मानगढ़ जनसंहार: इतिहास में दफन सबसे बड़ी कुर्बानी
आदिवासी सदा से त्याग, तपस्या, बलिदान, ज्ञान, वैराग्य, राष्ट्रभक्ति, सच्चाई, कर्तव्य पालन, अतिथि सत्कार, संरक्षण और निष्कपट सेवाभाव जैसे गुणों से सम्पन्न रहे हैं। देश की रक्षा के लिए उनके पराक्रम और बलिदान की गाथाएँ स्वतंत्र भारत के राष्ट्रीय और सामाजिक जीवन के इतिहास की अमूल्य धरोहर हैं।
रानी दुर्गावती का बलिदान, मेवाड़ के पूंजा भील और हल्दीघाटी के युद्ध में राणा प्रताप की भील सेना के बलिदान का महत्व अनमोल और अतुलनीय है। छत्रपति शिवाजी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने वाले भीलों को शिवाजी द्वारा दुर्ग-व्यवस्था और सुरक्षा का दायित्व सौंपा जाना उनके प्रति शिवाजी के अटूट विश्वास का प्रतीक है।
वागड़ की मानगढ़ पहाड़ी पर 1913 में 1500 से अधिक भीलों का बलिदान राष्ट्रभक्ति का अप्रतिम उदाहरण है। इसके बावजूद मानव संग्रहालयों में आदिवासियों का उपहास किया जाना अत्यंत दुखद है।
मानगढ़ के चारों ओर उस समय अनेक छोटी-छोटी रियासतें थीं, जिनमें बाँसवाड़ा, कुशलगढ़, डूंगरपुर, सिरोही, सन्तरामपुर, ईडर आदि प्रमुख थीं। इन रियासतों में भीलों की बड़ी आबादी निवास करती थी। मालवा क्षेत्र भी इस इलाके से जुड़ा था और यहाँ भी भीलों की पर्याप्त बस्तियाँ थीं।
इन रियासतों के राजाओं के अत्याचार, उत्पीड़न, दमन और शोषण से त्रस्त होकर 17 नवम्बर 1913 को भील लोग मानगढ़ पहाड़ पर एकत्र हुए। इसी समय अंग्रेजी सेना ने उन पर तोपों और बंदूकों से अंधाधुंध गोलाबारी की, जिसमें 1500 से अधिक भील लोग शहीद हो गए। यह पहाड़ भीलों की शहादत स्थली है और उनकी अमर गाथाओं का प्रतीक है।
भीलों के नायक गोविन्द गुरु
भारत में अंग्रेज़ी शासन से पूर्व वनांचल के भील राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से स्वायत्त थे। उनकी न्याय-व्यवस्था पंचायती पद्धति पर आधारित थी। प्रत्येक कबीले का नेतृत्व उनके मुखिया, सरदार, गमेती और पटेल करते थे, जिनके मार्गदर्शन में उनका दैनिक जीवन संचालित होता था। आर्थिक दृष्टि से वे प्रायः आत्मनिर्भर थे।
परंतु देशी रियासतों के शासकों और अंग्रेज़ी शासन के अधीन लागू दंडनीति एवं अर्थव्यवस्था ने उनकी स्वायत्तता को समाप्त कर दिया। इस प्रणाली ने न केवल उन्हें आर्थिक रूप से कमजोर किया, बल्कि देशी रियासतों के शासकों द्वारा शोषण और उत्पीड़न की प्रक्रिया को भी बढ़ावा दिया। इन शासकों ने अंग्रेजों के फरमाबरदार और कमीशन एजेंट के रूप में भीलों का दमन करना शुरू कर दिया।
त्रस्त भीलों को गोविन्द गुरु के रूप में एक महानायक प्राप्त हुआ। “भीलों के भगवान” के रूप में प्रसिद्ध महान संत और मानगढ़ क्रांति के नायक गोविन्द गुरु का जन्म 20 दिसंबर 1858 को डूंगरपुर रियासत के बाँसिया ग्राम में एक बंजारा परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम लाटकी और पिता का नाम बेचर था। बचपन में उन्हें सभी गोविन्द कहकर पुकारते थे। वह कुशाग्र बुद्धि और असाधारण व्यक्तित्व के धनी थे।
1882-83 में उदयपुर प्रवास के दौरान, गोविन्द गुरु ने स्वामी दयानंद सरस्वती से भेंट की और उन्हें भीलों की पीड़ा बताई। स्वामीजी की प्रेरणा और मार्गदर्शन से गोविन्द गुरु ने भीलों में समाज सुधार और जनजागृति का अभियान शुरू किया। उनके नेतृत्व में ही भीलों ने 1913 में वागड़ की मानगढ़ पहाड़ी पर एक क्रांति की, जिसमें 1500 से अधिक भील शहीद हो गए।
