मुजफ्फरपुर के वारिस अली का विद्रोह और शहादत
मुजफ्फरपुर में जून के महीने से ही सरगर्मी शुरू हो गई थी। यूरोपियन प्लांटर आतंकित हो गए थे और उनके अंदर डर समा गया था। शहर के बनिए भी डरे हुए थे। 14 जून को यूरोपियनों ने एक गुप्त बैठक की। प्लांटर सुरक्षित ठिकानों पर लौटने का विचार कर रहे थे। प्रशासन खतरे को भाँपते हुए सक्रिय हो गया। मजिस्ट्रेट ने स्थिति को देखते हुए अतिरिक्त पुलिस बल की व्यवस्था की योजना बनाई। कम्पनी राज के विरोधियों को काबू में रखने के लिए तैयारियाँ चल रही थीं, जिन्हें अंग्रेज “बैड एलिमेंट” कहते थे।
विद्रोह के शुरुआती दौर में दमनचक्र की शुरुआत तिरहुत जिले के जमादार वारिस अली से हुई। उसे गिरफ्तार कर लिया गया। जून के तीसरे सप्ताह में खुफिया जानकारी मिली कि तिरहुत के जमादार वारिस अली का पटना के विभिन्न मुसलमानों के साथ राजद्रोहात्मक पत्र व्यवहार हो रहा है। नौजवान सहायक मजिस्ट्रेट आर. रॉबर्टसन को वारिस अली की निगरानी के लिए भेजा गया। उसने अपने साथ अर्कहर्ट, बाल्डविन, हॉलवे और प्राट को चुना। रॉबर्टसन के अनुसार, ये सभी शांत लेकिन लड़ाकू स्वभाव के थे और हथियारों से लैस थे।
एक दिन उन्होंने बाल्डविन की फैक्टरी में, जो पुलिस चौकी से तीन मील दूर थी, योजना बनाई और चौकी की ओर चल पड़े। वहाँ से उन्होंने अचानक वारिस अली के क्वार्टर पर धावा बोला। उस समय वारिस अली पटना और गया के बीच रहने वाले अली करीम को हुकूमत के खिलाफ विद्रोह से संबंधित पत्र लिख रहे थे। उनकी सम्पत्ति जब्त कर ली गई और उनके क्वार्टर से कई पत्र बरामद हुए। वारिस अली प्रतिरोध के लिए तैयार हो गए, लेकिन रॉबर्टसन ने उन्हें काबू में कर लिया। बैलगाड़ी तैयार थी, जिसमें उनके क्वार्टर का सारा सामान लाद दिया गया, यहाँ तक कि खाना बनाने के बर्तन भी।
यह गिरफ्तारी 23 जून, 1857 को हुई। बरामद पत्रों से उनके अली करीम और वहाबी आंदोलन के स्थानीय नेताओं के साथ सम्बन्धों की पुष्टि हुई। उनका पटना के पीर अली के साथ भी सम्बन्ध था। वारिस अली का संबंध दिल्ली के शाही खानदान से भी था। इन पत्रों से सरकार को समझते देर नहीं लगी कि तख्ता पलटने का षड्यंत्र रचा जा रहा था।
23 जून की सुबह पटना के कमिश्नर विलियम टेलर अभी बिस्तर पर ही थे, जब उन्हें तिरहुत के मजिस्ट्रेट रिचर्डसन की चिट्ठी मिली, जिसमें पुलिस जमादार की गिरफ्तारी का विवरण था। वारिस अली से जो पत्र मिले थे, उनमें कूट भाषा का प्रयोग किया गया था। उस पत्र का उल्लेख विलियम टेलर ने अपनी पुस्तिका ‘आवर क्राइसिस’ में किया है, जिसमें लिखा था:
“मेरे ख्वाबों का पुलाव लगभग पककर तैयार हो चुका है। यह शीघ्र ही तैयार हो जाएगा। तब मैं तुम लोगों को बुलाऊँगा और इसे खिलाऊँगा। हर हालत में तुम्हें तैयार रहना है। विभिन्न स्थानों से कई मित्र इसे पकाने और खाने के लिए इकट्ठा हो चुके हैं। मैं भी किसी दूसरी जगह से अपने ख्वाबों का पुलाव पकाने आऊँगा। यहाँ पटना में दिन-रात ख्वाबों के पुलाव पर ध्यान दिया जा रहा है।”
वारिस अली का विद्रोह और शहादत
वारिस अली को गिरफ्तार कर पहले तिरहुत के मोतिहारी और फिर दानापुर भेजा गया। तिरहुत के मजिस्ट्रेट एच. रिचर्डसन ने 29 जून को सरकार के सचिव ए. आर. यंग को लिखे अपने पत्र में कहा कि उन्हें मेजर होम्स के पास फाँसी के लिए भेज दिया गया था। लेकिन समस्या यह थी कि मार्शल लॉ अभी लागू नहीं किया गया था, इसलिए उन्हें दानापुर में मुकदमा चलाने के लिए भेजा गया। पीर अली को फाँसी दिए जाने से एक दिन पहले, छह जुलाई को, वारिस अली को फाँसी पर लटका दिया गया। उन्हें पटना में फाँसी दी गई।
