स्वाधीनता संग्राम के अनाम योद्धा हरिगोपाल बाल
हरिगोपाल बाल या बाउल जिन्हें लोकप्रिय रूप से टेगरा कहा जाता है एक बंगाली क्रांतिकारी थे जिन्होंने भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया था । अंग्रेजों की गोली लगने के बाद बंगाल के इस युवा क्रांतिकारी ने दम तोड़ दिया था। स्वतंत्रता संग्राम में उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान चटगाँव शस्त्रागार छापा था।
उत्पीड़न के प्रतिरोध के लिए उत्पीड़न की विचारधारा और प्रतीकों पर हमला करना ज़रूरी है। हथियारों और शस्त्रागार से ज़्यादा इस तरह के दबाव का स्पष्ट प्रतीक और क्या हो सकता है। इस राजनीतिक चेतना और संप्रभुता की दृष्टि के साथ, सशस्त्र क्रांतिकारियों का एक समूह अपने मिशन पर आगे बढ़ा।
सूर्य कुमार सेन भारतीय रिपब्लिकन आर्मी के चटगाँव डिवीजन का नेतृत्व कर रहे थे। क्रांतिकारी निर्मल सेन, गणेश घोष, अंबिका चक्रवर्ती, अनंत सिंह, सुबोध रॉय और भाई लोकनाथ और हरि गोपाल बाल भी इस समूह का हिस्सा थे।
उनकी योजना चटगांव शस्त्रागार पर हमला करने, उस पर छापा मारने, वहां तैनात ब्रिटिश सैनिकों को वहां से हटा देने और उन्हें नीचे गिराने की थी।
हरिगोपाल बाल कौन थे?
हरि गोपाल बाल भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध सेनानी थे। वह भी हमारे उन गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों में से हैं। जिन्होंने देश के आजादी के लिए अपना योगदान दिया। वह मास्टर सूर्यसेन के सशस्त्र प्रतिरोधी बल के सदस्य थे।
अंग्रेजों के अत्याचारों से भारतीय युवाओं का मन बेचैन हो उठा था। इस समय में मास्टर सूर्य सेन ने क्रांति का बीड़ा उठा रखा था। वह जानते थे की धन व हथियारों की कमी के कारण वह अंग्रेजों से सीधे नहीं लड़ सकते इसलिए उन्होंने साम्राज्यवादी सरकार के खिलाफ गुरिल्ला युद्ध शुरू किया। हरि गोपाल बल भी उनके साथ जुड़ गए।
हरि गोपाल का जन्म कनुंगोपारा,चटगाँव,वर्तमान बांग्लादेश में हुआ। उनके पिताजी का नाम प्राण कृष्ण बाल था। इन्होने महान क्रांतिकारी मास्टर सूर्य सेन जी के नेतृत्व में चटगाँव विद्रोह में भाग लिया था।
प्रख्यात क्रान्तिकारी मास्टर सूर्यसेन दा द्वारा स्थापित इंडियन रिपब्लिकन आर्मी के सदस्य लोकनाथ बाल के छोटे भाई 14 वर्षीय हरिगोपाल बाल के हौसले बेहद बुलंद थे। वह क्रान्ति कार्य मे अपने बड़े भाई के साथ भाग लेते थे। हरिगोपाल बाल स्वभाव के चंचल और उग्र थे, इसलिए उन्हें टेंगरा के नाम से पुकारते थे।
हरिगोपाल बाल क्रांतिकारियों में शामिल हो गए और 18 अप्रैल 1930 को अपने बड़े भाई लोकनाथ बाल के साथ चटगाँव शस्त्रागार छापे में भाग लिया ।
भारतीय स्चाधीनता संग्राम के किशोर क्रांतिकारी,हरिपद भट्टाचार्य
जलालाबाद की पहाड़ियों पर चला संघर्ष
18 अप्रैल 1930 की रात के अंधेरे में, उन्होंने योजना को अंजाम दिया। क्रांतिकारी इतने जोश में थे- आज़ादी या मौत की दौड़ में- अंग्रेजों को लगा कि मूल निवासियों की भीड़ उन पर टूट पड़ी है। ये स्वतंत्रता सेनानी अंग्रेजों को हराने के मिशन के साथ आए थे और किसी भी तरह से, वे ऐसा किए बिना वापस नहीं जा रहे थे।
