जब महादेवी वर्मा ने कहा- फ़िराक़ औघड़ स्वभाव के हैं
फ़िराक़ गोरखपुरी की बातों या उनके विचारों को जब तक पानी की तरह छानकर न ग्रहण किया जाए, ख़तरे की संभावना बनी रहती है। ऐसा इसलिए नहीं कि उनकी बातों या विचारों में ख़तरे के कीटाणु छिपे होते थे, बल्कि इसलिए कि फ़िराक़ अक्सर दरमियानी मंजिलों को छोड़कर आखिरी मंजिल की उन ऊँचाइयों से बोलते थे, जहाँ साधारण साहित्य-प्रेमी पहुँच नहीं पाते।
जब महादेवी वर्मा ने कहा- फ़िराक़ औघड़ स्वभाव के हैं
फ़िराक़, एक सच्चे अध्यापक के रूप में, हर बात को बड़े सलीके और ध्यान से समझाने की कला में निपुण थे। एक बार हीरोज़ क्लब की ओर से हिन्दुस्तानी अकादमी में फ़िराक़ की सालगिरह मनाई गई। उस समारोह में पंतजी और महादेवीजी भी उपस्थित थे। वह एक अद्भुत संगम था, जहाँ साहित्य-प्रेमी, कला और ज्ञान की त्रिवेणी में गोते लगा रहे थे।
अपने भाषण में महादेवीजी ने फ़िराक़ को महान साहित्यकार और यशस्वी कवि बताने के साथ-साथ उनके व्यक्तित्व और स्वभाव के बारे में यह भी कहा कि गोरखपुर में जन्म लेने के कारण उनके व्यक्तित्व और स्वभाव में बाबा गोरखनाथ और कबीर का औघड़पन भी आ गया है। (गोरखपुर और बनारस एक-दूसरे से सटे हुए हैं।) महादेवीजी ने यह भी जोड़ा कि एक तरह से फ़िराक़ औघड़ स्वभाव के हैं।
दूसरे दिन फ़िराक़ के निवास स्थान पर कुछ लोग बैठे हुए थे। किसी ने उनसे पूछा, “फ़िराक़ साहब, महादेवीजी के बारे में आपका क्या ख़याल है?” उस समय फ़िराक़ कुछ गुनगुना रहे थे। चौंककर बोले, “हटाइए साहब! मेरे पास ऐसे सवालों के लिए फुर्सत नहीं है। मैं कुछ सोच रहा था, और आप बीच में कूद पड़े। सवाल पूछने का भी एक वक्त होता है। मैं दर्द में कराह रहा हूँ, और आप मेघदूत लिए बैठे हैं। आपका पूछना सही हो सकता है, लेकिन आपने सही वक्त नहीं चुना।
जब फ़िराक़ से महादेवी वर्मा के बारे में पूछा गया
खैर, अब बात बिगड़ ही गई है तो पूछ लीजिए। बताइए, क्या पूछ रहे थे?” फिर बड़ी दबी ज़बान से पूछा, “फ़िराक़ साहब, आप महादेवीजी के विषय में क्या ख़याल रखते हैं ?” कुछ नहीं फ़िराक़ ने कहा।
“हाँ तो, आप महादेवीजी के विषय में मेरे विचार जानना चाहते हैं। आपने बड़ी मुश्किल में डाल दिया। महादेवीजी बहुत अच्छी कविता करती हैं। उनके पास एक प्रबल काव्य-चेतना है। महादेवीजी का जीवन सुकरात के ज़हर पीने की कहानी जैसा है।
कोई जानता हो या न जानता हो, लेकिन उनके चेहरे पर उनकी अन्तर्व्यथा की एक रागिनी हमेशा गूँजती रहती है। विषपान तो करना ही पड़ता है, और महादेवी को भी करना पड़ा। खैर, छोड़िए इन बातों को। जाइए, मिल आइए महादेवीजी से।”
कई दिनों बाद मैंने फ़िराक़ को बहुत प्रसन्न मुद्रा में देखकर पूछा, “आपने उस दिन कहा था कि महादेवीजी को विषपान करना पड़ा। ऐसा क्यों?”
फ़िराक़ ने अपनी आँखों के गोल-गोल ढेलों को घुमाते हुए समझाना शुरू किया, “अरे भई, ज़हर का अर्थ है ज़हराब-ए-हयात, यानी जीवन का विष। उनके चेहरे को ग़ौर से देखो—हलाहल पर क़ाबू पाने वाला चेहरा है। कितना संजीदा, कितना बाल-सुलभ और कितना आशीर्वादात्मक चेहरा। महादेवी के भीतर कई महाभारत की लड़ाइयाँ एक साथ चलती रहती हैं, लेकिन उनके चेहरे पर हमेशा शान्ति पर्व ही दिखाई देगा।”
महादेवीजी की कविता पर फ़िराक क्या सोचते थे
एक दिन मैंने उनसे साहस बटोरकर पूछा। साहस इसलिए कि हिन्दी-उर्दू के प्रश्न पर फ़िराक़ कब उखड़ जाएँ, इसका कोई ठिकाना नहीं। मैंने पूछा, “फ़िराक़ साहब! महादेवीजी की कविता के विषय में आपकी क्या राय है, और वे किस हद तक एक सफल कलाकार हैं?”
