जब गांधीजी ने दूध न पीने का संकल्प लिया
महात्मा गांधी स्वास्थ्य के समस्या से हमेशा जूझते रहे। जैसे प्लूरिसी (1914), तीव्र पेचिश (1918 और 1929 में दो बार), मलेरिया (1925, 1936 और 1944 में), गैस्ट्रिक फ्लू (1939) और इन्फ्लुएंजा (1945)। उनका बवासीर (1919) और गंभीर अपेंडिसाइटिस (1924) के लिए ऑपरेशन भी हुआ था। लेकिन इन बार-बार होने वाली बीमारियों के बावजूद, वह हर बार वापस खड़े हो जाते थे, जो मुख्य रूप से उनके अनुशासित जीवनशैली के कारण था, जिसमें शारीरिक फिटनेस और संतुलित आहार पर ध्यान केंद्रित करना शामिल था
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी हाई ब्लड प्रेशर यानी उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे। वो इससे निपटने के लिए प्राकृतिक चिकित्सा का सहारा लेते थे। जब उन्हें प्लूरिसी (1914),हुआ तो डॉ. जीवराज मेहता ने उनका इलाज किया जो किसी चुनौति से कम नहीं था।
गांधी जी का ब्लड प्रेशर हमेशा बढ़ा रहता था
गांधीजी सभी चिकित्सा प्रणालियों में विश्वास रखते थे, वह विशेष रूप से प्राकृतिक उपचार की ओर आकर्षित थे और रोग प्रबंधन के लिए निवारक तकनीकों में विश्वास करते थे। जब बात उनकी अपनी सेहत की आती, तो वह स्वयं का उपचार प्राकृतिक चिकित्सा या उपवास और आहार संबंधी प्रयोगों से करते थे। हालांकि, इसके साथ ही, वह स्वास्थ्य जांच के लिए डॉ. जीवराज मेहता, डॉ. पी.जे. मेहता, डॉ. सुशीला नय्यर और अन्य चिकित्सा डॉक्टरों से भी परामर्श लेते थे।
अध्ययन में आईसीएमआर को पता चला है कि गांधीजी उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे। उस वक्त इस बीमारी के इलाज के लिए कोई मुफीद दवा नहीं थी। उनके हेल्थ रिकॉर्ड से पता चला है कि गांधीजी सर्पगंधा दवा का सेवन करते थे। सर्पगंधा से उनका उच्च रक्तचाप नियंत्रण में रहता था।
महात्मा गांधी के स्वास्थ्य को लेकर उस जमाने में लोग काफी चिंतित रहते थे। यही कारण था कि गांधीजी की सेहत की पाबंदी से नियमित जांच होती थी।
डॉक्टरों की एक टीम नियत वक्त पर उनके स्वास्थ्य का बारीकी से अध्ययन करती थी। इस टीम में डॉ. जीवराज मेहता, सुशीला अय्यर और डॉ. मेडॉक शामिल थे। गांधीजी के हेल्थ रिकॉर्ड से पता चलता है कि एक बार उन्हें मलेरिया भी हुआ था। इसके लिए उन्होंने कुनैन की गोली खाई थी।
जब गांधीजी ने दूध न पीने का संकल्प लिया
महात्मा गांधी प्रथम विश्व युद्ध के दौरान लंदन में थे, जब उन्हें प्लूरिसी (फेफड़े की परत की सूजन) हुआ। यह स्थिति उन्हें कुछ चिंता का कारण बनी, लेकिन उन्हें पता था कि इसका इलाज दवाओं में नहीं है, बल्कि आहार परिवर्तन और बाहरी उपचारों में है।
उन्होंने डॉ. थॉमस एलिन्सन (1858-1918), एक ब्रिटिश डॉक्टर और प्रसिद्ध आहार विशेषज्ञ को बुलाया, जिनसे गांधीजी की मुलाकात 1890 में हुई थी। डॉ. एलिन्सन संपूर्ण आटे की रोटी के पक्षधर थे। आज भी उनका नाम यूरोप में उपलब्ध एक लोकप्रिय ब्रेड ब्रांड (एलिन्सन) के लिए उपयोग किया जाता है।
डॉ. एलिन्सन ने गांधीजी के आहार को बदलने की कोशिश की। उन्हें पता था कि गांधीजी ने दूध न पीने का संकल्प लिया था। डॉ. एलिन्सन ने गांधीजी को कुछ दिनों के लिए वसा से दूर रहने और साधारण भूरे रंग की रोटी, कच्ची सब्जियाँ जैसे चुकंदर, मूली, प्याज और अन्य कंदमूल एवं साग, साथ ही ताजे फलों, विशेषकर संतरे पर जीवन यापन करने के लिए कहा। सब्जियों को पकाना नहीं था, केवल चबाने में आसानी के लिए कद्दूकस करना था।
डॉ. जीवराज मेहता ने महात्मा गांधी का इलाज किया। उन्होंने भी दूध और अनाज फिर से शुरू करने के लिए बहुत दबाव डाला, लेकिन मैं अड़ियल था। यह बात गोपाल कृष्ण गोखले के कानों तक पहुँची। उन्हें फलाहार के पक्ष में मेरे तर्क पर ज़्यादा ध्यान नहीं था, और वह चाहते थे कि मैं अपने स्वास्थ्य के लिए डॉक्टर द्वारा बताई गई हर चीज़ खाऊँ।
गोखले के दबाव के आगे गांधीजी ने झुकने का मन बनाया
