साथी उन्हें तुरंत मार डालते। इस स्थिति में अंग्रेजों के लिए स्थायी शासन स्थापित करना असंभव था।

अग्रेजों ने बेनी माधव सिंह से सुलह की पेशकश भी की

अग्रेजों ने बेनी माधो सिंह के लिए एक पत्र भेजा जिसमें यह लिखा गया था:

राणा बेनी माधो सिंह को इंग्लैंड की साम्राज्ञी का घोषणा-पत्र भेजा जाता है। राणा को सूचित किया जाता है कि इस घोषणा-पत्र की शर्तों के अनुसार, यदि वे आज्ञाकारिता प्रदर्शित करेंगे, तो उनका जीवन सुरक्षित रहेगा। गवर्नर जनरल का विचार कठोर व्यवहार करने का नहीं है। लेकिन राणा बेनी माधो सिंह को यह ज्ञात होना चाहिए कि वे लंबे समय से सशस्त्र विद्रोह कर रहे हैं और कुछ समय पूर्व ही उन्होंने अंग्रेजों की सेनाओं पर आक्रमण किया है। अतः उन्हें अपने किले और तोपों को पूर्ण रूप से समर्पित करना होगा और अपने सैनिकों तथा सशस्त्र अनुयायियों के साथ अंग्रेज सैनिकों के समक्ष शस्त्र डालने होंगे। इसके उपरांत, उनके सैनिक और अनुयायी बिना दंड या हानि के अपने घर लौट सकेंगे।”

कैम्पबेल की सेनाएँ शकरपुर के जंगल से तीन मील दूर केशोपुर में रुकी हुई थीं। राणा बेनी माधो सिंह पर तीन दिशाओं से आक्रमण करने की योजना बनाई गई थी। कैम्पबेल का शिविर शकरपुर के पूर्वी ओर था। होपगाट की सेना उसके दाहिनी ओर, तीन मील की दूरी पर, तैनात थी। पश्चिम दिशा में, सिमरी की ओर से ब्रिगेडियर इवले की सेनाएँ आगे बढ़ रही थीं। अंग्रेज अधिकारी राजा के उत्तर का निरंतर इंतजार कर रहे थे।

15 नवंबर को सेनापति के पास राणा बेनी माधो सिंह के पुत्र का पत्र पहुँचा:

“मैंने आपका पत्र और घोषणा-पत्र प्राप्त कर लिया है। यदि अंग्रेज सरकार मेरे साथ भूमि का समझौता करेगी, तो मैं अपने पिता बेनी माधो सिंह को हटा दूँगा। वह निरंकुश स्वभाव के हैं और मैं ब्रिटिश सरकार का समर्थक हूँ। मैं अपने पिता के कारण नष्ट नहीं होना चाहता।”

हालाँकि, लगभग उसी समय अंग्रेज सेनापति को राणा बेनी माधो सिंह का दृढ़ उत्तर मिला:

“मैं किसी भी स्थिति में हथियार डालने को तैयार नहीं हूँ। मैंने वीराजिस कद्र की अधीनता स्वीकार की है, और मैं जीते-जी विश्वासघात नहीं करूंगा।”

राणा बेनी माधो सिंह और उनके पुत्र के पत्रों में विरोधाभास था। संभवतः क्रांतिकारी नेता अंग्रेजों को भ्रमित करने का प्रयास कर रहे थे। इन विरोधाभासी पत्रों के कारण अंग्रेज किसी ठोस निर्णय पर नहीं पहुँच सके।

दूत, जो राणा के पास पत्र लेकर गया था, ने सूचना दी कि उस समय राणा बेनी माधो सिंह के पास 4,000 सैनिक, 2,000 घोड़े, और 40 तोपें थीं। यह सुनकर अंग्रेज अधिकारी पूरी सतर्कता से युद्ध की तैयारियों में जुट गए। उन्हें डर था कि राणा कहीं अचानक उन पर आक्रमण न कर दें।


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स्वतंत्रता के लिए शहादत का रास्ता चुना बेनी माधव सिंह ने

16 नवंबर की रात को राणा ने अपना किला खाली कर दिया और तोपों को साथ लेकर वहाँ से निकल गए। अंग्रेज अधिकारियों को सूचना मिली कि राणा बेनी माधो सिंह रायबरेली की ओर बढ़ गए हैं। ब्रिगेडियर इवले ने उनका पीछा किया। राणा आगे बढ़ते हुए डोडिया सेड़ा पहुँचे, जहाँ बाबू रामबख्श सिंह का गढ़ था। बाबू रामबख्श सिंह अंग्रेजों के विरुद्ध थे, और उनके किले को अंग्रेजों ने पहले ही क्षतिग्रस्त कर दिया था।

राणा डोडिया सेड़ा में पहुँचे, और ब्रिगेडियर इवले भी वहाँ आ पहुँचे। लार्ड क्लाइव की सेना भी डोडिया खेड़ा पहुँच गई। इस समय राणा के पास 7,500 सैनिक और घुड़सवार थे, तथा उन्होंने 8 तोपें किले पर तैनात कर रखी थीं। इस क्षेत्र में घना जंगल था। राणा ने सुरक्षा के लिए जंगल के बाहर एक खाई खुदवा रखी थी।

अंग्रेजों ने एक बार फिर समझौते का प्रस्ताव भेजा, लेकिन राणा ने साफ इनकार कर दिया। 24 नवंबर को अंग्रेज सेना घने जंगलों के रास्ते किले की ओर बढ़ी। राणा के सैनिकों ने भारी गोलाबारी की। घमासान युद्ध हुआ, लेकिन अंततः राणा की सेना को पराजय का सामना करना पड़ा। राणा किसी तरह बचकर गंगा पार कर गए और अवध को हमेशा के लिए छोड़ दिया।

बैसवाड़ा पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। अंग्रेजों को सूचना मिली कि राणा वितौली के किले में मौजूद हैं। उन्होंने वहाँ भी पीछा किया, लेकिन राणा फिर से बच निकले।

जब कैम्पबेल को यह सूचना मिली कि राणा बेनी माधो सिंह नाना साहब की सेना के साथ नानपारा के उत्तर में वकी नामक स्थान पर हैं, तो उसने हमला किया। वहाँ से एक सड़क राप्ती की ओर जाती थी और दूसरी नेपाल के सुनार घाटी की ओर। युद्ध में पराजित होकर राणा अपनी सेना सहित नेपाल चले गए और वहाँ बेगम हजरत महल तथा अन्य क्रांतिकारियों से मिले।

राणा बेनी माधो सिंह ने देश और बेगम हजरत महल के लिए अपना घर सदा के लिए छोड़ दिया। नेपाल में उन्हें भयंकर कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। वे भुटवल, नायकोट, चितवन आदि स्थानों पर भटकते रहे। कभी-कभी सैनिकों को भोजन खरीदने के लिए अपने हथियार तक बेचने पड़ते थे।

नेपाल के राणा जंग बहादुर ने न केवल उनकी सहायता से इनकार कर दिया, बल्कि उनके खिलाफ अपनी सेना भेज दी। लड़ाई में राणा बेनी माधो सिंह शहीद हो गए, और इस तरह एक महान देशभक्त का अंत हो गया।


संदर्भ

उषा चंद्रा, सन सत्तावन के भूले-बिसरे शहीद, प्रकाशन विभाग

Ram Nath Singh, Rana Beni Madhav,Scientific Publishers

 

Editor, The Credible History

जनता का इतिहास, जनता की भाषा में

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