23 जून से 6 जुलाई, 1857 के बीच पटना के रेवेन्यू कमिश्नर और मजिस्ट्रेट के आदेश पर दस विद्रोहियों को फाँसी दी गई, जिनमें बरुराज थाना, तिरहुत के जमादार वारिस अली भी शामिल थे। फाँसी से पहले वह धार्मिक किताबों के साथ इबादत में मग्न थे। जब उन्हें फाँसी दी जा रही थी, तो उन्होंने जोर से कहा, “है कोई दिल्ली के राजा का दोस्त, तो सामने आए और मेरी मदद करे!” निश्चित रूप से वारिस अली के संबंध पीर अली और अली करीम से थे। वे बिहार में विद्रोह का बिगुल बजाने वाले प्रमुख नेताओं में से एक थे। उन्होंने एक शहीद की मौत को गले लगाया।
वारिस अली की गिरफ्तारी के बाद, 3 जुलाई 1857 को, मुजफ्फरपुर के कलेक्टर रिचर्डसन ने पटना के कमिश्नर को सूचित किया कि बागियों और विश्वासघातियों को पकड़ने के लिए कदम उठाए गए:
- घटवारों को आदेश दिया गया है कि उनके घाट से गुजरने वाले किसी भी सिपाही या संदिग्ध व्यक्ति को पकड़ लिया जाए।
- गंगा और गंडक नदियों के सभी जमींदारी घाटों को बंद करने का आदेश दिया गया है।
- प्रत्येक घाट पर एक दफादार और एक बरकंदाज तैनात किया गया है।
- निलहे साहबों को इन कार्यों में सहयोग करने के लिए निर्देशित किया गया है।
- बागियों को पकड़ने के लिए इनाम की घोषणा की गई है।
- खास स्थानों पर अतिरिक्त पुलिस बल की व्यवस्था की गई है। गंडक के आठ घाटों पर प्रत्येक के लिए एक दफादार और तीन बरकंदाज, लालगंज थाना के लिए पाँच बरकंदाज, हाजीपुर के लिए तीन बरकंदाज, और मुजफ्फरपुर शहर के लिए एक अतिरिक्त जमादार, चार अतिरिक्त सवार, और चौबीस बरकंदाज तैनात किए गए हैं।
सुगौली और दानापुर में विद्रोह की घटनाओं के बाद तिरहुत में खतरे की आशंका थी। 29 जुलाई को तिरहुत के इंडिगो प्लांटरों—चास स्वेन, जॉसण्जी बेग, डब्ल्यू. एम. बाल्डविन, आर. यू. कुक, टी. सी. लेथद्रिगेड, जे. यू. बेग, चार्ल्स पैसंस, डी. यू. मैकफर्लिन, हेनरी ब्राउन और डब्ल्यू. स्पेंस—ने दानापुर जनरल कमांड को पत्र लिखा। पत्र में तिरहुत की स्थिति की जानकारी दी गई थी। उन्होंने बताया कि ट्रेजरी पर खतरा है और सरकार पूसा में सिमट गई है, जहाँ तिरहुत में रहने वाले सभी यूरोपियनों ने शरण ली हुई है। जिले की सभी इंडिगो फैक्टरियाँ जला दी गई हैं और नष्ट कर दी गई हैं।
यूरोपियन अधिकारियों और प्लांटरों ने पूसा में सिम्पसन के आवास में शरण ले रखी थी
इस जिले का माहौल कुछ अलग था। तिरहुत के सभी यूरोपियन अधिकारियों और प्लांटरों ने पूसा में सिम्पसन के आवास में शरण ले रखी थी। रात को वे सिम्पसन के आवास की चारदीवारी के भीतर एक टेंट में सोए। कुल 85 पुरुषों और 30 महिलाओं ने सिम्पसन और वेस्टर्न के आवासों में रात बिताई। उनके साथ 35 बच्चे भी थे। महिलाएँ और बच्चे पाँच-छह कमरों में ठसाठस भरे हुए थे, जबकि पुरुषों ने बरामदों में शरण ली थी। मैकडोनियल और कुछ अन्य लोगों ने असिस्टेंट जज के आवास में रात बिताई। आवास के बाहर रातभर पहरा दिया गया। सभी प्लांटरों के अपने-अपने घर लौटने के बाद भी महिलाएँ वहीं रहीं।