फ़िराक़ ने बहुत अच्छे मूड में जवाब देना शुरू किया, “महादेवीजी सर से पैर तक कविता ही कविता हैं। वे सौ फ़ीसदी कवि हैं।कवि की पहचान केवल कविता से नहीं होती। उसका उठना-बैठना, बात करना, गुस्सा करना, आत्मविश्वास, और कभी-कभी उसकी अकड़; लोगों से तपाक से मिलना और बिना ज़रूरत दूरी बनाना—यह सब भी शायरी है। अगर तुम महादेवीजी के पास बैठो, तो महसूस करोगे कि तुम कविता के पास बैठे होऔर यह भी अनुभव करोगे कि तुम पहले से कहीं बेहतर इंसान बन गए हो।
महान कलाकार और एक साधारण व्यक्ति के पानी माँगने के अंदाज़ में फ़र्क होता है। महादेवी के जीवन और उनकी शायरी में एक रहस्यमयता का अचेतन प्रवाह है, जो अबाध गति से सबकुछ बहाए लिए चलता है। उनकी पेंटिंग्स देखी हैं? कितने गम्भीर और रहस्यमय सौंदर्य की आकृतियाँ उभरती हैं उनके चित्रों में। उनमें अथाह कम्पन और अथाह शांति का अनोखा संतुलन होता है।
हाँ, एक कमी खटकती है—वह है भाषा की। ऐसा लगता है जैसे कविता की देवी के कोमल कदम चलते-चलते ठोकर खा जाएँ। कहीं-कहीं भाषा खटकती है। जैसे, ‘निशा की धो देता राकेश चाँदनी में जब अलकें खोल।’ ‘निशा की’ एक तरफ़ और ‘अलकें’ दूसरी तरफ़। बात इस तरह नहीं बनती।”
“किन्तु जहाँ तक कवित्व शक्ति का प्रश्न है, महादेवीजी उसी परम्परा से सम्बन्ध रखती हैं जिसमें कालिदास, सूर और मीरा शामिल हैं। काल, भाषा और शैली में असमानता के बावजूद, इनमें एक गहरी समानता है जिसे वर्ड्सवर्थ के शब्दों में ‘केप्ट वॉच ओवर मैन’स मॉरटैलिटी’ कहा जा सकता है। कविता का जीवन अनन्त होता है।”
जब फ़िराक़ ने कहा- अनुकरण करना पाप है। स्वधर्म पालन ही सबसे परम धर्म है
एक दूसरे अवसर पर, मैंने महादेवीजी की कविता की प्रशंसा करते हुए कहा कि “महादेवीजी की कविता कृष्ण की बाँसुरी का सुरीलापन है।”
बात काटते हुए फ़िराक़ बिगड़कर बोले, “किसी बात को बिगाड़कर कहना आपका मज़हब है। आप मेरी शैली में बोलने की कोशिश न करें। अपनी भाषा और अपनी शैली में बात करें। अपने व्यक्तित्व को सँभालकर रखें। अनुकरण करना पाप है। स्वधर्म पालन ही सबसे परम धर्म है।
क्या आपने कृष्ण की बाँसुरी सुनी है? अगर नहीं सुनी है, तो कैसे कह सकते हैं कि महादेवी की कविता में कृष्ण की बाँसुरी का सुरीलापन है? कहाँ कृष्ण की बाँसुरी का राग, और कहाँ महादेवी या किसी अन्य कवि की कविता। सुना है कि कृष्ण की बाँसुरी पशुओं और वनस्पतियों तक को बेचैन कर देती थी। उसका नाद जड़-चेतन सभी को प्रभावित करने की शक्ति रखता था। कृष्ण की बाँसुरी का राग आज तक कोई दूसरा व्यक्ति, यहाँ तक कि कोई अवतार भी, नहीं निकाल सका।
हाँ, अगर कविता का जोश आपके भीतर उमड़ रहा है, तो कह लीजिए कि महादेवी की कविता किसी बाँसुरी में सुषुप्त रागिनी है। उनकी कविता मौन का चित्र है, और वे स्वयं एक मूक साधना।”
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अगर महादेवीजी उर्दू भी अच्छी तरह जानतीं, तो कितना अच्छा होता
एक बार उर्दू के मशहूर शायर जनाब फैज़ अहमद ‘फैज़’ इलाहाबाद तशरीफ़ लाए। उनके सम्मान में प्रयाग विश्वविद्यालय में एक समारोह आयोजित किया गया। इस अवसर पर महादेवीजी और फ़िराक़जी दोनों उपस्थित थे।