अपने साहस और दृढ़ विश्वास के साथ, उन्होंने चटगाँव की धरती से औपनिवेशिक नियंत्रण को उखाड़ फेंका। हालाँकि वे इस शुरुआती चरण में सफल रहे, लेकिन अभी भी एक लंबी लड़ाई लड़ी जानी थी।
यह अंतिम संघर्ष जलालाबाद की पहाड़ियों के पास हुआ, जहाँ क्रांतिकारी शरण लिए हुए थे। बदला लेने के उद्देश्य से, ब्रिटिश सेना ने उन पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया। लड़ाई भयंकर थी क्योंकि मशीनगनों से लैस अंग्रेज़ों के सामने राइफ़ल वाले कुछ लोग थे।
इतनी बड़ी संख्या में लोग किसी को भी आत्मसमर्पण करने पर मजबूर कर सकते थे, लेकिन हरि गोपाल बाल और उनके साथियों ने ऐसा नहीं किया। साथ मिलकर उन्होंने अपनी भरी हुई बंदूकों से एक अवरोध खड़ा किया और पूरी दृढ़ता के साथ दुश्मन के सामने डटे रहे।
पूर्व योजनानुसार 18 अप्रैल, 1930 को सैनिक वस्त्रों में इन युवाओं ने गणेश घोष और लोकनाथ बाल के नेतृत्व में दो दल बनाये। गणेश घोष के दल ने चटगाँव के पुलिस शस्त्रागार पर और लोकनाथ जी के दल ने चटगाँव के सहायक सैनिक शस्त्रागार पर कब्ज़ा कर लिया। किन्तु दुर्भाग्यवश उन्हें बंदूकें तो मिलीं, किंतु उनकी गोलियाँ नहीं मिल सकीं।
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जब क्रांतिकारियों ने अस्थायी सरकार की स्थापना की
क्रांतिकारियों ने टेलीफोन और टेलीग्राफ के तार काट दिए और रेलमार्गों को अवरुद्ध कर दिया। एक प्रकार से चटगाँव पर क्रांतिकारियों का ही अधिकार हो गया। तत्पश्चात् यह दल पुलिस शस्त्रागार के सामने इकठ्ठा हुआ, जहाँ मास्टर सूर्य सेन ने अपनी इस सेना से विधिवत सैन्य सलामी ली, राष्ट्रीय ध्वज फहराया और भारत की अस्थायी सरकार की स्थापना की।
इस दल को अंदेशा था की इतनी बड़ी घटना पर अंग्रेज़ सरकार तिलमिला जायेगी, इसीलिए वह गोरिल्ला युद्ध हेतु तैयार थे। इसी उद्देश्य के लिए यह लोग शाम होते ही चटगाँव नगर के पास की पहाड़ियों में चले गए, किन्तु स्थिति दिन पर दिन कठिनतम होती जा रही थी। बाहर अंग्रेज़ पुलिस उन्हें हर जगह ढूँढ रही थी।
वहीं जंगली पहाड़ियों पर क्रांतिकारियों को भूख-प्यास व्याकुल किये हुए थी। अंतत: 22 अप्रैल, 1930 को हज़ारों अंग्रेज़ सैनिकों ने जलालाबाद पहाड़ियों को घेर लिया, जहाँ क्रांतिकारियों ने शरण ले रखी थी। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी क्रांतिकारियों ने समर्पण नहीं किया और हथियारों से लेस अंग्रेज़ सेना से गोरिल्ला युद्ध छेड़ दिया।
इन क्रांतिकारियों की वीरता और गोरिल्ला युद्ध-कौशल का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इस जंग में जहाँ 80 से भी ज़्यादा अंग्रेज़ सैनिक मरे गए, वहीं मात्र 12 क्रांतिकारी ही शहीद हुए।इस युद्ध मे हरि गोपाल बाल का हौसला आसमान छू रहा था।
हरि गोपाल बाल स्वयं की चिंता न करते हुवे अंग्रेजी फौज पर गोलियों की वर्षा कर रहे थे। उन्होंने आधा दर्जन अंग्रेजी सैनिकों को मौत के घाट उतारा। लेकिन एक सैनिक की गोली उन्हें लगी और वह वीरगति को प्राप्त हो गए।
संदर्भ
पांखुरी वक़्त जोशी, स्वतन्त्रता समर के भूले-बिसरे सितारे, वाणी प्रकाशन
श्रीकृष्ण सरल, क्रांतिकारी कोष प्रभात प्रकाशन
जनता का इतिहास, जनता की भाषा में