खतरे की आशंका को देखते हुए, तिरहुत के जज और कलेक्टर ने सभी इंडिगो प्लांटरों को सुरक्षित ठिकानों पर जाने का निर्देश दिया। तिरहुत में शुक्रवार, 31 जुलाई 1857 को, सरकारी अधिकारियों और यूरोपियनों ने मुजफ्फरपुर छोड़ दिया। वे अपने बाल-बच्चों सहित पटना और दानापुर की ओर रवाना हो गए। मुजफ्फरपुर के कलेक्टर और अफिसिएटिंग मजिस्ट्रेट ई. लाटूर ने दानापुर जाने वाले अंग्रेजों को रोकने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सके। उस दिन मुजफ्फरपुर छोड़ते समय संयुक्त मजिस्ट्रेट रेक्स वहीं मौजूद थे। 12वीं पैदल सेना भी वहाँ थी। रविवार को विद्रोहियों ने गंडक नदी पार की। उनमें से कई घायल थे, और कुछ मारे भी गए। रेक्स की पुलिस ने घाट पर कुछ विद्रोहियों को गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तार किए गए विद्रोहियों को मंगलवार को फाँसी की सजा दी गई। पाँचवीं पैदल सेना के जवानों को नदी के दूसरी ओर विद्रोहियों को पकड़ने के लिए तैनात किया गया।
वह रातभर घाट पर तैनात रहे। अंग्रेज अधिकारियों ने तिरहुत में एक देसी नायक, रिसालदार को शहर की सुरक्षा का जिम्मा सौंप दिया था। नजीबों के सूबेदार राम भरोसी पांडे को ट्रेजरी और जेल की सुरक्षा का कार्यभार सौंप कर, अंग्रेज अधिकारी शाम सात बजे मुजफ्फरपुर से रवाना हुए और अगले दिन दानापुर पहुँचे। अंग्रेज अधिकारियों का दल जैसे ही मुजफ्फरपुर से निकला, शहर के 16 विद्रोही सिपाहियों ने वहाँ मार्च किया। 31 जुलाई 1857 को मुजफ्फरपुर में 11वीं पैदल सेना के जवानों ने विद्रोह कर दिया। विद्रोही सिपाहियों ने कलेक्टर के आवास और थाने पर हमला किया। न्यायाधीश और कलेक्टर के घरों को लूटा। विद्रोहियों ने जेल से कैदियों को छुड़ाने और ट्रेजरी को लूटने का प्रयास किया।
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मुजफ्फरपुर में विद्रोहियों का दमन
मुंगेर के डाक मेल पर डाका डाला गया। मुजफ्फरपुर थाना के दोरागा शेख जहूर अली को विद्रोहियों ने अपने कब्जे में ले लिया। उन्होंने थाना में घुसकर सम्पत्ति को क्षति पहुँचाई। विद्रोह थमने के काफी समय बाद, शेख जहूर अली ने सरकार को आवेदन दिया कि थाने के आवास में उसकी 133 रुपए की सम्पत्ति विद्रोहियों द्वारा नष्ट कर दी गई थी। ट्रेजरी पर तैनात नजीब गार्डों और फौजदारी नाजिम ने विद्रोहियों को चेतावनी दी और पुलिस बलों को इकट्ठा कर उन पर हमला किया। इस हमले में गोलियाँ चलीं और एक घोड़ा मारा गया। एक सिपाही और एक महिला घायल हो गए। विद्रोहियों ने एक पासी की हत्या की और सीवान की ओर भाग गए। सदर थाने के जमादार चुन्नी लाल ने बरकंदाजों और सिपाहियों को लेकर विद्रोहियों का पीछा किया और उन्हें पकड़ने में सफल रहे। सभी विद्रोहियों को उम्रकैद की सजा सुनाई गई। एक ट्रांपर को गिरफ्तार कर मोतिहारी में फाँसी पर लटका दिया गया।
तिरहुत के आफिसिएटिंग मजिस्ट्रेट उस दिन दानापुर में थे। दोपहर को उन्हें सूचना मिली कि सवारों ने विद्रोह कर दिया है और वे अपने साथ सेशन जज का घोड़ा भी ले गए हैं। नजीबों ने सरकारी सम्पत्ति की रक्षा करने की कोशिश की। तिरहुत के आफिसिएटिंग मजिस्ट्रेट ने मुजफ्फरपुर लौटने के बारे में पटना के कमिश्नर टेलर से चर्चा की, लेकिन टेलर ने उन्हें लौटने की अनुमति नहीं दी। टेलर के आदेश के बिना भी, आफिसिएटिंग मजिस्ट्रेट स्कूल मास्टर ओ. रेली के साथ दानापुर से मुजफ्फरपुर के लिए निकल पड़े। ओ. रेली उसे अकेला जाने देने के पक्ष में नहीं थे।
