जब भगत सिंह ने देखी फिल्म टाम काका की कुटिया
शहीद भगत सिंह ने महज 23 साल की उम्र में देश के लिए अपनी कुर्बानी दी थी भगत सिंह के विचार आज भी जिंदा हैं। समय-समय पर ऐसी फिल्में बनती रही हैं जिससे उन्हें याद किया जा सके और युवाओं में देशभक्ती की आग जलती रहे।‘द लीजेंड ऑफ भगत सिंह’,शहीद ए आजम’,‘रंग दे बसंती’,‘शहीद ए आजाद भगत सिंह’ और ‘शहीद’ भगत सिंह पर बनी फिल्में हैं। भगत सिंह अपने साथियों के साथ ‘टाम काका की कुटिया’ देखी थी उनका कहना था यह फिल्म सबों को देखनी चाहिए।
भगत सिंह ने क्यों देखी टाम काका की कुटिया
एक दिन सरदार भगत सिंह, विजय कुमार सिन्हा तथा भगवान दास, ब्रेडला हॉल में क्रान्तिकारियों के श्रद्धांजलि समारोह की सभा देखने गए थे। जब वह वहाँ से लौटे तो मार्ग में उन्होंने ‘टाम काका की कुटिया‘ (uncle Tom’s cabin) का सिनेमा पोस्टर लगा देखा। इसमें अमरीकी हब्शी गुलामों पर होनेवाले अत्याचार तथा उससे हब्शियों का मुक्ति संघर्ष दिखाया गया था। भगत सिंह ने प्रस्ताव किया,
‘चित्र अवश्य देखा जाए, पर प्रश्न है कि पैसा कहाँ से आए ?”
सरदार भगत सिंह ने भगवान दास से पैसे माँगे तो भगवान दास ने देने से इन्कार किया। तब रणजीत ने (यह भगत सिंह का पार्टी का नाम था) कला पर एक लम्बा-चौड़ा भाषण उन्हें सुनाया तथा यह समझाने का प्रयत्न किया कि गुलामी से मुक्ति संघर्ष’ का यह चित्र क्रान्तिकारियों के लिए देखना कितना आवश्यक है। परन्तु भगवान दास पर इस सबका कोई असर न हुआ।
उनका एक ही नारा था – ‘महाशय जी का आदेश है कि पैसे खाने के सिवा और किसी अन्य काम के लिए खर्च न किए जाएँ, इसलिए मैं उन्हें हरगिज न दूँगा ।’
अब भगत सिंह ने इस प्रकार के अन्ध अनुशासन की बात पर भी प्रवचन किया और जब उसका भी कोई असर न हुआ तो मामला हाथापाई पर आ गया। यह हाथापाई भी केवल जबानी चल रही थी और साथ-साथ तीनों के ही कदम सिनेमा घर की ओर बढ़ रहे थे। स्वयं भगवान दास भी सिनेमा देखने के उत्सुक थे, परन्तु महाशय जी को डेढ़ रुपए का हिसाब भी तो देना होगा। फिर भी भगत सिंह की चुनौती को बचत का साधन बना भगवान दास ने कहा ‘सड़क पर हाथापाई मत करो, ले लो, पर मैं ये पैसे तुम्हें स्वेच्छा से नहीं दे रहा हूँ, बल्कि मुझसे जबरदस्ती छीन रहे हो।’
भगत सिंह हँसकर बोले- ‘अच्छा यही सही और साथ यह भी समझ लो कि मैं तुम्हें पीट-पाट कर चवन्नी के तीन टिकिट लाने के लिए भेज रहा हूँ। ‘ भगवान दास ने यह भी मान लिया परन्तु अपने से डेढ़ फुट ऊँचे तथा लम्बे-चौड़े पंजाबियों की भीड़ में वे न घुस सके और लौट आकर उन्होंने पैसे भगत सिंह को पकड़ा दिए। तब भगत सिंह कोट उतारकर कमीज की बाँहें चढ़ा सिनेमावीरों की भीड़ में घुस पड़े, परन्तु उन्हें चवन्नी के टिकिट न मिले और तब वे अठन्नी के टिकिट ले आए और इस तरह दो समय के भोजन के पैसे साफ हो गए।
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जब शाम का भोजन शहीद कर फिल्म देखी गई
सिनेमा देख लिया पर शाम का भोजन भी शहीद हो गया। दूसरे दिन सवेरे भी व्रत करना पड़ेगा यह समस्या गम्भीर थी, इसलिए रास्ते भर यह योजना बनती रही कि महाशय जी ( आज़ाद ) को किस प्रकार विश्वास दिलाया जाए कि वह चित्र देखना आवश्यक था और इसलिए भोजन के पैसे खर्च कर सिनेमा देखा गया और जब वे अपने ठहरने की जगह पहुँचे तो रणजीत ( भगत सिंह) ने महाशय जी से पहले उस चित्र की कहानी समझाई और फिर वह चित्र क्रान्तिकारियों के लिए क्यों देखना ज़रूरी है इस बात का भी विश्लेषण किया।
यह सब सुन आज़ाद मुस्कुरा दिए। वैसे भी वह भगत सिंह की बात नहीं टालते थे, उनके प्रति आज़ाद का बहुत स्नेह था। भगत सिंह भी चाहते तो आज़ाद को बिना बताए ही इस पैसे की पूर्ति कर सकते थे, परन्तु आज़ाद के प्रति उनके हृदय में अत्यधिक स्नेह था और थी आदर की भावना, इसीलिए उन्होंने ये सारी बातें आज़ाद से कहीं और आज़ाद ने प्रसन्नता से दूसरे दिन के खाने के लिए पैसे दिए। पार्टी को पैसों की बड़ी तंगी रहती थी, इसी कारण आज़ाद खर्च पर बड़ा नियन्त्रण रखते थे।
पैसों के हिसाब की चर्चा में मैं एक घटना का और उल्लेख करूँगा। भगवान दास, सदाशिव राव मलकापुर कर तथा मैंने जब आज़ाद के साथ झाँसी छोड़ा तो हम लोग अपने पास पैसे कभी नहीं रखते थे। आवश्यकता पड़ने पर आज़ाद से पैसे माँग लेते और काम हो जाने पर हिसाब दे देते, यदि पैसे बचते तो उन्हें हम तुरन्त लौटा देते । हमारे लिए यह साधारण बात थी, परन्तु अन्य साथियों को इससे हैरानी होती। एक बार इसी तरह भगवतीचरण जी ने मुझे किसी काम से बाहर भेजा। काम समाप्त कर जब मैं लौटा तो जाते समय उन्होंने मुझे जो रुपए दिए थे उसमें से जो खर्च हुआ था उसका हिसाब बनाकर बाकी रुपए उन्हें लौटा दिए।
वे मेरी ओर देखते रह गए। पास ही बैठे पंजाब के एक साथी ने मुझसे पूछा – ‘यह हिसाब का लेना-देना कैसा ?’ मैं प्रश्न सुन हैरान रह गया। मैंने कहा, ‘हम तो यही करते हैं। अपने नेता को हिसाब तो देना ही चाहिए।’
उसने आश्चर्यचकित होकर कहा-‘हम तो ऐसा नहीं करते।’
संदर्भ
विश्वनाथ वैश्म्पायन, अमीर शहीद चंद्रशेखर आज़ाद, राजकमल प्रकाशन, 2007
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में