गोपाल कृष्ण गोखले के दबाव के आगे झुकना गांधीजी के लिए आसान नहीं था। जब उन्होंने मना करने से मना कर दिया, तो गांधीजी ने उनसे इस सवाल पर विचार करने के लिए चौबीस घंटे का समय देने की विनती की। उस शाम जब गांधीजी और केलनबैक घर लौटे, तो गांधीजी ने चर्चा की कि मेरा कर्तव्य क्या है।
गांधीजी सारी रात इस विषय पर विचार किया। प्रयोग छोड़ने का अर्थ था उस दिशा में अपने सभी विचारों को त्याग देना, फिर भी मुझे उनमें कोई दोष नहीं मिला। प्रश्न यह था कि गांधीजी गोखले के प्रेमपूर्ण दबाव के आगे कितना झुके, तथा स्वास्थ्य के तथाकथित हित में अपने प्रयोग में कितना परिवर्तन करे। अंततः गांधीजी यह निर्णय लिया कि जहाँ तक उद्देश्य मुख्यतः धार्मिक है, वहाँ तक मैं प्रयोग जारी रखूँगा, तथा जहाँ उद्देश्य मिश्रित है, वहाँ डॉक्टर की सलाह मानूँगा।
दूध छोड़ने में धार्मिक विचार प्रमुख थे। गांधीजी के सामने कलकत्ता के गोवलों द्वारा गायों और भैंसों से दूध की आखिरी बूँद निकालने के लिए अपनाई जाने वाली दुष्ट प्रक्रियाओं का चित्र था। गांधीजी को यह भी महसूस हो रहा था कि जैसे मांस मनुष्य का भोजन नहीं है, वैसे ही पशु का दूध भी मनुष्य का भोजन नहीं हो सकता।
इसलिए गांधीजी सुबह उठकर दूध न छोड़ने के अपने संकल्प पर अडिग रहने का निश्चय कर लिया। इससे गांधीजी को बहुत राहत मिली। अब गांधीजी गोखले के पास जाने से डर रहा था, लेकिन गांधीजी विश्वास था कि वह उनके निर्णय का सम्मान करेंगे। शाम को कैलेनबाक और गांधीजी नेशनल लिबरल क्लब में गोखले से मिलने गए। उन्होंने मुझसे पहला सवाल पूछा: ‘अच्छा, क्या आपने डॉक्टर की सलाह मानने का फैसला किया है?’
गांधीजी ने धीरे से लेकिन दृढ़ता से उत्तर दिया: ‘मैं सभी मुद्दों पर झुकने को तैयार हूँ, सिवाय एक मुद्दे के जिसके लिए मैं आपसे विनती करता हूँ कि आप मुझ पर दबाव न डालें। मैं दूध, दूध से बने उत्पाद या मांस नहीं लूँगा। अगर इन चीजों को न लेने का मतलब मेरी मौत है, तो मुझे लगता है कि मुझे इसका सामना करना चाहिए।’
गोखले ने पूछा, ‘क्या यह आपका अंतिम निर्णय है?’
मुझे डर है कि मैं अन्यथा निर्णय नहीं ले सकता,’ मैंने कहा। ‘मैं जानता हूं कि मेरे निर्णय से आपको दुख होगा, लेकिन मैं आपसे क्षमा चाहता हूं।’
कुछ हद तक पीड़ा के साथ, लेकिन गहरे स्नेह के साथ, गोखले ने कहा: ‘मैं आपके निर्णय से सहमत नहीं हूँ। मुझे इसमें कोई धर्म नहीं दिखता। लेकिन मैं आप पर और दबाव नहीं डालूँगा।’ इन शब्दों के साथ वह डॉ. जीवराज मेहता की ओर मुड़े और कहा: ‘कृपया उन्हें और अधिक परेशान न करें। उन्होंने जो सीमा स्वयं तय की है, उसके भीतर आप जो चाहें लिख दें।’
यह वेबसाईट आपके ही सहयोग से चलती है। इतिहास बदलने के खिलाफ़ संघर्ष में
वेबसाइट को SUBSCRIBE करके
भागीदार बनें।
गांधीजी कि जिद्द और डॉक्टरों की बाधा
डॉक्टर ने असहमति जताई, लेकिन वह असहाय थे । गांधीजी को मूंग का सूप पीने की सलाह दी, जिसमें हींग का एक छौंक भी हो। इस पर गांधीजी सहमत हो गया। गांधीजी ने इसे एक या दो दिन तक लिया, लेकिन इससे गांधीजी दर्द और बढ़ गया। चूंकि गांधीजी को यह उपयुक्त नहीं लगा, इसलिए गांधीजी फिर से फल और मेवे खाने शुरू कर दिए।
बेशक डॉक्टर ने अपना बाहरी उपचार जारी रखा। बाद वाले उपचार से मेरा दर्द कुछ हद तक कम हुआ, लेकिन मेरी पाबंदियाँ उसके लिए एक बड़ी बाधा बन गईं। इस बीच गोखले घर के लिए रवाना हो गये, क्योंकि वे लंदन के अक्टूबर के कोहरे को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे।
गांधीजी अपनी सेहत को लेकर काफी सजग रहते थे। खूब पैदल चलने की वजह से वे स्वस्थ रहते थे। अपनी बीमारियों के लिए भी वे ज्यादातर प्राकृतिक चिकित्सा पर ही निर्भर रहते थे। उन्होंने कुष्ठ रोग की जागरूकता के लिए बड़ा जन अभियान चलाया था। उस दौरान परचुरे शास्त्री नाम के संस्कृत विद्वान को कुष्ठ रोग हो गया था। इसके चलते उनके इलाज के लिए सेवाग्राम में एक अलग से कुटिया बनाई गई और गांधीजी खुद उनकी देखभाल करते थे।
संदर्भ
https://www.ncbi.nlm.nih.gov/pmc/articles/PMC6515735/
गोखले की दानशीलता https://www.mkgandhi.org/autobio/chap118.php
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में