क्रांति के बाद गोविन्द गुरु गुजरात के झालोद के पास कम्बोई नामक स्थान पर बस गए। यहीं पर उन्होंने अपना समाज सुधार का कार्य जारी रखा। 30 अक्टूबर 1931 को उनका निधन हुआ। कम्बोई में उनकी समाधि स्थित है, जहाँ हर वर्ष हजारों भील भगत श्रद्धांजलि अर्पित करने एकत्रित होते हैं।
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मानगढ़ जनसंहार, जो इतिहास में दर्ज नहीं हो सका
गोविन्द गुरु ने समाज सुधार के साथ-साथ सामंती शोषण के सामूहिक विरोध के लिए 1903 में “सम्प सभा” नामक संगठन की स्थापना की। इसका पहला अधिवेशन उसी वर्ष मानगढ़ पर्वत पर आयोजित किया गया।सम्प सभा के क्रमबद्ध अधिवेशनों और भजन मंडलियों के माध्यम से गोविन्द गुरु के उपदेशों ने भील समाज में जागरूकता लानी शुरू की। समाज एकता के सूत्र में बँधने लगा, और शोषण एवं अत्याचार के विरुद्ध लाखों भील गुरु के अनुयायी बनकर संगठित हो गए। इस एकजुटता के कारण वागड़ और आस-पास की देशी रियासतों को राजस्व में भारी घाटा होने लगा।
1913 में मानगढ़ पहाड़ी पर गोविन्द गुरु के नेतृत्व में सम्प सभा का वार्षिक अधिवेशन आयोजित हुआ, जिसमें लाखों अनुयायियों ने भाग लिया। इस विशाल जनसमूह को देखकर देशी रियासतों के शासकों ने अंग्रेज़ सरकार को यह कहकर भड़काया कि गोविन्द गुरु भीलों को संगठित कर रियासतों पर अधिकार जमाने का प्रयास कर रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि मानगढ़ पर जमा भील विद्रोह की योजना बना रहे हैं।
इस अवसर का लाभ उठाने के लिए तत्पर अंग्रेज़ सरकार ने देसी रियासतों के शासकों के साथ मिलकर 10 नवंबर 1913 को मानगढ़ पहाड़ी को चारों तरफ से घेर लिया। इस अभियान में संतरामपुर के ठाकुर, कडाना के ठाकुर भीमसिंह, और गढ़ी के राव हिम्मतसिंह ने भी भाग लिया। सेना ने पहाड़ी पर एकत्रित लोगों से तुरंत पहाड़ी खाली करने की चेतावनी दी।
17 नवंबर 1913 की सुबह, अंग्रेज़ सरकार और देसी रियासतों की सेना ने भजन-कीर्तन में निमग्न निहत्थे भील भक्तों पर बिना चेतावनी के तोपों और बंदूकों से अंधाधुंध गोलाबारी कर दी। इस क्रूर सैनिक कार्रवाई में हजारों भीलों की निर्मम हत्या कर दी गई, जिसे मानगढ़ हत्याकांड के रूप में जाना जाता है।
सरकारी आँकड़ों के अनुसार, मानगढ़ नरसंहार में लगभग 1500 लोग मारे गए। हालांकि, जनश्रुतियों के अनुसार शहीदों की संख्या कई हजारों में बताई जाती है। उस समय जितने शव घटनास्थल पर पड़े रहे, उनकी ही अनुमानित गणना के आधार पर आँकड़े प्रस्तुत किए गए।
इस भयंकर नरसंहार के दौरान भागते हुए लोग अपने घायल या मृत रिश्तेदारों को उठाकर ले गए। दंडात्मक कार्रवाई से बचने के लिए कई लोगों ने मृतकों के शवों को जमीन में गाड़ दिया ताकि परिवार की पहचान न की जा सके।
गोविन्द गुरु को भी इस घटना में गोली लगी और उन्हें उनके प्रमुख शिष्यों सहित गिरफ्तार कर अहमदाबाद की जेल में डाल दिया गया। उन्हें फाँसी की सजा सुनाई गई, लेकिन उनकी लोकप्रियता के कारण विद्रोह भड़कने की आशंका से यह सजा आजीवन कारावास और बाद में 7 साल की सजा में बदल दी गई।
जेल से रिहा होने के बाद भी गोविन्द गुरु का समाज सुधार और जागृति का अभियान जारी रहा। उनके राजस्थान में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया गया, जिसके कारण उन्होंने गुजरात के झालोद के पास कम्बोई नामक स्थान को अपनी कर्मभूमि बनाया। वहीं रहकर वे मृत्युपर्यन्त समाजसेवा का कार्य करते रहे। कम्बोई में उनकी समाधि स्थित है, जो आज भी श्रद्धालुओं के लिए प्रेरणा का केंद्र है।
संदर्भ
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में