सोमवार की सुबह वे हाजीपुर पहुँचे और दोपहर तक मुजफ्फरपुर पहुँचे। उनके पहुँचने पर सूबेदार और देसी अफसर उनके पास आए। उन्होंने बताया कि उन्होंने विद्रोहियों से ट्रेजरी और जेल को सुरक्षित रखा है। मजिस्ट्रेट ने तत्काल उन्हें 1,000 रुपए इनाम देने का आदेश दिया। कमिश्नर ने उन्हें दो महीने के वेतन के बराबर 1,603 रुपए का इनाम देने की अनुशंसा की।
तिरहुत के जज रॉबर्ट फोर्बस और प्रधान सदर अमीन जे. एन. वेस्टन के 4 जुलाई, 1857 को पटना के कमिश्नर को लिखे पत्र इस बात के साक्षी हैं कि अधिकारी भयभीत और आतंकित थे। जज रॉबर्ट फोर्बस ने लिखा कि तिरहुत स्टेशन छोड़ चुके अधिकारियों को बिना सैनिक सुरक्षा के वापस भेजना अपमानजनक होगा। उन्होंने सुझाव दिया कि अधिकारियों को पूरी सुरक्षा के साथ सिखों की एक टुकड़ी के साथ मुजफ्फरपुर भेजा जाए।
प्रधान सदर अमीन जे. एन. वेस्टन का भी मानना था कि छपरा और मुजफ्फरपुर सुरक्षित नहीं हैं। उन्हें नजीबों पर शक था कि वे विद्रोहियों का समर्थन कर सकते हैं। विद्रोहियों को पकड़ने के लिए सख्त कार्रवाई की गई, और नेपाल से किसी भी व्यक्ति के आने पर रोक लगा दी गई। अखबारों पर भी प्रतिबंध लगाया गया। मुजफ्फरपुर शहर के पश्चिमी छोर पर स्थित एक मकान को छोड़कर अंतिम मकान की किलेबंदी की गई। अंग्रेजों और सिखों के लिए रसद जमा की गई ताकि किसी हमले की स्थिति में वे उस मकान में शरण ले सकें।
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विद्रोहियों और फौज के बीच लुकाछिपी चलती रही
1857 के विद्रोह का सूत्र वाक्य बन गया था कि “अंग्रेजी राज खत्म हो गया है।” तिरहुत के कई गाँवों में लोगों ने इस वाक्य का ऐलान कर दिया था, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ा। 5 सितंबर, 1857 को डैम्पियर ने तिरहुत के जिला मजिस्ट्रेट का पदभार संभाला, तब उसे बेलसंड नील फैक्टरी के मैकफर्सन से सूचना मिली कि बेलसंड गाँव के लोग यह चर्चा कर रहे थे कि ईस्ट इंडिया कम्पनी का राज समाप्त हो गया है। गाँव वाले बेलसंड फैक्टरी को लूटने की योजना बना रहे थे। डैम्पियर खुद उस गाँव में गया और गाँव का निरीक्षण किया। इसी तरह की बातें उसे शाहपुर फैक्टरी के आस-पास के गाँवों में भी सुनने को मिलीं। वह वहाँ भी गया और कुछ ग्रामीणों को ‘सबक’ सिखाया।
सितंबर के महीने में, सरकार ने अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को मुजफ्फरपुर छोड़ने का आदेश दिया। इसी दौरान यूरोपियनों पर हमले और डकैती की दो घटनाएँ हुईं, जिनमें हमलावर स्थानीय ग्रामीण थे। इन मामलों में दोषियों को आजीवन कारावास और कुछ को पाँच साल की सजा दी गई।
गोरखा रेजिमेंट को बुला लिया गया था और विद्रोहियों को रोकने के लिए घाटों को पूरी तरह बंद कर दिया गया था। दिसंबर में, घुड़सवार सैनिकों ने तिरहुत के ग्रामीण क्षेत्रों में, पूसा से दरभंगा तक मार्च किया। मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट में कहा गया कि अश्वारोही दस्ते ने पुपरी से दरभंगा और नाथुपुर तक कई दिनों तक मार्च किया। दरभंगा से मुजफ्फरपुर तक यह सिलसिला लगातार चलता रहा। विद्रोही पूर्णिया की तराई की ओर भाग गए। विद्रोहियों और फौज के बीच लुकाछिपी का खेल लम्बे समय तक चलता रहा।
संदर्भ
प्रसन्न कुमार चौधरी श्रीकांत, 1857 बिहार-झारखंड का युद्ध, राजकमल प्रकाशन
William Taylor, Prabhat Prakashan
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में