फ़िराक़ ने अपने वक्तव्य में भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करते हुए कहा, “भारतीय संस्कृति पीपल के कोमल किसलय की भाँति मृदुल, स्निग्ध और लचकदार है। यही सरलता, कोमलता और लचीलापन महादेवी के काव्य में भी रच-बस गया है और आशीर्वाद बनकर काव्य-प्रेमियों को अनन्त जीवन की स्पर्शानुभूति का सुख देता है।”
समारोह समाप्त होने के बाद, फ़िराक़ घर आकर कहने लगे, “अगर संस्कृत के साथ ही महादेवीजी उर्दू भी अच्छी तरह जानतीं, तो कितना अच्छा होता।”मैंने कहा, “फ़िराक़ साहब, कितना अच्छा होता अगर आप भी महादेवीजी की तरह संस्कृत जानते होते।”
यह सुनकर फ़िराक़ तेज़ हो गए। “मेरा संस्कृत भाषा न जानना बहुत बड़ी कमी नहीं है। पूरा संस्कृत वायुमण्डल और पर्यावरण मेरी अन्तर्चेतना के एक-एक कण में बसा हुआ है। मैंने पूरा संस्कृत साहित्य अंग्रेज़ी के माध्यम से पढ़ा है, एक सुसंस्कृत मस्तिष्क के साथ। क्या तुलसीदास को पढ़ने और सुनने के बाद कुछ और पढ़ने को रह जाता है? कितने हिन्दी कवि और लेखक हैं जो संस्कृत अच्छी तरह जानते हैं?
वेद, उपनिषद, गीता, पुराण, ब्राह्मण स्मृतियाँ—सारा संस्कृत वाङ्गमय पढ़ चुके हैं? इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के नब्बे फ़ीसदी प्रोफेसर संस्कृत समझना तो दूर, शुद्ध रूप से गीता भी नहीं पढ़ सकते। यह एक भ्रम है कि हिन्दी का कवि और लेखक संस्कृत भी अच्छी तरह जानता है। जो जानता है, वह इसलिए नहीं जानता कि वह हिन्दी का लेखक है।
रमेश, तुम देखते नहीं मेरी कविता पर संस्कृत का कितना गहरा मेघमण्डल मँडला रहा है? संस्कृत सशक्त वर्षा ऋतु की तरह है। उसके प्रभाव से बचा ही नहीं जा सकता। मुझे और मेरी शायरी को उससे जीवनदायिनी शक्ति मिलती है। सुनो, मेरा एक शेर।”
किसी को चश्मे सियह के पयाम लाए हैं
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महादेवी के भीतर एक द्वन्द्व का तूफ़ान हमेशा उठता रहता है
“रमेश, यार चलो किसी दिन महादेवीजी के यहाँ हो आएँ। तुम्हें खाने के लिए अच्छी मिठाइयाँ मिलेंगी।” कुछ देर चुप रहकर फ़िराक़ फिर बोले, “एक बात हमेशा मेरे दिमाग में खटकती रहती है।
जब भी मैं महादेवीजी को देखता हूँ, उनके चेहरे पर अनेक कवित्वमय भाव, करुणा, विद्रोह, ममता, स्निग्धता, और विद्वत्ता के साथ संस्कृत भाषा और साहित्य से उपजे देवीप्रकाश की झलक दिखती है। लेकिन, इसके साथ-साथ एक और भाव भी है—एक धुँधली, बहुत धुँधली रेखा। ऐसा लगता है जैसे वे हर पल कुछ छिपाने का, कुछ भूल जाने का, या कुछ याद करके उससे दूर रहने का प्रयास कर रही हों। जैसे वे किसी दुःख, किसी क्रौंच-वध या किसी ऐसी भूल को, जिसे अचेतन मन ने कर दिया हो, पूजा के माध्यम से पवित्र करने में लगी रहती हों।
मुझे लगता है, उनके भीतर एक द्वन्द्व का तूफ़ान हमेशा उठता रहता है। उनके जीवन-सागर की करोड़ों लहरों में कभी-कभी एक ऐसी लहर की झलक मिलती है, जो सुई की नोक या काँटे की तरह समुद्र के हृदय में खटकती है। उनकी सारी साधना उसी काँटे को निकालने का प्रयास है।
मुझे लगता है, महादेवी के हृदय में चुभा यह काँटा हर दिल का काँटा है, जो हमेशा मीठी-मीठी चुभन पैदा करता है। शायद, इसके पीछे करुणा का कोई अपार सिंधु लहरा रहा हो। पर, किसी के बारे में निश्चित तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता। हो सकता है यह सब मेरा भ्रम ही हो।”
संदर्भ
रमेशचंद्र द्विवेदी, मैने फिराक़ को देखा था, वाणी प्रकाशन, 1997
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में